सुबह-सुबह पीटी की सीटी से हमारे दिन की शुरुआत होती है। हर दिन जैसे सूरज का उगना तय था वैसे ही हम भी उसी के साथ जाग जाया करते थे। थोड़ा बहुत व्यायाम और प्रणायम उस समय हमारी दिनचर्या का पहला काम था। स्कूल के लिए तैयार होना और बाथरूम में नहाने की वो लम्बी लाईने अब बहुत याद आती हैं। आज भी मैं अपने हॉस्टल के दिनों को सबसे ज्यादा याद करती हूं। हॉस्टल में बिताया समय मेरे लिए बहुत ख़ास है जिंदगी का एक ऐसा समय जिसने मुझे अपने अस्तित्व को तलाशने और तराशने का बखूबी काम किया।
हॉस्टल के अनुभव हर उम्र में कुछ अलग कहानी कहते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था। कम उम्र में हॉस्टल में 100-200 अपने ही जैसी लड़कियों के बीच खुद की पहचान बनाना बहुत मुश्किल काम था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया और मैं उस माहौल में सहज हो गई। कक्षा छह से ही मैं एक आवासीय विद्यालय में पढ़ी हूं। आवासीय विद्यालय अपने नाम के अनुरूप केवल छात्रों को पढ़ने के लिए और रहने के लिए आवास ही नहीं मुहैया कराते, बल्कि साथ में कई तरह की चुनौतियां और मुश्किलें भी लाते हैं। असल में, हॉस्टल में रह कर की जाने वाली पढ़ाई, विद्यार्थियों को अकादमिक स्तर पर ही विकास नहीं करती बल्कि इनका लक्ष्य समाज में एक बेहतर नागरिक का निर्माण करना भी होता है।
मेरे अनुभव भी इस बात का पूर्णतः समर्थन करते हैं कि हॉस्टल, हर विद्यार्थी के समावेशी विकास में अहम भूमिका निभाता है। हॉस्टल में रहने वाले बच्चों की दुनिया उनकी ही उम्र के किसी अन्य बच्चे से कई गुना अलग होती है। यह न सिर्फ सकारात्मक तौर पर बल्कि इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं। असल में, हॉस्टल की दुनिया हर बच्चे को स्वयं पर निर्भर होना सीखा देती है। बच्चे से फिर यही उम्मीद रहती है कि वो न सिर्फ अपना बौद्धिक विकास ढंग से करें बल्कि दुनिया की समझ को भी बराबर विकसित करे।
लंबे समय के लिए अपने माता-पिता से दूर रहना मेरे लिए कष्टकारी तो रहा लेकिन उसके बदले में जो अनुभव मुझे मिले हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण है। अपने परिवार से अलग होकर मैंने एक जिम्मेदारी की भावना अपने भीतर जागते हुए महसूस की। यह भावना समय के साथ परिपक्व होती गई। हॉस्टल में रात को एक-दूसरे से बातें करना और हर व्यक्ति से कुछ न कुछ सीखने का अनुभव मुझे आगे चल कर अपनी जिंदगी में बहुत काम आया। आज जब मुझे मीटिंग में किसी प्रोपोजल या अपनी बात को सबके सामने रखना होता है तो मुझे हॉस्टल में जिस तरह हम अपनी बातें सबके सामने रखते थे वहां से यह आत्मविश्वास हासिल हुआ।
छोटी उम्र में आत्मनिर्भर होना सिखाया
