समाजकैंपस भारतीय शैक्षिक संस्थानों को नारीवादी बनाने की जरूरत और कहां हो रही है चूक

भारतीय शैक्षिक संस्थानों को नारीवादी बनाने की जरूरत और कहां हो रही है चूक

नारीवादी कक्षा बनाने की दिशा में पहला कदम है एक लोकतांत्रिक कक्षा बनाना जहां सभी विद्यार्थियों को समान माना जाए। जहां उनके विविध सीखने की जरूरतों और प्राथमिकताओं को स्वीकार किया जाए और उस आधार पर काम किया जाए। ऐसी कक्षा में, छात्रों का मूल्यांकन केवल ग्रेड पर आधारित नहीं होगी, बल्कि विद्यार्थियों को हीन दिखाए बिना उनके विभिन्न गुणों पर काम किया जाना आवश्यक है।

बात जब भी शिक्षा, नारीवाद, नारीवादी शिक्षा या शैक्षिक संस्थानों को नारीवादी बनाने की होती है, कक्षाओं में नारीवादी शिक्षा की जरूरत होती है, तो हमारे देश में इसपर कोई भी पहल, बातचीत या सफल प्रयास मूल रूप से कॉलेजों में होते दिखाई पड़ते हैं। ये सच है कि कॉलेज में आकर विद्यार्थियों का खुद भी इसमें योगदान होता है। लेकिन शैक्षिक संस्थानों को नारीवादी बनाने की प्रक्रिया सिर्फ किताबों और पढ़ाई तक सीमित नहीं होती। इसमें शिक्षक का व्यवहार, स्कूल के नियम, स्कूल में दिनचर्या जैसे सभी चीज़ें शामिल होते हैं। स्कूली शिक्षा  देने वाले शैक्षिक संस्थानों का नारीवादी होना और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां बच्चों में विभिन्न विषयों पर जानकारी और बुनियादी विचार विकसित होते हैं। याद कीजिए अपने क्लास का कोई एक दिन। बच्चों के दिन की शुरुआत ही टीचर के डांट से होती है ताकि सारे बच्चे चुप रहें।

भारतीय शैक्षिक प्रणाली के स्कूलों में जहां आम तौर पर निम्न या मध्यम वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं, वहां शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध कुछ ऐसा ही दिखता है। यह एक ऐसा रिश्ता है जहां टीचर सत्ता में बने रहते हैं। बच्चों की बातें या भावनाओं का मोल बहुत कम दिया जाता है। हालांकि ये पूछना और समझना जरूरी है कि क्या हमें स्कूलों में नारीवाद चाहिए या हमारे स्कूलों का नारीवादी होना जरूरी है। किसी विषय को नारीवादी नजरिए से देखना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी विषय को जातीय, वर्गीय और सामुदायिक नजरिए से देखना। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि अमूमन चीजों को देखने के नजरिए में हम सिर्फ जेन्डर का इस्तेमाल नहीं कर सकते। यहां लिंग के साथ-साथ पावर डाइनैमिक्स, वर्ग, अर्थ, समुदाय, धर्म या जाति उतना ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

किसी विषय को नारीवादी नजरिए से देखना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी विषय को जातीय, वर्गीय और सामुदायिक नजरिए से देखना। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि अमूमन चीजों को देखने के नजरिए में हम सिर्फ जेन्डर का इस्तेमाल नहीं कर सकते। यहां लिंग के साथ-साथ पावर डाइनैमिक्स, वर्ग, अर्थ, समुदाय, धर्म या जाति उतना ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

नारीवादी शैक्षिक संस्थानों की क्यों है जरूरत

हमें ऐसे स्कूलों की जरूरत है जो नारीवादी संस्थानों के रूप में पहचान करते हैं। जो ऐसे पाठ्यक्रम और शिक्षा नीति किसी एक चैप्टर में पढ़ाए जाने वाले शिक्षाशास्त्र के रूप में नहीं, बल्कि नारीवादी मूल्यों और लक्ष्यों को मूलभूत रूप में अपनाते हैं। हर साल, जब 5 सितंबर आता है, तो हम अखबारों और स्कूलों में भारत की पहली महिला शिक्षक के रूप में सावित्रीबाई फुले पर कार्यक्रम देखते हैं। सावित्रीबाई एक नारीवादी, समाज सुधारक और कार्यकर्ता, जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक कवयित्री और शिक्षिका भी थीं। लेकिन शायद ही शिक्षक इन गुणों को असल रूप में अपना पाते हैं। शिक्षक दुनिया में कहीं भी लैंगिक समानता वाले स्कूल प्रणालियों की शुरुआत करने वाले होते हैं। वे मूल्यों, ज्ञान के प्रसारण, मानव क्षमता और कौशल के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण शिक्षा प्रणाली के केंद्र में हैं।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल
 

