इतिहास कबूतरी देवीः उत्तराखंड की पहली लोकगायिका| #IndianWomenInHistory

कबूतरी देवीः उत्तराखंड की पहली लोकगायिका| #IndianWomenInHistory

कबूतरी अपने संगीत का पूरा श्रेय अपने परिवार के लोगों को देती थी और ख़ासकर अपनी माँ को। साथ ही वह यह भी कहती थीं कि अगर उन्हें शिक्षा मिलती तो वह अपने संगीत को बेहतर और ज्यादा सीख पाती। हालांकि उनका शिक्षित न होना उनकी संगीत दुनिया में बाधा न बना।

एक मायने में सारा हिमालय एक गांव है। शांत वादियों और ऊँची चोटियों वाला गाँव। पूरा गाँव पेड़-पौधों की हरियाली से ढका हुआ है। यहाँ शांति है और इसके एक हिस्से को हम उत्तराखंड कहते हैं। जहां पर पसरी हुई चुप्पी को लोक गायन भेदता है। ऐसी ही एक लोकगायिका का नाम है कबूतरी देवी। अपनी सुरीली आवाज से सबके मन को मंत्र मुग्ध कर देने वाली कबूतरी देवी का जीवन एक गीतात्मक गाथा है; जिसमें परिस्थितियों के कारण हमेशा से उतार-चढ़ाव बने रहे हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे हिमालय की शृंखलाओं में दिखते हैं। अपने गीतों में पहाड़ का पूरा सांस्कृतिक दर्शन दिखाने वाली कबूतरी देवी को उत्तराखंड की पहली लोकगायिका कहा जाता हैं।

कबूतरी देवी का जन्म साल 1945 में उत्तराखंड के चंपावत ज़िले के सुदूर गांव लेटी में हुआ था। देव राम और देवकी देवी की बेटी कबूतरी अपने 10 भाई-बहनों में तीसरी संतान थी। पिथौरागढ़ जैसे सीमांत इलाकों में शिक्षा हासिल करने के अवसर बहुत दुर्लभ थे। नतीजन कबूतरी देवी भी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाई। गांव से स्कूल की दूरी बहुत अधिक होने के कारण वह स्कूल न जा सकीं। इस वजह से वह असाक्षर ही रही।

बहरहाल कबूतरी देवी को शिक्षा तो नसीब न हो पाई लेकिन संगीत का संसार उन्हें विरासत में मिला था। वह एक ऐसे समाज में पली-बढ़ी थी जहां चारों ओर संगीत का माहौल था। उनके पिता देवी राम दलित समाज से थे और जिनका पारंपरिक व्यवसाय संगीत से जुड़ा था। हुडक्या, औजी आदि भूमिहीन दलित जातियां अपनी आजीविका के लिए चैत्र माह और शुभ कार्यों में तथाकथित सवर्ण घरों में जाकर ऋतु गीत गाया करते थे। उनके पिता सारंगी वादक थे और उनकी माँ गायन में बहुत निपुण थी। उनकी माँ ने संगीत उनके नाना से सिखा था।

18 मई 1989 का दिन आया जब उन्होंने आकाशवाणी की वाइस टेस्टिंग परीक्षा पास की और अपना पहला गीत आकाशवाणी लखनऊ से गाया। यहां से उनके लोक गीतों की आवाज़ को विस्तार मिला, श्रोताओं का प्यार मिला और खुद की एक पहचान बनीं।

ननिहाल में मिला संगीतमय माहौल

उनके ननिहाल का माहौल पूरा संगीतमय था। नाना, मामा, मौसी आदि सभी संगीत से जुड़े हुए थे। पूरा घर संगीत कलाकारों से घिरा हुआ था। भले ही कबूतरी देवी के पास संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी लेकिन ऐसे परिवेश में जन्म लेने ही ने उन्हें फाग, पटैं, चैती, तीन ताल, दादरा, प्रभाती और ठुमरी जैसे गीतों को गाने में सक्षम बना दिया था। उस समय पर जब लोगों के घरों में वार-त्योहार, नामकरण, शादी ब्याह मनाएं जाते थे तो अक्सर स्थानीय कलाकारों को ही बुलाया जाता था। ऐसे ही एक कार्यक्रम में वह भी गई। जहां उन्होंने अपने गीतों की धुनों से न सबको मोहित किया बल्कि ईनाम भी जीता।

