समाजकानून और नीति भारतीय जेल व्यवस्था में जूझती महिला कैदियां और उनके बच्चों की जिंदगी

भारतीय जेल व्यवस्था में जूझती महिला कैदियां और उनके बच्चों की जिंदगी

बड़ी आबादी के बीच कैदियों में अल्पसंख्यक होने की वजह से महिला कैदियों की जरूरतों, अधिकारों और बुनियादी सुविधाओं को अक्सर जेल अधिकारियों द्वारा दरकिनार कर दिया जाता है। गर्भवती महिलाओं को उचित देखभाल नहीं मिल पाती।

देश भर की जेलों में बंद महिलाएं संरचनात्मक लैंगिक असमानता की शिकार हैं। हालांकि भारतीय जेल व्यवस्था सभी कैदियों के लिए बहुत अमानवीय है, लेकिन सामाजिक मानदंडों के कारण, कैद के समय के बाद भी उनका जीवन आसान नहीं होता। अपनी कैद के दौरान, महिला कैदी अमानवीय, अविवेकपूर्ण और भेदभावपूर्ण व्यवहार का शिकार होती हैं और यह उनकी रिहाई के बाद भी जारी रहता है। यह एक महिला के जेल जाने से जुड़ी गलत धारणाओं और बदनामी पर आधारित है। समाज का क़ैदियों के प्रति दृष्टिकोण उन्हें न्यायालय द्वारा अपराधी घोषित करने से पहले ही सबकी नज़रों में अपराधी बना देता है। स्थिति तब और बिगड़ जाती है, जब महिला क़ैदी जेल में ही अपने बच्चे को जन्म देती है या फिर अकेली पालनहार होने के कारण अपने छह वर्ष से कम के बच्चे को अपने साथ जेल में ले जाती है। एक बच्चा जिसका कोई अपराध नहीं है और जो उम्र में भी छोटा है उसको अपने बचपन में ही एक नर्क से गुज़ारना पड़ता है। उस बच्चे को जेल में, फिर बाहर आने के बाद, समाज द्वारा बिना अपराध के भी अपराधियों जैसा रवैया झेलना पड़ जाता है।  

अक्सर कैदियों की बैरक में जरूरत से ज्यादा भीड़ होती है और महिला कैदी इससे अलग नहीं। वे अपर्याप्त और न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के साथ खराब और अस्वच्छ परिस्थितियों में रहती हैं। उनमें से महिलाओं की एक बड़ी संख्या अंडर-ट्रायल होने के बावजूद कई वर्षों तक जेल में बंद रहती है। चूंकि उनमें से अधिकांश अशिक्षित हैं और उनमें अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता का अभाव है; कई बार वे पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण कानूनी सहायता पाने में असफल होती हैं। नतीजन विचाराधीन कैदी के रूप में वह न्याय पाने में असफल हो जाती हैं। यह सीआरपीसी की धारा 437 के तहत महिलाओं को उपलब्ध विशेष छूट के बावजूद है।

हालांकि भारतीय जेल व्यवस्था सभी कैदियों के लिए बहुत अमानवीय है, लेकिन सामाजिक मानदंडों के कारण, कैद के समय के बाद भी उनका जीवन आसान नहीं होता। अपनी कैद के दौरान, महिला कैदी अमानवीय, अविवेकपूर्ण और भेदभावपूर्ण व्यवहार का शिकार होती हैं और यह उनकी रिहाई के बाद भी जारी रहता है।

दण्ड-प्रक्रिया-संहिता अधिनियम (सीआरपीसी), एक महिला को जमानत का अधिकार देता है, भले ही उस पर गैर-जमानती अपराध का आरोप लगाया गया हो, जिसमें मौत या आजीवन कारावास की सजा भी शामिल है। महिला वार्डनों सहित जेल कर्मचारियों की असंवेदनशीलता और उनका कम प्रतिनिधित्व महिला कैदियों की परेशानियों को बढ़ाता है। जेल में महिलाओं के साथ उनके कम उम्र के बच्चे भी रहते हैं। जेलों में माताओं और उनके बच्चों को जिन सुविधाओं की आवश्यकता होती है, वे देश भर में फंड की कमी इसे जूझ रहे जेल प्रशासन की प्राथमिकताओं की सूची में अक्सर बहुत नीचे होता है।