शिक्षकों में नारीवादी मूल्यों की जरूरत

स्कूल में घटने वाली रोजमर्रा की घटनाओं से अंदाजा लगाया जा सकता है कि शैक्षिक संस्थानों को नारीवादी बनाने की जरूरत क्या है। उदाहरण के लिए, बिहार के मुंगेर जिले के प्रसिद्ध मिशनरी स्कूल में बच्चे के दाखिले के समय फॉर्म में धर्म लिखना जरूरी है। यही जानकारी स्कूल के डायरी में भी दिया जाना अनिवार्य है। स्कूल ने इसके लिए तीन भाग किए हैं। सबसे पहला जहां आप बता सकते हैं कि एक क्रिश्चियन हैं, दूसरा जहां आपको बताना है कि आप रोमन कैथ्लिक हैं या प्रोटेस्टेंट। तीसरा कॉलम अन्य के लिए रखा गया है। जहां नारीवादी थ्योरी समावेशिता पर जोर देने कहती है, वहीं ऐसे नियम समावेशिता को ही नहीं बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े कर देती है। इस स्कूल के ऐसे कई शिक्षक हैं जो खुद क्रिश्चियन समुदाय से हैं, और बच्चों को कक्षाओं में स्कूल में जो प्रार्थना सिखाया जाता था, उसके अलावा खुद के प्रार्थना गीत सिखाया करते थे। इसी तरह का चलन सरस्वती विद्या मंदिर जैसे स्कूलों में भी है, जहां एक निश्चित धर्म से जुड़े नियम और तौर तरीके सिखाए जाते हैं। इन गीतों का महत्व है या नहीं, यह विवादस्पद है। लेकिन अगर नारीवादी नजरिए से देखें, तो स्कूल के साथ-साथ शिक्षकों को अपने पूर्वाग्रहों को छोड़ने की जरूरत है।    

नारीवादी कक्षा बनाने की दिशा में पहला कदम है एक लोकतांत्रिक कक्षा बनाना जहां सभी विद्यार्थियों को समान माना जाए। जहां उनके विविध सीखने की जरूरतों और प्राथमिकताओं को स्वीकार किया जाए और उस आधार पर काम किया जाए।

जाति और वर्ग को समझने की जरूरत

बतौर शिक्षक मुझे लंबे अर्से तक बच्चों के साथ काम करने का मौका मिला है। इस बीच मैंने ऐसे बच्चों को भी पढ़ाया और समझने की कोशिश की जो हाशिये से आते हैं। यह एक ऐसा संस्थान था जहां निम्न और मध्यम वर्ग के बच्चे पढ़ा करते थे। एक रोज कक्षा पांचवीं के निशु को उसके क्लास टीचर थोड़ा चिढ़ते हुए ऑफिस के कमरे तक ले आए। वह मुझे बताते हैं, “पिछले 5-7 दिनों से इसे नए जूते खरीदने को बोल रहा हूँ। हफ्ते में एक ही बार सफेद कैन्वस जूते पहनने होते हैं। लेकिन इसमें भी पिछले हफ्ते इसने काले जूते पहने थे। आज जब आया है जो जूते ऐसे हैं कि नया लेने की जरूरत है।” मैंने उन्हें कक्षा में जाने को कहा और देखा कि निशु के पैर फटे जूते से बाहर निकल रहे थे।

मैंने जब पूछा, तो उसने बताया, “माँ ने कहा है कि खरीद देगी। लेकिन कब, पता नहीं।” मुझे याद आया कि उसकी माँ एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता थी जिसे मुश्किल से महीने के 5000-6000 हजार मिलते थे। ऐसे में हफ्ते में सिर्फ एक दिन पहनने के लिए इतने रुपए खर्च करना घर का बजट बिगाड़ना होगा। निशु के पिता नहीं थे और उसके माँ की कमाई ही घर की एकमात्र कमाई थी। संभव है कि शिक्षक स्कूल के नियमों में बाध्य होकर मजबूरन ऐसी सख्ती कर रहा हो। लेकिन शैक्षिक संस्थानों को नारीवादी बनने के लिए जाति, वर्ग, अर्थ, समुदाय या धर्म जैसे पहलुओं को समझने की जरूरत है।            

मैंने जब पूछा, तो उसने बताया, “माँ ने कहा है कि खरीद देगी। लेकिन कब, पता नहीं।” मुझे याद आया कि उसकी माँ एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता थी जिसे मुश्किल से महीने के 5000-6000 हजार मिलते थे। ऐसे में हफ्ते में सिर्फ एक दिन पहनने के लिए इतने रुपए खर्च करना घर का बजट बिगाड़ना होगा।