जब घंटों बैठ कर हम लड़कियां अपने हॉस्टल में मैनेजमेंट के सिलसिले में बातें करते थे कि कैसे हॉस्टल में साफ़-सफाई को बरक़रार रखना है और कैसे अपने जूनियर्स के साथ व्यवहार करना है। यह सभी बातें कब असल जिंदगी में काम आएंगी तब कभी सोचा ही नहीं था। लेकिन अब वर्षों बाद काम करते हुए यह सब याद आता है। हॉस्टल के शुरुआती दिन वाकई में पहाड़ की एक सीधी चढ़ाई थी, जिसको पार कर पाना काफी मुश्किल रहा। एक नए वातावरण में खुद को सेट करना और उसके साथ-साथ नए लोगों के साथ रिश्ते बनाना काफी मुश्किल था। जब तक घर पर थे, सारी सुख-सुविधाएं और आराम हमारे पास थे लेकिन हॉस्टल में सबके साथ होते हुए भी अकेले होना, उसके बाद सभी गतिविधियों में बराबरी से शामिल होना पड़ता था। कई बार मन नहीं होते हुए भी काम करना पड़ता था।
हॉस्टल के जीवन ने छोटी उम्र में मुझे आत्मनिर्भर होना सिखाया है। अपने काम खुद करना और किसी भी स्थिति में होकर क्या फैसले लेने हैं यह सब मैंने हॉस्टल में बिताए वक्त से ही सीखा है। अपने कपड़े खुद ही धुलने पड़ते थे। हर रविवार को हम सभी लड़कियां अपनी यूनिफार्म और अन्य कपड़ें धुला करते थे। समय से सोना और समय पर जाग जाना तो आदत में था ही, लेकिन अनुशाशन कब जिंदगी से जुड़ गया इसका एहसास उस समय तो बिल्कुल नहीं था। ऐसा इसीलिए बोल रही हूं क्यूंकि जिन जिम्मेदारियों को छोटे-छोटे कंधों को बचपन में संभाला आगे चल कर उन्हीं की बदौलत समाज में एक बेहतर इंसान बन कर सामने आने का मौका मिला।
स्कूल से अलग कॉलेज हॉस्टल के अनुभव
वहीं स्कूल में हॉस्टल के अनुभव मेरे कॉलेज के दिनों से काफी जुदा थे। स्कूल में जहां अनुशाशन की उंगली थाम कर हम आगे बढे वही कॉलेज के दिनों में हॉस्टल ने आज़ादी के सही मायने समझाए। आत्मनिर्भरता तो सीख ली थी आत्माअवलोकन का सफर कॉलेज के हॉस्टल के दिनों से शुरू हुआ। कॉलेज के हॉस्टल में जब ज्यादातर पाबंदिया ख़त्म या न के बराबर हो गई। हमें सोने जागने के लिए नियत समय में बंधा नहीं रहना पड़ता था। स्कूल में जहां हमें हॉस्टल की अन्य गतिविधियों का ध्यान रखना था कॉलेज में आकर हमारा फोकस अपने आप पर ज्यादा होता गया।
अब हॉस्टल की बात हो और दोस्ती का जिक्र न हो ऐसा कैसे हो सकता है। हॉस्टल में रहकर भले ही हम अपने परिवार से दूर हो गए लेकिन वही दूसरी तरफ दोस्ती के रूप में एक नए परिवार को बनाने का मौका हमें मिला। मैंने सीखा कि कैसे अलग-अलग क्षेत्र, बोली और खान-पान होने के बावजूद भी हमारी दोस्तियां पनपी। अलग-अलग जगह की विविधता के बारें में जानने को मिला। इतना ही नहीं बचपन की कुछ दोस्तियां आज तक भी बनी हुई है।
भले ही आज सभी अपने काम को लेकर अलग-अलग शहरों में हैं, हम अब ज्यादा बातचीच नहीं कर पाते लेकिन हॉस्टल के दिनों में साथ बैठकर हसने और रोने वाले लोग हम आज भी साथ हैं। दोस्तों का परिवार बन जाना कोई मामूली बात नहीं हैं। असल में हॉस्टल हमें मानवीय संबंधों को तह तक लेजाने का काम करती हैं, जहां हम जानते हैं कि परिवार की डोरी सिर्फ खून के रिश्तों से नहीं बल्कि मन के रिश्तों से भी बाँधी जा सकती है।