इंटरसेक्शनलजेंडर हाउस वाइफ पर बनाई गई फिल्म ‘सुखी’ क्या वाकई गृहणियों से जुड़ पाती है?

हाउस वाइफ पर बनाई गई फिल्म ‘सुखी’ क्या वाकई गृहणियों से जुड़ पाती है?

भारत की मध्यवर्गीय महिला की सहेलियां किसी कंपनी में सीईओ नहीं हैं, किसी राजपुताने रजवाड़े की बहु नहीं हैं। यहां की आम गृहणी की सहेली उस 'सुखी' के जैसी ही हैं। घर में वे रूखे, ख़राब व्यवहार पर पतियों से लड़ती भी हैं। लेकिन सुखी नहीं लड़ती है, वो बस चुप हो जाती है।

शिल्पा शेट्टी की अभिनीत फिल्म सुखी सितंबर 2023 में सिनेमाघरों में आई थी। निर्देशक सोनल जोशी की निर्देशन की ये पहली फिल्म है। दो घंटे उन्नीस मिनट की यह फिल्म फिलहाल नेटफ्लिक्स पर देखी जा सकती है। फिल्म के पहले ही सीन में सुखी (शिल्पा शेट्टी) फोन पर अपने कॉलेज (1997) के दिनों की एक वीडियो देखते हुए खुश हो रही होती है कि वैसे ही उसके पति गुरु (चैतन्य चौधरी) की आवाज़ आती है। फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, फिल्म लगभग श्रीदेवी की अभिनीत इंग्लिश-विंग्लिश की याद दिलाती है और वही महसूस कराती है। शुरुआती पटकथा कुछ ऐसी ही है। कुछ वाक्यों में लिखा जाए तो कहानी है आनंदकोट पंजाब में रहने वाली 38 वर्षीय गृहणी सुखप्रीत कालरा/सुखी की। सुखी बीस बरस पहले भागकर प्रेम विवाह की थी, जिस वजह से उसके मां-बाप उससे रिश्ता तोड़ देते हैं। पति घर की जरूरतों को पूरा करने में जुटा रहता है और एकदम बेरुखा हो चुका है। सुखी की एक बेटी भी है जस्सी (माही जैन) जो उसे बिल्कुल भाव नहीं देती है। ऐसी परिस्थिति में सुखी अपने कॉलेज के दिनों को याद करती है और अपनी तीन सहेलियों से वो व्हाट्सएप के माध्यम से जुड़ी हुई है।

इसी बीच कॉलेज में रियूनियन रखा जाता है, जहां सुखी अपने घर से जैसे-तैसे निकलकर दिल्ली पहुंचती है। वह चाहती है कि वह कुछ दिन आराम में, मस्ती में गुज़ार सके। इसी पूरी कहानी में जहां-तहां एक-दो भावनात्मक सीन रखे हुए हैं और कुछ रोमांटिक सीन भी। हालांकि शिल्पा शेट्टी का अभिनय ख़ास जोड़कर नहीं रखता है। बहुत ऊपरी अभिनय किया गया है। सुखी की दोस्त, मेहर छिब्बर की भूमिका निभाती कुशा कपिला भी अपने अभिनय से खास खुश नहीं कर पाई हैं। अभिनय के लेंस से विक्रम वर्मा का किरदार निभाते अमित साध ने अच्छा काम किया है। लेकिन खास बात यह है कि फिल्म सुखी के केंद्र में एक गृहणी का जीवन है, जो अपने जीवन के चालीसवें दशक में है। साथ ही, वह अस्तित्वगत संकट यानी एक्सिस्टेंशियल क्राइसिस से जूझ रही है। गृहस्थी में उसकी बेटी जस्सी सिर्फ यह चाहती है कि सुखी एक बेहतरीन मां बनी रहे जैसे हमारे आस-पास सब चाहते हैं कि महिला सिर्फ एक मां ही बनी रहे।

भारत की मध्यवर्गीय महिला की सहेलियां किसी कंपनी में सीईओ नहीं हैं, किसी राजपुताने रजवाड़े की बहु नहीं हैं। यहां की आम गृहणी की सहेली उस ‘सुखी’ के जैसी ही हैं। घर में वे रूखे, ख़राब व्यवहार पर पतियों से लड़ती भी हैं। लेकिन सुखी नहीं लड़ती है, वो बस चुप हो जाती है।

