साहित्य लेखन की दो विधाएं होती है, पद्य और गद्य। पद्य विधा के अंतर्गत कविता, गीत, गाना मुक्तक लिखे जाते हैं। वहीं गद्य विधा के अंतर्गत उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक, संस्मरण, जीवनी, व्यंग्य आदि लिखे जाते हैं। गद्य साहित्य का विकास आधुनिक काल से शुरू हुआ। आधुनिक काल से पहले केवल दोहे, कविता, मुक्तक आदि ही लिखे जा रहे थे। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आत्मकथा भी एक महत्वपूर्ण विधा है। यह साहित्य की रोचक और सजीव विधा है।
आत्मकथा शब्द की उत्पत्ति
आत्मकथा शब्द अंग्रेजी के ऑटोबायोग्राफी का हिंदी रूपांतरण है। आत्मकथा शब्द दो शब्दों के योग से बना है। आत्म+कथा। आत्म का अर्थ होता है अपना, स्वंय, निजी। कथा का अर्थ होता है- कहानी, किस्सा, वार्ता। यानी आत्मकथा का सरल अर्थ हुआ- व्यक्तिगत जीवन में आपने जो कुछ भोगा है, उसको पूरी ईमानदारी के साथ लिखना। विभिन्न शब्दकोशों के अनुसार आत्मकथा की परिभाषा हिंदी साहित्य कोश भाग-1 के अनुसार, “आत्मकथा लेखक के अपने जीवन से सम्बद्ध वर्णन है। आत्मकथा के द्वारा अपने बीते हुए जीवन का सिंहावलोकन और एक-एक व्यापक पृष्ठभूमि में अपने जीवन का महत्व दिखलाया जाना संभव है।” वृहद हिंदी कोश के अनुसार ‘आत्मकथा’, ‘आत्मन् और कथा का सामासिक रूप है, जिसका अर्थ है, अपना, निज का, आत्मा का मन का और कथा का अर्थ है ‘अपनी जीवन कहानी इस प्रकार ‘आत्मकथा’ का अर्थ हुआ अपने जीवन की कहानी।’
आत्मकथा का विकास
आधुनिक हिंदी गद्य का उदय भारतेंदु हरिश्चंद्र से हुआ। साहित्य की गद्य विधा का विकास आधुनिक काल में ही हुआ। आत्मकथा लेखन की परंपरा भी आधुनिक काल में ही विकसित हुई। साहित्य की अनेक विधाओं की तरह ही आत्मकथा भी साहित्य की लोकप्रिय विधाओं के रूप में चर्चित रही। आत्मकथा लेखन विधा में पुरुष लेखकों के साथ महिला लेखिकाओं ने भी अभूतपूर्व योगदान दिया है। लेकिन महिलाओं को आत्मकथा विधा के क्षेत्र में अपनी उपस्थित दर्ज करवाने में काफी वक्त लगा। वहीं साहित्य में महिला आत्मकथाकारों की संख्या इतनी कम है कि आप उंगलियों पर गिन सकते हैं। हिंदी का आत्मकथा साहित्य लगभग 200 साल पुराना माना जाता है। साल 1941 में बनारसी दास जैन ने ‘अर्दधकथा’ नाम से पहली आत्मकथा लिखी। ब्रजभाषा और पद्य शैली में लिखी यह हिंदी की सबसे पहली आत्मकथा मानी जाती है।
महिला लेखिकाओं की लिखी गई आत्मकथा
आत्मकथा के संदर्भ में डॉ सुमन राजे ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास में लिखा है, “आत्मकथा और समीक्षा का क्षेत्र भी लगभग सुना ही पड़ा है। महिलाओं की आत्मकथाओं का हिंदी में अभाव अब तो एक मुद्दा बन गया है।” हिंदी में स्त्रियों के आत्मकथ्य और आत्मकथाएं शुरू में बहुत कम थी। हिंदीत्तर भाषाओं पंजाबी गाली, मराठी और मलयाली के उदाहरणों से काम चलाना पड़ता था। इस लेख में हम हिंदी साहित्य की शुरुआती महिला आत्मकथाकार के बारे में चर्चा करेंगें।
दुखिनी बाला