तस्वीर साभारः Nanital Samachar

कबूतरी अपने संगीत का पूरा श्रेय अपने परिवार के लोगों को देती थी और ख़ासकर अपनी माँ को। साथ ही वह यह भी कहती थीं कि अगर उन्हें शिक्षा मिलती तो वह अपने संगीत को बेहतर और ज्यादा सीख पाती। हालांकि उनका शिक्षित न होना उनकी संगीत दुनिया में बाधा न बना। उन्हें लोक परंपरा से मिले गीतों के साथ ही शास्त्रीय परंपरा से जुड़े गीतों का भी अनुभव था। माता-पिता के अलावा नौ बहनों और एक भाई का यह परिवार संगीत के अलावा अपनी गुजर बसर के लिए खेती-बाड़ी में मजदूरी पर आश्रित था।

शादी और गायकी के नये अवसर

कबूतरी देवी के गायन को असली मंच उनकी शादी के बाद ही मिला। उस समय लड़कियों की शादी छोटी उम्र में ही करा दी जाती थी। इनका विवाह भी महज 13 साल की उम्र हो गया था। उनका विवाह पिथौरागढ़ जिलें में मूनाकोट के नज़दीक क्वीतड़ गाँव के दीवानी राम से हुआ था।। दीवानी राम ने 10वीं कक्षा तक ही पढ़ाई की थी और कुछ साल देश के अलग-अलग शहरों में जाकर काम कर चुके थे। उनके पति को घूमने-फिरने का शौक था। वह अपने संगीत के सफ़र में बड़े मंच पाने का श्रेय हमेशा अपने पति को देती थी। उनके पति ने उन्हें एक स्थापित कलाकार बनाने में मुख्य भूमिका निभाई थी।

आकाशवाणी में गायन की शुरुआत

1962 के दौरान आकाशवाणी केंद्र खोले जा रहे थे, जहां से लोक गीतों को प्रसारित किया जाता था। दूसरी ओर संगीत और नाट्य प्रभात की स्थापना हो रही थी। आकाशवाणी की इस सांस्कृतिक कार्यक्रम की लहर ने भूले-बिसरे प्रतिभावान लोक संगीत गयकों जैसे कबूतरी देवी को नई राह दिख लाई। दीवानी राम के चाचा भानूराम सुकूटी जो रिश्ते में कबूतरी के चचिया ससुर लगते थे। वह लोक निर्माण विभाग में काम किया करते थे और साथ ही आकाशवाणी में गीत भी गाया करते थे। उन्हें मालूम था कि कबूतरी बहुत मीठा गाती हैं। ऐसे में उन्होंने दीवानी राम से सलाह मशवरा किया और तय हुआ कि कबूतरी की आवाज़ को टेस्टिंग के लिए आकाशवाणी में भेज दिया जाए।

कबूतरी के विवाह को कुछ ही समय हुआ था वह अपने पति के साथ लखनऊ गई। वहां उन्होंने आकाशवाणी केंद्र में गीत सुनाए। 18 मई 1989 का दिन आया जब उन्होंने आकाशवाणी की वाइस टेस्टिंग परीक्षा पास की और अपना पहला गीत आकाशवाणी लखनऊ से गाया। यहां से उनके लोक गीतों की आवाज़ को विस्तार मिला, श्रोताओं का प्यार मिला और खुद की एक पहचान बनीं। इसके बाद वह लगातार आकाशवाणी पर गीत गाने लगी। उन्होंने अकाशवाणी नजीमाबाद और रामपुर सहित कई अन्य केंद्रों में भी गीत रिकॉर्ड किए। उस दौर में रेडियो संचार का सबसे मजबूत माध्यम था। गाँव-कस्बों में लोगों का रेडियों सुनना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। उन्होंने रेडियो में पांच साल तक लगातार काम किया। 100 से भी अधिक गीत गाए। उनकी आवाज़ में पहाड़ का सारा सांस्कृतिक दर्शन सुनने को मिलता था।

