इतिहास गिरिजा देवी: क्वीन ऑफ ठुमरी| #IndianWomenInHistory

गिरिजा देवी: क्वीन ऑफ ठुमरी| #IndianWomenInHistory

गिरिजा देवी अपनी पीढ़ी की पहली गायिका थीं, जिनके लिए संगीत का सफर तय करना आसान नहीं था। उन्होंने संगीत के लिए बंदिशों को तोड़ा और अपना पूरा जीवन संगीत के लिए समर्पित कर दिया।

गिरिजा देवी, भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक महान गायिका थीं। उन्होंने अपनी आवाज से भारतीय संगीत को समृद्ध किया। वह अपनी पीढ़ी की पहली गायिका थीं। उनके लिए संगीत का सफर तय करना आसान नहीं था। उन्होंने संगीत के लिए बंदिशों को तोड़ा और अपना पूरा जीवन संगीत के लिए समर्पित कर दिया। उनकी गायिका का जादू ऐसा था कि श्रोता उनकी आवाज से मंत्रमुग्ध हो जाते थे और बिना समय का आभास किए घंटो तक उनके गायन का आनंद लेते। देवी गजल, ख्याल, दादरा, टप्पा, तराना, चैती जैसी तमाम गायन शैलियों में निपुण थी परंतु उन्हें ठुमरी गायन के लिए सबसे अधिक लोकप्रियता मिली।ठुमरी गायन में उनका योगदान क्रांतिकारी था जिसके चलते उन्हें ‘ठुमरी की रानी’ के नाम से जाना गया।

शुरुआती जीवन

गिरिजा देवी का जन्म 8 मई 1929 को वाराणसी में हुआ। उनके पिता रामदेव राय एक जमींदार थे। पिता की संगीत में रूचि
होने के कारण गिरिजा देवी शुरू से ही संगीत के करीब रहीं। उनके पिता हारमोनियम बजाते थे। उन्हें अपनी प्रारंभिक संगीत
शिक्षा अपने पिता से मिली। संगीत प्रेमी होने के कारण उनके पिता बनारस के भव्य संगीत कार्यक्रमों में जाते थे। इन संगीत कार्यक्रमों में वो अपनी बेटी को भी साथ लेकर जाते। यहीं से देवी का संगीत के प्रति लगाव देखते हुए उनके पिता उन्हें बनारस के महान गायक और सारंगी वादक सरजू प्रसाद मिश्रा के पास संगीत की शिक्षा दिलाने लेकर गए। पांच साल की उम्र से ही उन्होंने अपने पहले गुरू सरजू प्रसाद मिश्रा से ख्याल और टप्पा की शिक्षा ली। जब सरजू प्रसाद मिश्रा का देहांत हुआ तो उन्होंने अगले गुरू श्रीचंद से संगीत की शिक्षा ली। नौ साल की उम्र में उन्होने ‘याद रहे’ फिल्म में अभिनय भी किया।

अपने प्रयासों के चलते बहुत जल्द ही उन्होंने संगीत क्षेत्र में अपना नाम बना लिया। सबसे पहले उन्होंने 1949 में ऑल इंडिया रेडियो पर इलाहाबाद स्टेशन से सार्वजनिक प्रस्तुति दी।

गिरिजा देवी को बचपन से अपने पिता का समर्थन मिला। उनकी की संगीत शिक्षा में कोई बाधा न आए इसलिए पिता ने अपने गांव से बनारस में रहना शुरू कर दिया। उन्होंने गिरिजा को उस समय की लड़कियों के प्रति भेदभाव पूर्ण धारणाओं के विपरीत घुड़सवारी, तैराकी और लाठी चलाना सिखाया। हालांकि पिता के सहयोग के बावजूद देवी के लिए संगीत में अपना करियर बनाने के लिए काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। हालांकि उनकी माता उनके संगीत सीखने के पक्ष में नहीं थी। उनका मानना था कि शादी के बाद जीवन में संगीत काम नहीं आएगा। इसलिए अपनी माँ के समर्थन के लिए उन्होंने घरेलू काम से लेकर शादी, बच्चे के जन्म और अन्य अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीत सीखे। आगे के जीवन में उनकी माता उनकी सबसे बड़ी प्रशंसक बन गई।