‘सरला: एक विधवा की आत्मजीवनी’ शीर्षक से हिंदी में किसी महिला द्वारा आत्मकथा लिखने का पहला प्रयास माना जाता है। इस आत्मकथा की लेखिका दुखिनी बाला है। लेकिन दुखनिबाला कौन है, यह मालूम नहीं चल पाया है। स्त्री दर्पण पत्रिका में जुलाई सन 1915 से मार्च, 1916 तक के अंकों में ‘आत्म जीवनी का धारावाहिक रूप से प्रकाशन भी हुआ था। सरलाः एक विधवा की आत्म जीवनी (1915) की लेखिका दुखिनी बाला के संदर्भ में शोधकर्ता प्रज्ञा पाठक का कथन है कि लेखिका का कोई परिचय ज्ञात नहीं है।
उनके लिखे हुए के माध्यम से यदि जानने की कोशिश की जाए तो भाषा, परिवेश और रीति-रिवाजों इत्यादि से यह अवश्य माना जा सकता है कि लेखिका हिंदी क्षेत्र के पूर्वी हिस्से (पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार) की रहने वाली रही होंगी। यह भी कि लेखिका ने यह आत्मकथा संभवतः छद्म नाम से लिखी होगी। प्रज्ञा पाठक ने इस आत्म जीवनी का संग्रह को पुस्तक की शक्ल में 2008 में प्रकाशित किया। प्रज्ञा पाठक के अनुसार, “हिंदी में स्त्रियों की आत्म जीवनी न केवल आत्मकथा होने के नाते महत्वपूर्ण है बल्कि हिंदी क्षेत्र में हुए स्त्री-आंदोलन का एक प्रामाणिक दस्तावेज भी है।”
जानकी देवी बजाज
‘मेरी जीवनी यात्रा’ जानकी देवी बजाज की आत्मकथा है। जानकी देवी पढ़ी लिखी नहीं थी, इसलिए वह अपनी जीवन के प्रसंग लोगों को सुनाती रही थी। श्री रिषभदासजी रांका ने इनकी कथा को लिपिबद्ध करने का काम किया। जानकी देवी सुनाती जाती थी, वह लिखते जाते थे। रिषभदासजी ने लिपितारंण करते वक्त इस बात का ध्यान रखा कि जहां तक हो भाषा, भाव तथा शब्दावली भी यथासंभव जानकी देवी जी की ही रहे।
जानकी देवी बजाज ने अपनी आत्मकथा में अपने बचपन से लेकर अपने पति जमनालाल जी के देहावसान तक की घटनाओं का वर्णन किया है। इस आत्मकथा के सम्बन्ध में आचार्य विनोबा भावे ने प्रस्तावना में लिखा है कि जानकी देवी को जो भी विद्या मिली है, अनुभव से मिली है। इसमें पढ़ाई-लिखाई का ज्यादा अंश नहीं है इसलिए उनकी यह कहानी बहुत ही सरल भाषा में कही गयी है। यह लिखी नहीं गई है। जबानी कही गई है इसलिए यह ‘कहानी’ है। यह वह समय नहीं पुरुष वर्ग भी इस विधा में लेखन करने से दूर ही रहे वहां जानकी देवी बजाज ने इस विधा में जबानी ही क्यों न हो पहल कर यह सराहनीय कार्य किया।
डॉ प्रतिभा अग्रवाल
प्रतिभा अग्रवाल का जन्म 10 अगस्त 1930 को बनारस के भारतेंदु भवन में हुआ था। प्रतिभा जी ने बहुत ही कम उम्र में अपनी माँ को खो दिया था। पांचवी कक्षा में पढ़ने के दौरान मां यक्ष्मा बीमारी की चपेट में आने की वजह से बिस्तर पर पड़ गई। माँ की देखभाल की जिम्मेदारी उन्होंने उठाई। जब वह दसर वर्ष की हुई तो उनकी माँ की मुत्यु हो गई। माँ के देहांत के बाद उनका पालन-पोषण उनकी दादी ने किया। वह पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज थी। मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। इतना ही नहीं पढ़ाई के साथ-साथ रंगमंच के साथ भी जुड़ी रही। नाटक में भी उनकी ख़ास दिलचस्पी थी।
