समाजकैंपस मेरी कहानीः घर से पहली बार जब मैं दूर हॉस्टल में रहने आई

मेरी कहानीः घर से पहली बार जब मैं दूर हॉस्टल में रहने आई

माता-पिता ने मेरे दाखिले के लिए प्रक्रिया पूरी की और मेरे रहने के लिए कॉलेज कैंपस के हॉस्टल में ही सिंगल रूम चुना गया। मैं असमंजस से भरी थी , कभी अत्साहित तो कभी परिवार से दूर रहने का डर, पता नहीं कैसी जगह होगी, क्या होगा, रैंगिग हुई तो कैसे होगा।

हॉस्टल मेरे सपने और तजुर्बे को आगे बढ़ाने की ओर ले जाती वह दुनिया थी जो मेरी जिदंगी का एक बेहतरीन हिस्सा बना। जहां कई सीखों के साथ अपने आपको पहचानना, सपने देखना, दोस्त बनाना, अच्छे-बुरे पल बिताना, लोगों की पहचान, परखना, मिलना जुलना, आत्मनिर्भर बनना, अपनी जगह बनाना, मैनेजमेंट करना और जिंदगी को एक अलग अपने अंदाज में जीना सीखा। आज भी जब हॉस्टल की बात होती है या शब्द सुनाई देता है तो मुझे मेरा हॉस्टल और वहां बिताए चार साल आंखों के सामने आते दिखते हैं जैसे कोई रंगीन फिल्म आंखों के सामने चल रही हो। मेरा पहला अनुभव जब मैं घर से बाहर अंजान लोगों के बीच रहने के लिए निकली। 

हॉस्टल में मेरा आगमन

बात साल 2012 से शुरू होती है जब मैंने 12वीं विज्ञान और गणित विषय से पास की। मैंने बीटेक इलैक्ट्रिकल एंड इलैक्ट्रॉनिक्स में दाखिले के लिए अप्लाई किया था और काउंसलिंग के बाद मुझे जयपुर के एक कॉलेज में दाखिला मिला। माता-पिता ने मेरे दाखिले के लिए प्रक्रिया पूरी की और मेरे रहने के लिए कॉलेज कैंपस के हॉस्टल में ही सिंगल रूम चुना गया। मैं असमंजस से भरी थी , कभी अत्साहित तो कभी परिवार से दूर रहने का डर, पता नहीं कैसी जगह होगी, क्या होगा, रैंगिग हुई तो कैसे होगा। इतने साल कैसे निकालूंगी, कैसे लोग होंगे इन सब विचारों में पड़ जाती। वैसे तो मेरे गृहनगर अजमेर से जयपुर का सफर तीन घंटे का ही था पर घर से दूर तो था। आखिरकार वो दिन आ ही गया चार अगस्त 2012 जब मैं पहली बार मैं अपनी मम्मी के साथ हॉस्टल आई। 

कभी-कभी स्वयं में परिस्थिति के अनुरूप बदलाव करना ज़रूरत भी होती है लेकिन एक स्टेट्स और लुक बनाए रखने की होड़ में होती जद्दोजहद मानसिक रूप से खुद को कम आंकने पर दबाव भी डालती है। छोटे शहरों और मध्यम वर्ग से आने वाली लड़कियों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता दिखाई देता है।

मेरा पहला दिन और दोस्ती होना

एक बडा बैग हाथ में तो दूसरा पीछे टंगा हुआ जिसमें मेरे कपडे और ज़रूरत का समान था। थोड़ी सहमी थोड़ी खुशी के साथ हॉस्टल आई जो कैंपस में कॉलेज भवन के पीछे छह मंजिला इमारत थी। जैसे ही मैंने हॉस्टल में अंदर कदम रखा तो एंटी रैंगिंग/रैंगिंग निषेध का पोस्टर दिखा और मुझे राहत मिली। फिर हॉल में वार्डन और एक सीनीयर से मुलाकात हुई उन्होंने मेरा परिचय लिया और बड़े ही प्यार से मुझसे बात की फिर मुझे मेरा कमरा दिखाया गया। फिर मैंने और मेरी माँ ने कमरे में सामान जमाया उसके बाद वह मुझे छोड़कर वापिस गई। उनके वहां से जाने से मैं रूआंसा और उदास हो गई फिर जैसे-तैसे खुद से बात करके खुद को संभाला।