संगीत की नगरी बनारस में उस समय मंदिरों में संगीत समारोह की तरह रात भर गाना-बजाना होता था। बनारस में रहते
हुए देवी को बचपन में प्रसिद्ध गायकों को सुनने का मौका मिला। एक बार मनकामेश्वर मंदिर में वह अपने पिता के साथ उस्ताद फैयाज खां को सुनने के लिए पहुंची। उस्ताद खां का आलाप सुनकर उनकी आंख से आँसू बहने लगे। उस्ताद खां ने गिरिजा देवी की और ध्यान देते हुए कहा कि छोटी से उम्र में ही इसे सुरों की इतनी चोट है, वो एक बड़ी कलाकार बनेगी।

गृहस्थ जीवन और संगीत

तस्वीर साभारः The Talented India

15 साल की उम्र में उनकी शादी मशहूर बिजनेस मैन मधूसुदन जैन से कर दी गई। शादी के समय उनके पिता ने मधूसुदन से वादा लिया की शादी के बाद उन्हें संगीत से नहीं रोका जाएगा। देवी को अपने संगीत सफर के लिए अपने पति का सहयोग मिला पर कुछ शर्तों के साथ। उन्होंने देवी से वादा लिया कि वो कभी भी नवाबों और राजाओं के दरबार में प्रस्तुति नहीं देंगी क्योंकि यह उनके उच्च वर्ग के सम्मान के ख़िलाफ़ है। शादी के बाद वो अपने घरेलू जीवन में काफी उलझ गईं। उन पर अपने परिवार को और घरेलू जीवन को संभालने का बोझ बढ़ने लगा। अपने घरेलू जीवन के चलते उनके लिए गायन अभ्यास करना मुश्किल हो रहा था। हालांकि पारिवारिक उलझनों के चलते उन्होंने अपने संगीत से समझौता नहीं किया। बाद में पति के सहयोग से उन्होंने सारनाथ में अपनी बेटी के साथ रहना शुरू किया। वो एक साल तक सारनाथ में रही और अपना पूरा समय अपने संगीत और अभ्यास को दिया। एक साल तक किए कठिन परिश्रम और अभ्यास ने गिरिजा देवी के अंदर एक महान संगीतकार को जन्म दिया।

संगीत जगत में काम और नाम

पंडित बिरजू महाराज के साथ गिरिजा देवी। तस्वीर साभारः The Asian Age

सामजिक बंदिशों, गृहस्थ जीवन और अपने संगीत में संतुलन बनाते हुए देवी ने तमाम चुनौतियों का सामना किया। अपने प्रयासों के चलते बहुत जल्द ही उन्होंने संगीत क्षेत्र में अपना नाम बना लिया। सबसे पहले उन्होंने 1949 में ऑल इंडिया रेडियो पर इलाहाबाद स्टेशन से सार्वजनिक प्रस्तुति दी। उन्होंने पहला कॉन्सर्ट 1951 में आरा, बिहार में किया। यहाँ उन्होंने पंडित विनायक राव पटवर्धन, अहमद जान थिरकवा, पंडित अनोखे लाल, मीरा सान्याल जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ मंच साझा किया। 1952 में उनके पति ने बनारस में एक संगीत समारोह किया जिसमें उन्होंने भी अपनी प्रस्तुति दी। इस दौरान पंडित रविशंकर भी वहां मौजूद थे, वे देवी के गायन से बहुत प्रभावित हुए। पंडित रविशंकर ने दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में एक संगीत समारोह रखा और उन्हें भी आमंत्रित किया। इस समारोह में उन्होंने बिस्मिल्लाह खां और डी. वी. पलुस्कर के साथ अपनी प्रस्तुति दी। समारोह में तत्कालीन उपराष्ट्रपति राधाकृष्णन भी मौजूद थे। उन्होंने 1952 में कलकत्ता कॉन्सर्ट में गाया और उसके बाद एक लंबे समय तक कलकत्ता से जुड़ी रहीं।

