संस्कृतिसिनेमा गुठली लड्डू: जातिवादी समाज में शिक्षा पाने के संघर्ष को दिखाती कहानी

गुठली लड्डू: जातिवादी समाज में शिक्षा पाने के संघर्ष को दिखाती कहानी

इशरत आर. खान द्वारा निर्देशित फिल्म गुठली लड्डू भारतीय जातिवादी समाज में एक बच्चे द्वारा तमाम जातीय बाधाओं के बीच खुद को स्कूल में दाखिल करवाने की कहानी है। फिल्म की कहानी वाल्मीकि समाज के दो बच्चों गुठली और लड्डू के साथ आगे बढ़ती है। 

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा ‘झूठन’ में लिखते है कि जब वह पहली बार स्कूल में दाखिल होते हैं तो उन्हें बच्चों के बीच देख मास्टर चिल्लाकर बुलाते है और कहते है कि ये ले झाड़ू और पूरे स्कूल को शीशे की तरह चमका दो, वैसे भी तुम पढ़-लिखकर क्या करोंगे। फिल्म ‘गुठली लड्डू’ देखते हुए सबसे पहले यही ख्याल आता है कि लोकतांत्रिक भारत में जाति के आधार पर एक व्यक्ति को कितने भेदभाव का सामना करना पड़ता है।  

देश के संविधान के तहत शिक्षा सबका समान अधिकार है। संविधान के अनुसार राज्य छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा। यह प्रावधान केवल प्रारंभिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाता है। इशरत आर. खान द्वारा निर्देशित फिल्म गुठली लड्डू भारतीय जातिवादी समाज में एक बच्चे द्वारा तमाम जातीय बाधाओं के बीच खुद को स्कूल में दाखिल करवाने की कहानी है। फिल्म की कहानी वाल्मीकि समाज के दो बच्चों गुठली और लड्डू के साथ आगे बढ़ती है। नाम की तरह ही लड्डू सेहतमंद और खाने का शौकीन लड़का और गुठली शरीर में कमजोर सा दिखने वाला है। लड्डू के दिमाग में सिर्फ लड्डू ही रहते हैं जबकि गुठली आते-जाते वाहनों पर लिखे शब्दों को जमीन पर लिखकर अपने भीतर पढ़ने-लिखने की ललक जगाए हुए है।

पढ़ाई में बहुत रूचि रखने वाला गुठली अक्सर गाँव के खंडहर हो चुके स्कूल में समय बिताता है। वहां टूटे-फूटे, खुरदुरे हो चुके श्यामपट्ट पर गुठली, लड्डू हिंदी वर्णमाला आदि लिखता रहता है। लड्डू भी हर समय उसके साथ ही रहता है।

उनके गाँव में एक सरकारी स्कूल था जो काफी समय से बंद पड़ा है और एक खंडहर में तब्दील हो चुका है। अब गाँव में चौबे जी का एक प्राइवेट स्कूल है जिसकी सालाना फीस गरीब परिवार के बस से बाहर है। इतना ही नही इससे भी बड़ी दीवार खुद चौबे जी हैं जो दलितों के बच्चों को स्कूल में पाँव नहीं रखने देना चाहते है हालांकि जब वही बच्चे अगर स्कूल के शौचालय की सफाई करने आएं तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती है। क्योंकि उनका मानना है कि जैसे ब्राह्मणों का काम पढ़ना-पढ़ाना है वैसे ही दलितों का काम सफाई करना है।

फिल्म गुठली, लड्डू या कोई और दलित बच्चा स्कूल में दाखिला ले पाता है या नहीं, जाति के आधार पर बंटे काम यानी नालों की सफाई और स्कूल में पढ़ने की इच्छा के संघर्ष के इर्द-गिर्द बुनी हुई है। पढ़ाई में बहुत रूचि रखने वाला गुठली अक्सर गाँव के खंडहर हो चुके स्कूल में समय बिताता है। वहां टूटे-फूटे, खुरदुरे हो चुके श्यामपट्ट पर गुठली, लड्डू हिंदी वर्णमाला आदि लिखता रहता है। लड्डू भी हर समय उसके साथ ही रहता है। दोनों अक्सर छिप-छिपाकर गाँव के प्राइवेट स्कूल में जाने की भी कोशिश करते जिसके दरवाजे उनके लिए महज उनकी जाति की वजह से बंद कर दिए गए हैं। 

तस्वीर साभारः Khaleej Times

वह खिड़की से कक्षा में हो रही पढ़ाई को देखता तो मास्टर उसे चॉक मारकर भगा देता है। वहीं एक-दूसरी क्लास में मैडम पढ़ा रही होती है। वहां भी गुठली अक्सर खिड़की में खड़े होकर कक्षाएं सुनता रहता था। कक्षा में पढ़ाने के दौरान टीचर बच्चों से पूछती है कि बताओ आकाश में तारे क्यों होते हैं? सब चुप हो जाते हैं लेकिन गुठली कक्षा से बाहर खिड़की से ही अपना हाथ उठाता है और सही जवाब बताता है। टीचर कक्षा से कहती है कि तुम सब अंदर होते हुए भी कक्षा से बाहर हो और वो कक्षा से बाहर होते हुए भी अंदर है। इतनी देर में उन्हें देखते ही स्कूल का चपरासी और हेडमास्टर हरिशंकर उन्हें भगा देता है। 