उनके गीतों और गायन शैली पहाड़ी लोक की मौलिक सुंगध का एहसास होता है। उनके गीतों में पहाड़ के ऊंचे-नीचे डाने-काने है, परदेश के एकाकीपन की टीस है, हिमालय है, प्रवास के बाद घर में रहने वाली स्त्रियों की प्रतीक्षा है।

गायकी से फिर गुमनामी का अंधेरा

परिस्थितियां हमेशा हमारे अनुकूल नहीं रहती। समय बदलता है वक्त गुजरता है। ऐसा ही कुछ कबूतरी देवी के साथ भी हुआ।साल 1984 में उनके पति दीवानी राम का देहांत हो गया। पति की मृत्यु के बाद उनका गीत गाना छूट गया। उनके ऊपर परिवार की सारी ज़िम्मेदारी आ गई। आकाशवाणी में समय पारिश्रमिक का इतना रुपया नहीं मिलता था कि उनके जीवन का गुजर बसर हो सके। साथ ही गांव से शहर जाने का खर्चा अलग। परिवार की आर्थिक तंगी के कारण उनदिनों पिथौरागढ़ से आकाशवाणी केन्द्रों तक आना-जाना भी मुश्किल भरा काम होता था।

उनको तब उस समय एक गीत को गाने का पारिश्रमिक केवल 50 रुपया ही मिलता था जो उनके आने-जाने के खर्च के हिसाब से कम हुआ करता था इस वजह से उन्होंने मेहनत-मजदूरी से अतिरिक्त पैसा जुटाना पड़ता था। हालांकि परिस्थितियां जैसी भी रही हो मगर कबूतरी के गाने आकाशवाणी नजीमाबाद से प्रसारित होते रहे। धीरे-धीरे यह दौर भी गया। अब कबूतरी की छवि लोक गायिका से बदलकर मजदूरी की मेहनत में गुम गई। धीर-धीरे वह संगीत से दूर होती चली गई। पति की मृत्यु के बाद उनपर परिवार की जिम्मेदारी बढ़ गई और वह संगीत से ज्यादा रोजी-रोटी पर ध्यान देने लगी।

कबूतरी देवी की दूसरी पारी: छोलिया महोत्सव

तस्वीर साभारः Kafal Tree

साल 1995 की बात है, जब उत्तराखंड के सीमांत क्षेत्र पिथौरागढ़में ‘आज का पहाड़’ समाचार पत्र के संपादक बद्री दत्त कश्नियाल ने स्थानीय कलाकारों पर आधारित लेखों की एक शृंखला प्रकाशित करने की प्रक्रिया में लगे हुए थे। इस दौरान उन्हें ऐसे कलाकारों की भी तलाश थी जिन्हें लोग भूल चुके थे। इस खोज में उन्होंने कबूतरी देवी को भी ढूंढ निकाला। लोक संगीत के क्षेत्र में कबूतरी देवी के सफ़र के बारे में उन्होंने एक विस्तृत लेख लिखा जिसके बाद पहाड़ के लोगों ने फिर एक बार उनकी गायिका के मुरीद हो गए। यह कहानी पहाड़ के उन लोगों तक भी पहुंची जिन्होंने उनका कभी नाम भी नहीं सुना था।