देवी की प्रतिभा ने देश के साथ विदेशों में भी ठुमरी शैली को अमर किया। 1969 में उनकी विदेश यात्राएं शुरू हुई और अमेरिका, लंदन, सोवियत रूस और फ्रांस में अपनी प्रस्तुतियां दी। वह संगीत के प्रति बहुत समर्पित थी। अप्रैल 2005 में उनकी हर्ट सर्जरी हुई जिसके चलते उन्हें कुछ समय तक न गाने की सलाह दी गई। उनका कहना था ‘वो गाने के लिए ही जिंदा है अगर गाते हुए मरना पडे़ तो इससे अच्छा क्या हो सकता है।’ इसके बाद सितंबर में फ्रांस की यात्रा की और हर्ट सर्जरी होने के बावजूद दो घंटे से भी अधिक समय तक लगातार गाती रहीं। गिरिजा देवी के श्रोता उन्हें प्यार से ‘अप्पा’ कहते थे।

ठुमरी क्वीन बनीं पहचान

पद्म विभूषण से सम्मानित गिरिजा देवी। तस्वीर साभारः TOI

गिरिजा देवी भारतीय शास्त्रीय संगीत में ठुमरी की पर्याय बनीं। संगीत क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार
द्वारा उन्हें पद्म श्री (1972), पद्म भूषण (1989) और पद्म विभूषण (2016) से सम्मानित किया गया। अपने संगीत जीवन में
उन्होंने संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, महा संगीत सम्मान पुरस्कार, संगीत सम्मान
पुरस्कार, GIMA पुरस्कार जैसे अवार्ड अपने नाम किए।

देवी की प्रतिभा ने देश के साथ विदेशों में भी ठुमरी शैली को अमर किया। 1969 में उनकी विदेश यात्राएं शुरू हुई और अमेरिका, लंदन, सोवियत रूस और फ्रांस में अपनी प्रस्तुतियां दी।

बनारस में रहते हुए उन्होंने चौमुखी गायन सीखा। उन्हें ‘ठुमरी क्वीन’ कहा जाता था लेकिन वो ख्याल, टप्पा, दादरा, गजल आदि भी उतनी ही निपुणता से गाती थी जितनी ठुमरी। ठुमरी उनके लिए स्वयं को अभिव्यक्त करने का तरीका था। ठुमरी के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान ये रहा कि वो ठुमरी को मात्र शब्द आलाप से बाहर लेकर आई। उन्होंने आलाप के साथ भावों पर जोर दिया ताकि वो जो गा रही हैं उसकी पूरी तस्वीर श्रोताओं के सामने हो। उनके गायन की यही विशेषता थी कि सुनने वाले गायन के मर्म को महसूस कर पाते थे।

1978 में गिरिजा देवी कोलकाता आईटीसी संगीत रिसर्च अकेडमी में बतौर फैकल्टी के रूप में रहीं। उन्होंने 1990 के दशक में
बीएचयू में संगीत अध्यापन का कार्य किया। गिरिजा देवी अपने गायन के कारण बहुत व्यस्त रहती थीं पर इसके बावजूद उन्होंने
कई विद्यार्थियों को संगीत की शिक्षा दी जिसमें मालिनी अवस्थी, सुनंदा शर्मा, शालिनी त्रिपाठी शामिल हैं। उनके विद्यार्थी वर्तमान में संगीत दुनिया में बडा़ नाम कर रहे हैं। अपने जीवन के अंतिम समय में भी वह संगीत साधना में लगी रहीं। 88 साल की उम्र में जब देश के अलग-अलग हिस्सों में उनके संगीत कार्यक्रम होने की योजना बनी हुई थी तब कलकत्ता में उन्होंने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। तमाम रूढ़ियों के बावजूद गिरिजा देवी ने अपने गायन से भारतीय संगीत को समृद्ध किया, उन्हें उनके गायन के लिए सदैव याद रखा जाएगा।


स्रोतः

  1. Wikipedia
  2. iloveindia
  3. Outlook
  4. Economic Times

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