जेलों में माँओं और बच्चों की स्थिति

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2022 के आंकड़ों के अनुसार, भारत के कैदियों में महिलाओं की संख्या बहुत कम है, साढ़े पांच लाख से अधिक कैदियों में से केवल 23,790 महिलाएं हैं। एनसीआरबी के अनुसार, दिसंबर 2022 तक, देशभर में 5412 दोषी, 18146 विचाराधीन और 120 नजरबंद महिला कैदी हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार देशभर की जेलों में कुल 1,537 महिला कैदी हैं जिनके बच्चे हैं, और जेल में बच्चों की कुल संख्या 1,764 है। इन महिला कैदियों में 1,312 महिला कैदी विचाराधीन कैदी थीं जिनके साथ 1,479 बच्चे थे और 198 सजायाफ्ता कैदी थीं जिनके साथ 230 बच्चे थे। कानून कहता है कि जेल में बंद माताओं के बच्चों को छह साल की उम्र तक अपनी मां के साथ जेल में रहना होगा यदि वे प्राथमिक देखभालकर्ता हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2006 के आर डी उपाध्याय बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे बच्चों को छह साल की उम्र तक उनकी मां के साथ रहने दें। अदालत का तर्क यह था कि इतनी कम उम्र में एक बच्चे को उसकी मां से अलग करने का विनाशकारी प्रभाव हो सकता है। लेकिन एक बार जब कोई बच्चा छह साल का हो जाता है, तो उसे एक उपयुक्त सरोगेट को सौंप दिया जाना चाहिए या सुरक्षात्मक हिरासत में स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए और सप्ताह में कम से कम एक बार मां से मिलने के लिए जेल में लाया जाना चाहिए।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2006 के आर डी उपाध्याय बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे बच्चों को छह साल की उम्र तक उनकी मां के साथ रहने दें। अदालत का तर्क यह था कि इतनी कम उम्र में एक बच्चे को उसकी मां से अलग करने का विनाशकारी प्रभाव हो सकता है।

माँ बनने पर महिला कैदियों की हालात  

बड़ी आबादी के बीच कैदियों में अल्पसंख्यक होने की वजह से महिला कैदियों की जरूरतों, अधिकारों और बुनियादी सुविधाओं को अक्सर जेल अधिकारियों द्वारा दरकिनार कर दिया जाता है। गर्भवती महिलाओं को उचित देखभाल नहीं मिल पाती। जिन महिला क़ैदियों के छोटे बच्चे होते हैं उन्हें शिक्षा, पोषण आदि जेल में उचित रूप से नहीं मिल पाता है। इंडिया स्पेंड में छपे लेख के अनुसार, भारत में, 2019 के दशक में, सभी महिला कैदियों में से औसतन 1,586  या 9 फीसद के साथ बच्चे थे, और इनमें से चार में से तीन माताएं विचाराधीन कैदी थीं। 2019 में 1,543 महिला कैदियों के साथ उनके बच्चे थे। 15 भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में महिलाओं के लिए 31 जेलें हैं, जबकि 21 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में महिलाओं के लिए कोई अलग जेल नहीं है। 2019 में सभी महिला विचाराधीन कैदियों में से लगभग 10 में से एक के बच्चे थे। भारतीय जेलों में बंद 478,600 लोगों में से 10 में से सात पर मुकदमा अभी चल ही रहा है।

क्या भारतीय जेल सुधार के अवधारणा पर काम करती है

इंडिया स्पेंड में छपे लेख के अनुसार महिला कैदियों को आमतौर पर उनकी कम संख्या के कारण न्यूनतम निवेश मिलता है, जिससे उनके लिए अलग बुनियादी ढांचा तैयार करना आर्थिक रूप से अव्यवहारिक हो जाता है। इस रिपोर्ट के अनुसार जेल में बच्चों के साथ भी ऐसा ही है, क्योंकि उनकी संख्या आमतौर पर कम होती है। रिपोर्ट बताती है कि महिला कैदियों के सामने आने वाली चुनौतियां, इस तथ्य से उपजी हैं कि जेलों को पारंपरिक रूप से पुरुषों की जरूरतों के अनुरूप डिजाइन किया गया है। सज़ा के रूप में जेल का एक लंबा इतिहास रहा है। न केवल जेलों के भौतिक स्थान और बुनियादी ढांचे, बल्कि कारावास के कानूनी और दार्शनिक कारण भी समय के साथ विकसित हुए हैं। आज, भारत और दुनिया भर में जेलों को केवल सज़ा देने की जगह के बजाय आपराधिक सुधार का केंद्र माना जाता है। पिछले साल अगस्त महीने में, सुप्रीम कोर्ट ने 27 दिसंबर, 2022 को प्रस्तुत न्यायमूर्ति अमिताव रॉय समिति की रिपोर्ट पर केंद्र और राज्यों के विचार मांगे, जिसमें रेखांकित किया गया कि सुधारात्मक न्याय प्रणाली स्पष्ट रूप से लिंग बहिष्करणकारी है।