करीब एक साल बाद 1996 में पिथौरागढ़ के सांस्कृतिकर्मी हेम राज बिष्ट ने ‘नवोदय कलाकेंद्र संगठन’ की स्थापना की। कई स्थानीय कलाकारों को इससे जोड़ा गया। जिनमें देवी भी शामिल हुई। कुछ साल बाद छोलिया महोत्सव का उत्सव मनाया गया जिसमें आयोजकों के अनुरोध पर उन्होंने भी महोत्सव में भाग लिया। यही वो दिन था जब उन्होंने अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की थी। उन्होंने वहां अपने गीत गाए और सबके दिलों को जीत लिया और फिर से कबूतरी देवी का नाम सबकी जुबान पर आ गया था। सालों से छिपी गुमनामी के अंधेरों में बंद कबूतरी देवी को फिर से लोगों का खूब प्यार मिला।

कबूतरी देवी के लोकगीत और पहाड़ की संस्कृति

कबूतरी देवी के द्वारा गाये गए गीतों में पहाड़ की संस्कृति और सामाजिक परिस्थिति का दर्शन मिलता है। उनके गीतों और गायन शैली पहाड़ी लोक की मौलिक सुंगध का एहसास होता है। उनके गीतों में पहाड़ के ऊंचे-नीचे डाने-काने है, परदेश के एकाकीपन की टीस है, हिमालय है, प्रवास के बाद घर में रहने वाली स्त्रियों की प्रतीक्षा है। उनके गाये एक ऋतुरैण गीत में चैत की भिटौली और ईजू की नराई का बहुत ही मार्मिक व सजीव चित्रण मिलता है- बरस दिन को पैलो म्हैणा, आयो ईजू भिटौलिया म्हैणा। मैं बुलानि कन, मेरि ईजू झुर झुरिये झन, आयो ईजू भिटौलिया म्हैणा। बरस दिन को पैलो म्हैणा।

उनके कई गीत आकाशवाणी से प्रसारित हुए और लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय भी हुए। जिसमें से एक गीत यह भी था। “आज पनि जांऊ जांऊ, भोल पनि जांऊ जांऊ, पोरखिन कै न्हैं जोंला। स्टेशन सम्म पुजाई दे मनलाई, पछिल विरान होये जौंला।” इस गीत के माध्यम से कबूतरी देवी ने रोजगार के लिए पहाड़ से परदेश जा रहे लोगों के मन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा है कि मुझे बस-स्टेशन तक पहुंचा कर विदा कर दो, दो-चार दिनों में ही मेरा अपना गाँव मुझसे दूर हो जायेगा। उनके गीत में पहाड़ से लोगों के प्रवास और उसका वहां कि सामाजिक स्थिति पर क्या असर पड़ता है वह साफ दिखता है।

उनको तब उस समय एक गीत को गाने का पारिश्रमिक केवल 50 रुपया ही मिलता था जो उनके आने-जाने के खर्च के हिसाब से कम हुआ करता था इस वजह से उन्होंने मेहनत-मजदूरी से अतिरिक्त पैसा जुटाना पड़ता था।

जीवनभर तमाम उतार-चढ़ाव का जीवन जीने वाली वाली कबूतरी देवी ने सात जुलाई 2018 को अंतिम सांस ली। उन्होंने काफी मुश्किलों भरा जीवन जिया और तमाम परेशानियों के साथ पहाड़ी संगीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सरकार की तरफ़ से भी उन्हें वह आर्थिक साहयता नहीं दी गई जिसकी यह गायिका हकदार थीं। उनके जरिए गाए हुए गीतों का कोई संरीक्षित रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन कुछ गीत आज भी इंटरनेट पर मौजूद हैं। कबूतरी देवी को अपने संगीत क्षेत्र में “कुमाऊं कोकिला” के नाम से भी नवाजा जाता है। उन्हें छोलिया महोत्सव सम्मान (नवोदय पर्वतीय कला केन्द्र, पिथौरागढ़, 2002) सम्मानित किया गया। साल 2014 में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में संस्कृति मंत्रालय की ओर से सम्मानित किया गया। 2016 में 17वें राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर उत्तराखण्ड सरकार ने उन्हें लोकगायन के क्षेत्र में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया था।

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