इसी तरह छिप-छिपकर कई बार गुठली स्कूल पहुंच जाता है। 26 जनवरी के दिन स्कूल में कार्यक्रम होता है और गुठली भी स्टेज पर जाने का प्रयास करता है। इस बीच दूसरे सब बच्चे उसे रोकते हैं लेकिन वह उनसे छूटकर स्टेज पर जा पहुंचता है। उनमें से एक उसे जातिसूचक शब्द कहकर चिड़ाता है। गुठली वहीं से जवाब देता है और दर्शकों की ओर देखकर बोलते हुए कहता है कि हर बार हमको हमारी जाति के नाम से कहकर बुलाते हैं और हरि (हेडमास्टर) भी हमें स्कूल में नहीं आने देते है। वह कहते है कि हम हरिजन हैं, दलित हैं, हमारे बापू गटर, नाली साफ करते हैं, लेकिन उसका हमारे पढ़ने-लिखने से क्या मतलब है। हमें भी आता है वो वायुमंडल, गणित, 1,2,3,4,5,6 हम 50 तक गिन सकते हैं और 4-4 कविताएं आती है, फिर भी नाटक करते हैं और हमारे पास स्कूल का कपड़ा भी है, ले लो ना, हमें स्कूल में ले लो ना, हम भी पढ़ें लिखें।

गुठली वहीं से जवाब देता है और दर्शकों की ओर देखकर बोलते हुए कहता है कि हर बार हमको हमारी जाति के नाम से कहकर बुलाते हैं और हरि (हेडमास्टर) भी हमें स्कूल में नहीं आने देते है।

सबके सामने गुठली की बातों को सुनकर चौबे और हेडमास्टर दबे हुए बैठे थे कि उनकी पोल खुल गई है। इसके बाद कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आए एक बड़े शिक्षा अधिकारी तालियां बजाते है और कहते है कि बच्चे ने क्या प्रस्तुति दी है ऐसा लगता है कि दलित का ही बच्चा है। इस तरह से संघर्ष जारी रहता है। गुठली के पिता मंगरू निगम की ओर से दिहाड़ी पर शहर के नाली साफ करते हैं। उनके जीवन की दो घटनाएं उन्हें बदल देती हैं। जहां एक बार वह चाय पीने एक टपरी पर जाते हैं वहां दलितों के लिए अलग से कप रखे थे। चाय पीते हुए वह कप टपक रहा था तो मंगरू टपरी से दूसरा गिलास उठा लेते हैं इतने में चाय वाला यह कहते हुए उसकी बुरी तरह पिटाई कर देता है कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई एक दलित होते हुए गिलास को छूने की।

दूसरी बार इसी तरह वे सब निगम दफ्तर में कुछ काम से जाते हैं, वहां एक अधिकारी उनसे प्यार से बात करता है और कहता है कि हमारी जाति में फर्क नहीं है बस मैं पढ़ लिख गया और अच्छी नौकरी पर हूं। मंगरू को समझ आ जाता है कि पढ़ाई-लिखाई जीवन में क्या कर सकती है। इसके बाद गुठली की माँ रानिया उसे स्कूल भेजने के लिए तैयार हो जाती हैं। फिल्म में लड्डू के साथ क्या हुआ, गुठली स्कूल जा पाया या नहीं इन सभी सवालों के जवाब के लिए बेहतर है कि फिल्म देखनी चाहिए। 

तस्वीर साभारः Flikonclick

फिल्म में सभी ने बेहतरीन काम किया है। गुठली के किरदार में धन्य सेठ हैं जिनकी मासूमियत इस किरदार को पूरा बनाती है। हेडमास्टर हरिशंकर के रूप में संजय मिश्रा हैं जो बाद में अप्रत्यक्ष रूप से गुठली को पेड़ बनने में मदद करते हैं। मंगरू का किरदार सुब्रता दत्त ने बड़ा ही उम्दा निभाया है। फिल्म में एक सीन है जब मंगरू बुरी तरह टूट जाते हैं और गुठली को स्कूल भेजते हैं, पढ़ने के लिए नहीं टॉयलेट की सफाई के लिए। जो बच्चा कभी किसी की पुरानी यूनिफॉर्म पहनकर स्कूल पहुंच जाता है तो कभी अपने दोस्त लड्डू के साथ छिपकर पहुंचता है, जिसका सपना स्कूल में बैठकर पढ़ने का था जब वह हाथ में झाड़ू लेकर स्कूल में दाखिल होता है तो आँखें भर देने वाले पल होते हैं। फिल्म के ऐसे दृश्य एक तरफ बांधे रखते है साथ ही सोचने पर भी मजबूर करते है। 

यह फिल्म में एक गंभीर मुद्दे पर बात की गई है जो उस वास्तविकता से परिचय कराती है जिससे यह देश नज़र चुराता रहता है। क्योंकि यह कहानी उस कडवे सच को भी दिखाती है कि कैसे जाति हमारे देश में लोगो के जीवन को प्रभावित करती है। तमाम प्रगतिशीलता के दाँवो को खोखला बताते हुए यह फिल्म जातिवादी समाज में हाशिये के समुदाय से आने वाले संघर्षों को दिखाने के लिए उन चुनिंदा फिल्मों में से है जो मार्मिकता से संघर्षों को पर्दे पर दिखाने में कामयाब हुई है। हालांकि तकनीकी पहलू से पर्दे पर बुंदेलखंडी समाज में बुनी इस कहानी को और बारीकी से पर्दे पर उतारा जा सकता था। 


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