पाठ्यपुस्तकों में कमी

आम तौर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद( एनसीईआरटी) या विशेष कर राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) के किताबों में जब हम हिन्दी जैसी भाषा में किसी भी विषय का पाठ्यपुस्तक पढ़ते हैं, तो अमूमन वाक्य ‘पुल्लिंग’ में लिखे रहते हैं। भले, वह सामाजिक विज्ञान जैसे विषय का कोई चैप्टर ही क्यों न हो। ये किताबें समाज में महिलाओं और पुरुष के स्थान में अंतर, महिलाओं और पुरुषों के कामकाज के बदले में मिलने वाला मेहनताने में अंतर, महिलाओं की राजनीतिक कम भागीदारी, लड़के और लड़कियों के अलावा अन्य जेन्डर के लोगों का स्कूल में गैरमौजूदगी जैसे विषयों पर कोई सवाल नहीं करते। बात जब स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले विषयों को नारीवादी बनाने की होती है, तो भले पाठ्यपुस्तकों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व यानि संख्या बढ़ाने की बात होती है। लेकिन बुनियादी समस्याओं पर बातचीत करने से कई शिक्षाविद भी कतराते हैं। कक्षा को नारीवादी बनाने का सबसे अच्छा और स्पष्ट तरीका नारीवादी पाठ्यक्रम है। नारीवादी शिक्षाशास्त्र एक ऐसा ढाँचा है जो नारीवादी सिद्धांत पर आधारित है और ज्ञान को सामाजिक रूप से निर्मित मानता है।

हालांकि, नारीवादी शिक्षाशास्त्र केवल कुछ नियमों के सेट या रणनीति नहीं है जिससे रातोंरात बदलाव हो जाएगा। नारीवाद एक व्यापक अवधारणा है जहां सीखना और सिखाना एक साथ चलती है। आम तौर पाठ्यपुस्तकों हम हमेशा निम्न या माध्यम वर्ग के किरदारों को ही देखते आए हैं जहां सभी समान थे और सभी बराबर। इसलिए समाज के वर्गीकरण के अंतर्गत उसमें कोई जगह नहीं थी। साथ ही, ये सभी कहानियां या किरदार हमें जीवन की वास्तविकता से दूर करती है। उदाहरण के लिए, एनसीईआरटी की कक्ष बारहवीं की पुस्तक ब्यूटी एण्ड वेल्नस लीजिए। इसमें शरीर के विभिन्न बनावट को दिखाने के चक्कर में महिलाओं के शरीर के चित्र का इस्तेमाल करते हुए एप्पल शेप्ड को अच्छा और पियर शेप्ड को बुरा बताया गया है। आगे इस कितब में नेल आर्ट दिखाया गया है जहां नमूना तस्वीर के रूप में महिलाओं के हाथों, स्किन केयर में फेशियल जैसी जगहों पर भी महिलाओं के तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया है।  

कक्षा में जरूरी है सत्ता में बदलाव

नारीवादी कक्षा बनाने की दिशा में पहला कदम है एक लोकतांत्रिक कक्षा बनाना जहां सभी विद्यार्थियों को समान माना जाए। जहां उनके विविध सीखने की जरूरतों और प्राथमिकताओं को स्वीकार किया जाए और उस आधार पर काम किया जाए। ऐसी कक्षा में, छात्रों का मूल्यांकन केवल ग्रेड पर आधारित नहीं होगी, बल्कि विद्यार्थियों को हीन दिखाए बिना उनके विभिन्न गुणों पर काम किया जाना आवश्यक है। शिक्षक का उनमें बतौर इंसान यह विश्वास काम करना चाहिए कि वे कुछ कम नहीं। एक लोकतांत्रिक कक्षा छात्रों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करेगी। यह उनके अधिकार का सम्मान करेगी और साथ ही उन्हें चुप रहने की इच्छा पर चुप रहने की अनुमति भी देगी। नारीवादी कक्षा की सबसे प्रमुख विशेषता होनी चाहिए कि शिक्षक की ओर से कोई पदानुक्रम या श्रेष्ठता न दिखाया जाए। इसके बजाय छात्र और शिक्षक दोनों एक-दूसरे को ज्ञान या अनुभव बांटें। अमूमन कोई भी पाठ्यक्रम हमने सहमति, स्वस्थ रिश्ते और बॉडी औटोनोमी जैसी जरूरी मुद्दों को नहीं सिखाते। शैक्षिक संस्थानों के पूरी तरह नारीवादी विचारधारा अपनाने से न सिर्फ हमें एक बेहतर कल मिलेगा बल्कि लैंगिक हिंसा को पहचानने और उसका मुकाबला करने में मदद मिल सकती है।

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