इतने में ही मेरे कमरे के दरवाजे पर खटखटाने की आवाज सुनाई दी जैसे ही दरवाजा खोला तो मुस्कुराती हुई एक लड़की दिखी। उन्नति, वहां मेरी पहली दोस्त बनी, वो सुबह ही हॉस्टल आ गई थी और दूसरे कमरे में रह रही थी। वह कम्प्यूटर सांइस ब्रांच से थी और सीकर की रहने वाली थी। हमने एक दूसरे के बारे में बातचीत की। इतने में शाम के चार बजे और चाय का समय हुआ। हम चाय पी ही रहे थे कि एक और लड़की से मिले जिसके मम्मी-पापा अभी उसे छोड़कर ही गए थे। उससे बात की वो इलैक्ट्रॉनिक्स ब्रांच से थी और हनुमानगढ़ से थी। हम तीनों में दोस्ती हुई और खूब बातें हुई फिर क्या तीनों ने मिलकर शाम तक पूरा हॉस्टल, मैस, गार्डन, कैंपस देखा खाना खाया और शााम को मम्मी से फोन पर बात करते समय मैंने खुशी से बताया कि मेरी दो सहेली बन गई इस पर वे भी चिंतामुक्त हुईं।  

हॉस्टल की दिनचर्या सुबह अलार्म से शुरू होकर देर रात तक जागना, कॉलेज जाना आना, असाइनमेंट्स, मिडटर्म, एग्जाम, आराम, पढाई, रूचिकर गतिविधि करना, खाना, मनोरंजन, खेल, एक दूसरे से बातचीत, घर-परिवार से बातचीत, घूमने जाना, नई चीजें और अनुभव एक्सप्लोर करना, समूह में बैठकर फिल्म देखना तो किसी एक टॉपिक पर घंटों तक चर्चा करने में बीतता।

अरे सुना!! एक और नई लड़की आई है।

जब भी कोई नई लड़की आती तो उत्साहित होकर उससे मिलने जाते कौन है, कहां से है, कैसी है, उससे बातें करना, उसके कपडों, बोलचाल, पहनावा, रहन सहन से जानते कि वो किस परिवेश से आई है। अलग-अलग जगह से लड़कियां थी बिहार, यूपी, राजस्थान, दिल्ली, बिहार से लडकियां काफी संख्या में थी, हर जाति, वर्ग, धर्म से लड़कियां थीं।

सीनियर्स के साथ पहली मीटिंग और अलग-थलग समूह

हॉस्टल में सभी लड़कियों के आने के बाद जब सीनियर्स के साथ मीटिंग हुई जिसमें सभी ने अपने बारे मे बताया तब मैंने भी अपने बारे में बताया। मैं उनके साथ हंसमुख थी क्योंकि उन्हीं में से एक मेरे ही फ्लोर पर रहती थी। जब मैंने बताया कि मैं डांस करती हूं तो उन्होंने मुझसे मेरे पसंदीदा गाने पर डांस करने को कहा और मैंने किया और सबको पसंद भी आया। फिर सबकी बारी आई और सभी ने अपनी पसंद/रूचि के बारे में बताया। जब यह सब चल रहा था तो मैं यह देख पा रही थी कि जो लड़कियां इन सब रूचि में नहीं थी वे अपने आप को अलग-थलग महसूस कर रही थी और सीनियर्स की नज़र भी पहले समूह पर ही थी उन पर नहीं।

