यह 19वीं सदी के बाद का समय था। उस समय समाज में ज़्यादातर महिलाएं घरों में ही दिखायी पड़ती थी। महिलाओं में शिक्षा का बहुत चलन नहीं था। समाज की यही अवधारणा थी कि शिक्षा तो महिलाओं के लिए हैं ही नहीं। ऐसा समझे भी क्यों ना? दशकों से महिलाएं को शिक्षा जैसी बुनियादी अधिकारों से दूर रखा गया और घरेलू जीवन तक सीमित किया गया था। जैसे ही बेटियों को जन्म होता था, उनकी छोटी उम्र में शादी रचा देते थे। जैसे आज बच्चों को स्कूल भेजना ज़रूरी है, वैसे ही महिलाओं का घर के काम, सामाजिक मानदंडों के अनुसार चलना ज़रूरी होता था।
घर से लेकर ससुराल तक उन्हें ऐसी ही सीख मिलती थी। सती प्रथा के अंतर्गत महिलाओं को विधवा होने के बाद जीवन समाप्त करने का समाज आशा रखता था। इसी दौर में सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले और फ़ातिमा शेख जैसे कई समाज सुधारक के कठोर परिश्रम की वजह से महिलाओं को शिक्षा का अधिकार मिला। हालांकि तब भी महिलाओं का शिक्षित होना, पढ़ना या पढ़ने का चलन बहुत कम था और इसके लिए बहुत लड़ाइयां लड़नी पड़ती थी।
समाज के लिए महिलाओं के हाथ में पटिया और चाक लेकर पढ़ाई करना अस्वीकार्य थी। ऐसे ही दौर में महाराष्ट्र के सातारा ज़िला के अष्टे गाँव में जन्म हुआ मराठी भाषा की पहली महिला उपन्यासकार और पहली लेखिका काशीबाई कानिटकर का। उन्होंने उस जमाने से कई कदम आगे की सोच को अपने लेखनी से व्यक्त किया और लिखे गए साहित्य को महिलाओं समेत सभी के लिये उपलब्ध रखा।
काशीबाई के लेखन की शुरुआत
उस जमाने में पुणे के प्रार्थना सभा में हर रविवार, महिलाओं की सभा हुआ करती थी। वहां आने वाली सभी महिलाएं आधुनिक रहन-सहन वाली, आज़ादी से आत्मविश्वास से चलने-फिरने वाली थी और काशीबाई को लगता था कि इन सब महिलाओं में सिर्फ़ वो ही गांव की हैं। इस सभा में विविध विषयों पर व्याख्यान, चर्चा सत्र हुआ करते थे। लेकिन कुशाग्र बुद्धि की काशीबाई ने देखा कि ये महिलाएं सिर्फ़ बाते सुनती हैं ना कि बोलती हैं। तब काशीबाई को लगा कि महिलाओं को भी बोलने और अपने विचार रखने, प्रश्न पूछने के अधिकार होने चाहिए। सभी महिलाओं को किसी विषय पर निबंध लिखने के लिए कहे जाने पर काशीबाई ने ‘धरती की आकर्षण शक्ति और ग्रहण कैसे लगता है’ इस विषय पर निबंध लिखा। ख़ास बात ये था कि सभा में सिर्फ़ काशीबाई ने ही निबंध लिखा था। उसके दूसरे हफ़्ते महिलाओं को ‘पहले जमाने की महिलाएं और अभी की महिलाओं’ पर निबंध लिखने को कहा गया। इस बार भी काशीबाई ने अकेले इस निबंध को लिखा था। यहीं से काशीबाई का पहला स्वतंत्र लेखन की शुरुआत हुई जो कि साल 1881 में ‘सुबोध पत्रिका’ में छापा गया था। इस घटना से काशीबाई के लेखन के प्रति इच्छा और लगन का पता चलता है।
लेखन में समय से आगे चलने की झलक
काशीबाई यह महसूस कराती हैं कि प्रश्न पूछे जाने चाहिए और उन पर बात भी की जानी चाहिए। उनका उस समय की तुलना में लेखन का कुछ हद तक विद्रोही रवैया रहा। उनकी कहानियों और उपन्यासों में यह विद्रोही भाव प्रकट होता है। उनके कहानियों में नायक-नायिका शादी कर लेते हैं। एक-दूसरे के साथ खूबसूरत पार्क में घूमते हैं। तत्कालीन समय को ध्यान में रखते हुए यह लेखन प्रगतिशील मानी जाती है। अपने पति गोविंदराव के साथ रहते हुए, काशीबाई को कई विषयों में दिलचस्पी होने लगी। वे मधुर गाना गाया करती, कविताएं लिखा करती थी और कुछ वाद्ययंत्र भी बजाया करती। जिस जमाने में पति-पत्नी को सबके सामने एक-दूसरे से बात करने की भी इजाजत नहीं थी, कहा जाता है कि ये दोनों नदी किनारे घूमने जाया करते थे। एक साथ बैठकर चाय पिया करते थे। इस मानसिकता की झलक काशीबाई के लेखन में भी दिखाई पड़ती है।
कैसे बनी मराठी भाषा की पहली महिला उपन्यासकार