इंडिया स्पेंड में छपे लेख के अनुसार महिला कैदियों को आमतौर पर उनकी कम संख्या के कारण न्यूनतम निवेश मिलता है, जिससे उनके लिए अलग बुनियादी ढांचा तैयार करना आर्थिक रूप से अव्यवहारिक हो जाता है।

क्यों महिलाओं के लिए जेल में रहना ज्यादा कठिन है  

रिपोर्ट में कहा गया है कि कैद में महिलाओं को अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक बदतर कारावास का दंश झेलना पड़ता है, खासकर चिकित्सा देखभाल और चिकित्सा कर्मचारियों, कानूनी सहायता और परामर्श से लेकर वेतनभोगी श्रम और मनोरंजन सुविधाओं तक बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच के संबंध में। विशेष महिला जेल सुविधा के विपरीत जेल सुविधा के बड़े ढांचे के अंदर बैरक में रहने वाली महिलाओं को इन बुनियादी अधिकारों से अक्सर इनकार किया जाता है।

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने प्रिजन इंडिया मैन्युअल में कुछ गाइडलाइन्स बनाई थी। उसमें कुछ सुविधाएं इन महिला क़ैदियों और उनके बच्चों को दी गयीं थी। ये सुविधाएं उनकी देखरेख में रहने वाले बच्चों के अनुरूप बनाई गई हैं। इन बच्चों को अपराधियों की तरह महसूस नहीं कराया जाना चाहिए। वर्तमान जीवन स्थिति को देखते हुए, जेलें बच्चे के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं हैं। यहां तक ​​कि अगर कोई बच्चा जेल में अपनी मां के साथ रह रहा है, तो राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि बच्चे अपने अधिकारों का आनंद लें, जैसे कि आवश्यक शैक्षिक सुविधाएं, उचित और पौष्टिक भोजन और विशिष्ट पोषण वातावरण उन्हें उपलब्ध हो। ये बच्चे बाहरी दुनिया से बिना किसी संचार के अलगाव में रहते हैं और जेल के भीतर अन्य महिला कैदियों से घिरे रहने के लिए मजबूर होते हैं। ऐसी परिस्थितियों में उनका मानसिक विकास प्रभावित होने लगता है। 

कैद में महिलाओं को अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक बदतर कारावास का दंश झेलना पड़ता है, खासकर चिकित्सा देखभाल और चिकित्सा कर्मचारियों, कानूनी सहायता और परामर्श से लेकर वेतनभोगी श्रम और मनोरंजन सुविधाओं तक बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच के संबंध में।

नियमों और नीतियों के कार्यान्वयन में कमी 

जेलों में सभी प्रक्रियाओं के लिए गृह मंत्रालय के व्यापक मॉडल जेल मैनुअल, 2016 (एमपीएम 2016) में जारी किए गए, और 2011 में जारी संयुक्त राष्ट्र के बैंकॉक नियम प्रोटोकॉल भी बच्चों के साथ महिला कैदियों के कल्याण के लिए प्रक्रियाओं को निर्धारित करते हैं। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय का आर डी उपाध्याय मामले का निर्णय भी क़ैदी माताओं और बच्चों के लिए मानकों को बताता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इनका और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उनके कल्याण पर ‘सकारात्मक प्रभाव’ पड़ा है, लेकिन कार्यान्वयन और नीति के बीच एक अंतर बना हुआ है। हमारे देश में हर प्रकार के नियम और कानून मौजूद हैं। लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल है उनके क्रियान्वन की। महिला क़ैदियों और उनके बच्चों के लिए मौजूदा क़ानून और नीतियां अगर सही से प्रयोग में लाई जाए तो इनका जीवन क़ैद में, और क़ैद से निकलने पर अँधेरे में नहीं जाएगा।

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