मां बनने के बाद स्त्री का सिमटता जीवन

जब वह मां बन जाती है, तो उसकी बतौर पत्नी भी हैसियत कम हो जाती है, जिसमें पति की भावनात्मक उपलब्धता नहीं होती और यौनिक संबंध भी एकदम से कम हो जाते हैं। सुखी का पति गुरु भी उसके लिए और बेटी के लिए भावनात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। वह चिल्लाता है, चीखता है, जो दरअसल उसके पितृसत्तात्मक होने की भरपूर निशानी है। यहां सुखी का प्रेम भी काम नहीं आता। इसे देखते हुए सुखी महसूस करती है कि यह वो इंसान नहीं है जिससे वह प्रेम करती थी। अपने वर्तमान में वह ऐसा कुछ भी महसूस नहीं करती, जैसा अपने अतीत में थी और भविष्य में चाहती थी। इस जगह प्रेम विवाह की भी थोड़ी सी गिरह खोली गई है। शादी के बाद महिला और पुरुष दोनों के लिए जीवन बदलता है। लेकिन बावजूद इसके गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारी सिर्फ महिला के सर डाल दी जाती है और उससे यह भी उम्मीद की जाती है कि वो कुछ भी ख्वाहिश ना करे। पुरुष सुबह काम पर जाता है, शाम को थका-हारा आता है, तो महिला को सुनने, दुलारने या समझने का समय ही नहीं है। महिला के प्रति भावनात्मक जिम्मेदारियों से भागने में पुरुषों का काम का बहाना लंबे वक्त से चला ही आ रहा है।

गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारी सिर्फ महिला के सर डाल दी जाती है और उससे यह भी उम्मीद की जाती है कि वो कुछ भी ख्वाहिश ना करे। पुरुष सुबह काम पर जाता है, शाम को थका-हारा आता है, तो महिला को सुनने, दुलारने या समझने का समय ही नहीं है। महिला के प्रति भावनात्मक जिम्मेदारियों से भागने में पुरुषों का काम का बहाना लंबे वक्त से चला ही आ रहा है।

शादी की जिम्मेदारी का बोझ ढोती महिलाएं

समाज में वे गुरु के जैसे ही सुखी से सवाल करते हैं कि तुम पूरे दिन करती ही क्या हो, आराम ही आराम करती हो। सुखी जब अपनी सहेलियों के पास दिल्ली चली जाती है, और गुरु को बेटी, और घर एक सप्ताह संभालने पड़ता है, तब उसे थोड़ा यकीन आता है कि सुखी क्या करती है। चाहे फिल्म के किरदार सुखी की बात हो या आम समाज, अंत में प्रेम विवाह भी एक समय बाद अरेंज विवाह के जैसे काम करने लगता है। इसका मुख्य कारण यह रहता है कि पुरुषों के अंदर की सोच कहीं नहीं जाती जिसे समाज ने बहुत धीरे-धीरे पुख्ता किया है।

तस्वीर साभारः Film Companion

कहानी में सुखी की तीन सहेलियों (मानसी (दिलनाज ईरानी), मेहर (कुशा कपिला), पावलीन (तन्वी गायकवाड) ) की जिंदगी की थोड़ी-थोड़ी झलक है। इनमें कोई शादी में बच्चा ना होने से परेशान है तो कोई शादी न होने से। अपनी कॉलेज की सहेलियों से सुखी बीस साल बाद मिलती है। ऐसा इसलिए क्योंकि जिस दिल्ली में उसके माता-पिता रहते हैं, वो उसे संबंध तोड़ चुके होते हैं। इसका फायदा गुरु भी खूब उठाता है। सुखी को लेकर वह जस्सी से कहता रहता है कि उसकी मां के पास कहीं और जाने का ठिकाना नहीं है। इसीलिए लौटकर घर ही आएगी।