कैसे स्टेट्स बनाना और लुक मेंटेंन करना बनता जद्दोजहद

कभी-कभी स्वयं में परिस्थिति के अनुरूप बदलाव करना ज़रूरत भी होती है लेकिन एक स्टेट्स और लुक बनाए रखने की होड़ में होती जद्दोजहद मानसिक रूप से खुद को कम आंकने पर दबाव भी डालती है। छोटे शहरों और मध्यम वर्ग से आने वाली लड़कियों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता दिखाई देता है। जहां पहनावा, दिखने, रहन-सहन, बोलचाल, अंग्रेजी भाषा इस्तेमाल आदि को लेकर शुरुआत और अंत तक लड़कियों में कई बदलाव दिखाई देते हैं। सभी लड़कियां आपस में मिल जुलकर रहती है किसी की बोलचाल में यह नहीं दिखता लेकिन जब बात अलग-अलग समूह बनने की आती तो स्टाइल, मॉडलिंग, डांस तब चुनाव का स्तर इन्हीं सभी विचारधारा पर आधारित होता है। इन सब में जो फिट नहीं बैठ पाते वे अपने आप को अलग-थलग महसूस करते हैं। वे अपने ही समूह में रहते और इस तरह अपनी-अपनी पसंद के हिसाब से समूह बनें। 

हर फ्लोर पर कई कहानी

शनिवार-रविवार को जब कॉलेज की छुट्टी होती थी तब कमरे में बैठने के बजाय मैं कानों में ईयरफोन लगाकर हर फ्लोर पर टहलती। किसी ना किसी के कमरे के दरवाजे खुले ही रहते और वे समूह में चर्चा करते रहते तो मैं भी उनकी चर्चा में शामिल हो जाती थी। कहीं परिवार की बातें होती तो कोई अपने बारे में, कोई किसी और के बारे में बात करती तो कोई कॉलेज में क्या चल रहा है इस तरह की बातें इन समूहों में होती थी।

इन्हीं सब में वहां की साफ-सफाई करने वाली तीन महिलाएं अपना काम करके रोज मेरे फ्लोर की बालकनी के पास हवा में बैठकर तैयार होती। उनमें से एक को सजना बहुत पसंद था वह थी सरोज। वें तीनों आपस में मारवाड़ी में बातें करती थी। चूकिं मैं राजस्थान से आती हूं तो मुझे उनकी बातें समझ आती थी। सरोज आंटी से मेरी बहुत बातचीत होती थी। मेरी सागर चोटी बनाना और मेरा उनके गुटका खाने पर उनको टोकना। वो लड़कियों और उनके रहन-सहन पहनावे को देखती। वह बहुत सालों से काम कर रही थी तो कई लड़कियां और उनके जीवन शैली को देखकर सोचती कि वो भी ऐसे होती तो कैसा लगता और आपस में बातें करती। मेरे उनसे चोटी बनवाने में कई लड़कियां बडे़ अजीब ढंग से उन्हें देखती थी कि मैं क्यों उनसे अपने बाल बनवाती हूं। वहीं उनके मन में ख्याल आता था और वो मुझसे पूछती थी लेकिन मुझे इससे कोई फर्क नहीं पडता था।

तस्वीर साभारः The Wire

वहीं अगर लड़कों की बात की जाए तो उनका हॉस्टल भी कॉलेज कैंपस में ही था। लेकिन दोनों हॉस्टल के बीच कॉलेज की जालियां थी और कॉलेज के बाद उस तरफ आना-जाना नहीं था। लड़कों के हॉस्टल में सभी मिल कर रहते थे। हां, रैगिंग के नाम के स्वरूप को बदलकर उनके साथ कुछ अलग ही रूप में चीजे चलती थी जैसे जन्मदिन पर बुरी तरह मारना, एक-दूसरे की टांग खींचना, उनके मस्ती के अलग ही ढंग होते जिसमें गाने बजाना, मूवी देखना, वाई-फाई क्रैक कर इंटरनेट इस्तेमाल कर मूवी डाउनलोड करना और पार्टी करना। वहां भी जगह के हिसाब से लड़कों के समूह बने हुए थे और एक दूसरे को परेशान करना जैसे उनकी आदत में हो गया था लेकिन मुसीबत या काम में सब एक साथ हो जाते थे। मूवी डाउनलोड और उसे शेयर करना ये उस समय का दौर था क्योकि 2012 से 2016 का हॉस्टल का वो समय जो आज से पूरी तरह अलग सोशल मीडिया से परे था। जब सिर्फ फेसबुक और वॉट्सएप दोस्त बनाने और चैट करने के काम आता था और लगभग सभी लोग आपस में एक-दूसरे से फेसबुक से जुड़े थे और दोस्ती करते। आज के दौर की तरह फोटो या पोस्ट अपलोड करने का क्रेज उस वक्त नहीं था और आपस में एक-दूसरे को बेहतर जानते थे।