हालांकि उनकी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, लेकिन अपने पति के प्रोत्साहन से काशीबाई ने घर पर ही शिक्षा प्राप्त की। साल 1884 में काशीबाई ने ‘रंगराव’ नाम से अपने पहले उपन्यास के प्रकरण को लिखकर उसे प्रकाशित करने की शुरुआत की और इस उपन्यास ने उन्हें मराठी भाषा की पहली महिला उपन्यासकार की पहचान दी। हालांकि ये सफ़र काशीबाई के लिए आसान नहीं रहा। उन्हें अपने ससुराल के लोगों से काफी अवहेलना झेलना पड़ा। काशीबाई ने अनेक तरह के लेखन किए जिनमें अनुवाद, कथासंग्रह, ख़ुद के जीवन की आत्मकथा, प्रतिवेदन, लेख जैसे विधाएं शामिल थीं। अपने लंबे लेखन के अलावा, काशीबाई ने लघु कथाओं के संग्रह भी लिखे। साल 1889 में ‘शेवत तार गोड ज़ला’ और साल 1921 में ‘चंदनयातिल गप्पा’ प्रमुख हैं।
रूढ़िवादी परिवार में काशीबाई का बचपन
एक धनी ब्राह्मण परिवार में जन्मी काशीबाई घर में सबसे छोटी थी। उन्हें बचपन से घुड़सवारी और तलवारबाजी और कई ऐसे खेल पसंद थे जो समाज महिलाओं को खेलने की इजाजत नहीं देता। कथित रूप से सिर्फ पुरुषों के लिए बनाए गए खेल उन्हें विशेष रूपसे पसंद थे। काशी के पिता की नौकरी ऐसी थी कि उन्हें हमेशा दूसरे गांवों में जाना होता था। उनके घर पर भी स्त्री शिक्षा के लिए कुछ ख़ास महत्व नहीं था। जब काशी के पिता की बदली पंढरपुर हुई, तब उनके घर के सामने एक विद्यालय था जहां घर के लड़के पढ़ने जाते थे। उनके पिताजी की थोड़ी बहुत इच्छा होते हुए भी काशी को विद्यालय नहीं भेजा गया।
काशीबाई का बाल विवाह और शिक्षा की शुरुआत
साल 1870 में 16 वर्षीय उच्च शिक्षा ग्रहण कर चुके गोविंद वासुदेव कानीटकर की शादी 9 वर्षीय काशीबाई के साथ हो गई। आधुनिक सोच वाले, अंग्रेज़ी शिक्षण और साहित्य पढ़ चुके गोविंद ने काशीबाई को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। गोविंद और काशी पुणे स्थित हुए तो गोविंद उन्हें कई चीज़ों के बारे में बताया करते। उन्हें विज्ञान की छोटी-छोटी पुस्तिकाएं ला कर देते थे। इस समय गोविंद संस्कृत भाषा में बी.ए की पढ़ाई कर रहे थे। औपचारिक शिक्षा ना लेने के कारण काशी अपने पति से विविध विषय की जानकारी आत्मसात किया करती और सिर्फ़ 20 साल की उम्र में काशीबाई का पहला लेख प्रकाशित हुआ।
विभिन्न विधाओं में लेखन
उन्हें मनोरंजन, नवयुग, विविध ज्ञान विस्तार सहित कई पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया था, जिसमें उन्होंने अपने करीबी दोस्त और प्रसिद्ध भारतीय लेखक, हरि नारायण आप्टे की यादों पर एक निबंध लिखा। उन्होंने संस्कृत नाटक भी पढ़े। वह अंग्रेजी भी सीख रही थी। इसके अतिरिक्त, 1927 में, काशीबाई ने जिद्दू कृष्णमूर्ति द्वारा लिखित दार्शनिक पाठ एट द फीट ऑफ द मास्टर का अंग्रेजी से मराठी में अनुवाद पूरा किया, जिसका नाम बदलकर गुरुपदेश रखा गया। गोविंदराव कानिटकर और काशीबाई ने मिलकर मनोरंजन और निशानचंद्रिका नामक पत्रिका भी शुरू की। काशीबाई की डॉ. आनंदीबाई जोशी की जीवनी मराठी सचित्र साहित्य में एक महत्वपूर्ण कृति बन गई है। काशीबाई का आधुनिक मराठी साहित्य की पहली महिला उपन्यासकारों के रूप में लेखन में संक्षिप्त शैली, चरित्र-चित्रण और समकालीन स्त्रीत्व की सूक्ष्म समझ उल्लेखनीय पहलू हैं।
उन्होंने बहुत ही स्पष्टता से अपने लेखन के माध्यम से आदर्श पति-पत्नी के रिश्ते, महिलाओं की स्वतंत्रता के विचार को समाज के सामने प्रस्तुत किया और समय-समय पर इसे अपने जीवन में वास्तविकता में भी उतारा। अपनी लेखनी से दुनिया को रोशन करने वाली काशीबाई का जीवन निश्चित रूप से आज भी समाज के लिए प्रेरणास्रोत है। काशीबाई कानिटकर का साल 1948 में सत्तासी वर्ष की आयु में निधन हो गया।
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