खुद के लिए जीने की महिलाओं की चुनौतियां

खुद को भूल चुकी सुखी जब दिल्ली आती है तो जी उठती है। अपनी पसंद की ड्रेस पहनती है, खाना खाती है, पुराने लोगों से मिलती है। इस बीच जब उसे अपनी बेटी का ‘आई हेट यू’ का टेक्स्ट आता है, तो वापस जाने के लिए सहेलियों से लड़ती है। बच्चे मां को नफरत करें, यह एक मां के लिए शर्मिंदगी की बात है। यही सिखाते हैं लोग। लेकिन जस्सी जैसे बच्चों को कैसा व्यवहार करना चाहिए यह नहीं सिखाते हैं। इस जगह भारतीय पेरेंटिंग और समाज दोनों ही जिम्मेदार हैं। अपनी दोस्तों में सुखी अपने अतीत की सुखी के पास जाती है। खुद के लिए जीती है। लेकिन बावजूद इसके सुखी एक फिल्म के पटकथा के तौर पर बहुत प्रभावित नहीं कर पाती है। इसमें वास्तविकता की कमी महसूस होती है। दर्शक इससे जुड़ा हुआ कम ही महसूस करेंगे।खासकर जिस वर्ग को ध्यान में रख कर इसकी कहानी लिखी गई है, वो इससे शायद ही रिलेट कर पाएं।

सुखी की खुद को खोजने की यात्रा सहेलियों से सात दिन में मिलकर पूरी हो जाती है। लेकिन क्या एक आम गृहणी की खुद को खोजने की यात्रा सच में इतनी जल्दी खत्म हो जाती है?

भारत की मध्यवर्गीय महिला की सहेलियां किसी कंपनी में सीईओ नहीं हैं, किसी राजपुताने रजवाड़े की बहु नहीं हैं। यहां की आम गृहणी की सहेली उस ‘सुखी’ के जैसी ही हैं। घर में वे रूखे, ख़राब व्यवहार पर पतियों से लड़ती भी हैं। लेकिन सुखी नहीं लड़ती है, वो बस चुप हो जाती है। सुखी के जीवन के विभिन्न पहलुओं को और उभारा जाता, तो यह थोड़ी और पुख्ता कहानी हो सकती थी। सब कुछ सहने के बाद भी सुखी वापस गुरु और जस्सी के पास लौट आती है, जो दरअसल इस तथ्य का सच है कि गृहणियां लौटकर उसी घर में आती है जहां शोषण हो रहा हो। उनके खुद के मां-बाप उनके साथ खड़े नहीं होते। लेकिन आखिर में सुखी के मां-बाप उसके साथ जब होते हैं, तब भी वो लौटती है। इस बात के पुख्ता हुए बिना कि उसकी बेटी, और पति फिर से उसे परेशान नहीं करेंगे।

एक तथाकथित हैप्पी एंडिंग वाली यह फिल्म अगर जस्सी को घर में लौटते भी दिखाती, लेकिन अपने लिए कुछ काम करते हुए, अपना पैशन शुरू करते हुए दिखाती तो यह एक संदेश के रूप में जा सकता था। फिल्म की कहानी पर और काम हो सकता था। अभिनय भी दर्शकों को ख़ास जोड़कर नहीं रखता है। सोनल जोशी अपनी पहली फिल्म गृहणी महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाया जरूर है, लेकिन उससे पहले ज़रूरी था कि वह सुखी जैसे सामाजिक परिदृश्य से आने वाली महिलाओं का जीवन को असल में देखती या समझतीं। फिल्म को देखने से पता चलता है कि उसमें वास्तविकता दिखाने की कोशिश की गई है। लेकिन उसके साथ पटकथा लेखकों को न्याय करना चाहिए था ताकि महिलाएं खुद को बेहतर कनेक्ट कर सकें। सुखी की खुद को खोजने की यात्रा सहेलियों से सात दिन में मिलकर पूरी हो जाती है। लेकिन क्या एक आम गृहणी की खुद को खोजने की यात्रा सच में इतनी जल्दी खत्म हो जाती है? उम्मीद है सोनल जोशी आगे अगर महिला केंद्रित फिल्में लाती हैं, तो थोड़ा और उसकी वास्तविकता पर काम करेंगी।

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