कभी क्रांति तो कभी शांति

विचारों के मतभद और अलग-अलग सोच के साथ कभी-कभी अनबन होना, वार्डन और सीनियर के साथ स्वाभाविक रहता था। लेकिन बात तब और बढ़ती थी जब कोई लड़की किसी राजनीति का हिस्सा ना होकर अपनी बात और पक्ष रखती। कभी मैस के खाने को लेकर तो कभी सीनियर के दबाव में ना रहने पर, कभी सुविधाएं पूरी ना मिलने पर। एक के साथ समूह बनकर क्रांति होती तो कभी मसले को हल करने के लिए शांति से काम लिया जाता था।

शनिवार-रविवार को जब कॉलेज की छुट्टी होती थी तब कमरे में बैठने के बजाय मैं कानों में ईयरफोन लगाकर हर फ्लोर पर टहलती। किसी ना किसी के कमरे के दरवाजे खुले ही रहते और वे समूह में चर्चा करते रहते तो मैं भी उनकी चर्चा में शामिल हो जाती थी।

समावेशी माहौल में हरेक पर्व मनाने का उल्लास

हॉस्टल में पढ़ाई करते हुए हर त्योहार पर घर जाना संभव नहीं होता था। लेकिन वहां हम सब छात्र मिलकर अलग-अलग धर्मों के त्योहारों को मिलकर मनाते थे। ऐसे में मुझे अलग-अलग विभिन्नताओं में भी एकता का समावेशी माहौल हॉस्टल में दिखाई देता था। जहां होली, दीपावली, ईद, क्रिसमस, जनमाष्टमी, सभी का जन्मदिन, वैलेंटाइन डे सभी मिलजुल कर ना सिर्फ मनाते थे बल्कि उनके बारे में जानकारी भी साझा करते थे। ये पल बहुत ही सकारात्मक उर्जा वाले होते थे।

आपसी कनेक्शन और सेफ स्पेस

हॉस्टल की दिनचर्या सुबह अलार्म से शुरू होकर देर रात तक जागना, कॉलेज जाना आना, असाइनमेंट्स, मिडटर्म, एग्जाम, आराम, पढाई, रूचिकर गतिविधि करना, खाना, मनोरंजन, खेल, एक दूसरे से बातचीत, घर-परिवार से बातचीत, घूमने जाना, नई चीजें और अनुभव एक्सप्लोर करना, समूह में बैठकर फिल्म देखना तो किसी एक टॉपिक पर घंटों तक चर्चा करने में बीतता। हम सब एक- दूसरे की पढ़ाई में मदद करते, कभी अपने कमरे में चुपके से मैगी बनाना, तो एक-दूसरे के लिए पार्लर का काम करना, गुस्सा होने पर मनाना तो उदासी में हंसाना, सही-गलत से परे एक-दूसरे को समझना, विचार अलग होने के बाद भी बातों को महत्व देना,  किसी दिक्कत में फंस जाने पर जज करने के बजाय हल निकालना तो दोस्त के नाते राय देना, बीमार पड़ जाने पर एक-दूसरे को संभालना, कभी बेस्ट फ्रेंड्स तो कभी बहनें बन कर रहना, प्यार के किस्से और कहानियां सुनाना, सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफार्म से दूर आपसी कनेक्शन बनाने की दुनिया जहां सेफ स्पेस में खुलकर अपने विचार बातें साझा करते और एक-दूसरे को सपोर्ट करते। हॉस्टल जो सीख के साथ जिन्दगी का अहम हिस्सा बना जहां चार साल कैसे गुजर गए पता भी नहीं चला। जहां आते हुए जितनी खुशी और उत्साह था तो वहीं हॉस्टल छोड़ते वक्त दोस्तों और हॉस्टल से दूर होने से मन उदास लेकिन मैं अपने साथ कभी ना भूलने वाले अनुभव और यादों का पिटारा लेकर आगे बढ़ रही थी।


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