प्रतिभा अग्रवाल ने अपनी आत्मकथा को दो खंडों में लिखा। आत्मकथा का प्रथम खंड ‘दस्तक जिंदगी की’ साल 1990 में प्रकाशित हुआ। उसके करीब छह साल बाद आत्मकथा का दूसरा खंड ‘मोड़ जिंदगी का’ साल 1996 में प्रकाशित हुआ। प्रथम खंड में लेखिका ने अपने बचपन से विवाह तक के जीवन तक के संघर्षों को लिखा। क्योंकि उनका बचपन बहुत ही कष्टदायी था। दूसरे खंड में लेखिका ने शादी के बाद पति के साथ कोलकता आने का वर्णन किया है। आत्मकथा में लेखिका ने अपने जीवन के हर छोटी-छोटी पर महत्वपूर्ण बातों का जिक्र किया है।
कुसुम अंसल
कुसुम अंसल का बचपन भी प्रतिभा अग्रवाल की तरह ही संघर्ष से भरा हुआ था। जब कुसुम अंसल मात्र दस महीने की थी तब उनकी माँ का निधन हो गया था। पिता ने दूसरी शादी कर ली। बाद में उनकी बुआ ने उन्हें गोद ले लिया लेकिन कुछ सालों बाद पिता ने उन्हें वापस घर बुला लिया। उन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से अपनी पढ़ाई पूरी की। साल 1995 में मनोविज्ञान में उन्होंने परास्नातक किया। कुसुम का साहित्यिक योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक और यात्रा वृतांत सब मिलाककर उनकी दो दर्जन से अधिक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। नाटक और अभिनय में उनकी शुरू से रूचि रही है। कुसुम अंचल ने ‘जो कहा नहीं गया’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। इसका प्रकाशन साल 1996 में हुआ था। अपनी आत्मकथा के आमुख में वह लिखती है, “यह लेखन मेरी वह यात्रा है जिसमें प्रवाहित होकर मैं लेखिका बनी थी, मेरी उन अनुभवों का कच्चा-चिट्ठा जिनको अपने प्रति सचेत होकर मैंने रचनात्मक क्षणों में जिया था।”
कृष्णा अग्निहोत्री
कृष्णा अग्निहोत्री ने अपनी आत्मकथा ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ शीर्षक से लिखी। इसका प्रकाशन 1997 में हुआ था। जैसे कि शीर्षक से पता चलता है कि उन्होंने दिल न लगने की बात की है। दरअसल उनके जन्म लेते ही उनके माता-पिता बेहद निराश हुए। वह हमेशा माता-पिता के प्रेम से वंचित रही। घर का माहौल पितृसत्ता से घिरा हुआ था। घर में लड़कियों के लिए विशेष नियम कायदे थे। कृष्णा अग्निहोत्री अपनी आत्मकथा की शुरुआत में लिखती है कि मैं कृष्णा अग्निहोत्री वल्द रामचन्द्र तिवारी गीता की कसम खाकर कहती हूं कि जो कहूंगी सच कहूंगी। अपनी आत्मकथा को निष्पक्ष तरीके से पेश करने के संदर्भ में कहती है कि मेरा बयान नंगा रहे, एकदम प्राकृतिक और साफ। अहसासों के परतें कुछ इस तरह उघड़ती जाए कि उनकी बारीक रेखाएं भी पढ़त से बाहर न रहें। जीवन-भर लू-लपटों के थपड़ो झेलने के बावजूद आत्मा निश्चित ही इस सबसे प्रभावित नहीं होती, मैं मुक्त मन से उसके सामने अपनी बातों को विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत कर सकती हूं।
पद्मा सचदेव
पद्मा सचदेव मूलत डोगरी भाषा की कवयित्री थी। लेकिन वह हिंदी में भी लिखा करती थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा हिंदी में ही लिखी है। इनकी आत्मकथा का शीर्षक है- ‘बूंद बावंडी’। अपने आत्मकथा के संबंध में वह लिखती है, “विश्वास कीजिए मुझे जीने की अधिक प्रेरणा अपने शत्रुओं से ही मिली है। इनमें आपबीती भी है और जगबीती भी। दुनिया की कहानी ही मेरी भी कहानी है। दुनिया जो सुन्दर है, शाश्वत है, पूर्ण है, रोज बदलती है, हर दिन नई है, अपनी ओर खींचती है।”