आज के युवाओं से बात करें, तो वे निश्चित रूप से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को पहचानेंगे। ये वही युवा है जिनके पास अपने पसंद की नौकरी के क्षेत्र में से चुनने के लिए देश में कोई रोल मोडल मौजूद नहीं है। अब कुछ दिन पीछे चलते हैं। याद कीजिए कोरोना महामारी का समय। कौन भूल सकता है मुसीबत और अनिश्चितता के उन दिनों को। लोगों ने अपनों को खोया, अपनी बीमारियां मैनेज की और लाखों लोग चिकित्सा की कमी से जूझते भी रहे। वहीं इन सब में वैक्सीन की होड़ और वैक्सीन पर राजनीति लगी रही। लेकिन सारे घटनाओं के बीच जो निश्चित कारक रहा, वह था हमारे वैक्सीन प्रमाण पत्र पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर।
पिछले दिनों मेनस्ट्रीम मीडिया की खबरों और राजनीतिक पार्टियों के गतिविधियों से ऐसा लग रहा होगा कि पूरा देश राम मंदिर के उद्घाटन के जश्न में डूबा है। कुछ हेडलाइन्स पर गौर कीजिए। इसरो ने जारी किया राम मंदिर की भव्य तस्वीरें। राम लल्ला अराईसेस इन अयोध्या। आईए जानें कौन-कौन बॉलीवुड अभिनेता पहुंचे राम लल्ला के प्राण प्रतिष्ठा में। क्या है प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अयोध्या में पूरा शेड्यूल। ये सारे हेडलाइन्स आपको सुने-सुनाए लग रहे होंगे। अब कुछ दूसरे हेडलाइन्स पर नजर डालते हैं। मुंबई में राम मंदिर उद्घाटन को लेकर मीरा रोड पर सांप्रदायिक हिंसा दूसरे दिन भी जारी रहा। राम मंदिर निर्माण: कम से कम 6 राज्यों में हिंसक घटनाएं। हैरानी हुई? लगा कि कब, क्यों या कैसे? अब कुछ सामान्य जीवन की घटनाओं पर नजर डालते हैं। 21 और 22 जनवरी दोनों दिनों पर कोलकाता के कई आवासीय परिसरों के अंदर लगातार धार्मिक भजन हुए और ‘मोदीजी की जय’ के नारे लगाए गए। यह नजारा कोलकाता के अलावा राजधानी दिल्ली सहित कई राज्यों में एक जैसे थे।
क्या बताती है देश की राजनीति
संभव है कि ये बातें न सिर्फ अटपटी बल्कि बेकार लग रही हो। हाल के कुछ वर्षों में हमने भारतीय राजनीति में व्यापक बदलाव देखें हैं। देखा जाए तो आज भी कई ऐसे लोग हैं जिनके विचार से धर्म और राजनीति बिल्कुल अलग है। लेकिन असल में जब हम आज के राजनीति को देखते हैं, तो साफ तौर पर न इससे धर्म अलग दिखता है न जाति। खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले भाजपा शासित देश में जहां लगभग 17 राज्यों ने 22 जनवरी को दफ्तर, स्कूल, कॉलेज या अन्य संस्थान बंद रखे। वहीं ऐसे कई राज्य थे जिनके लिए वह एक सामान्य कामकाजी दिन था। एक ऐसे समाज में जो धार्मिक मान्यताओं द्वारा शासित होता है, वहां सभी नीतिगत बहस और शासन की धारणा संवैधानिक मूल्यों से दूर जाता नजर आता है।
प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने कथित रूप से जाति और धर्म के नैरेटिव को तोड़ने की कोशिश की है और इसकी जगह ‘राष्ट्रवाद’ की राजनीति को अपनाया है। लेकिन इसके उलट, देश का लगातार न सिर्फ मानवाधिकार के उल्लंघन की घटनाओं में बल्कि गरीबी और भुखमरी जैसे समस्याओं में भी वैश्विक स्तर पर पायदान गिरा है। साथ ही यह समझने वाली बात है कि जिस ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषा हमें सिखाई जा रही है उसमें संवैधानिक मूल्यों और बुनियादी मानवाधिकारों की कितनी जगह है।
धर्म का नया पर्याय और चुनावी राजनीति
देश के लिए राम मंदिर का निर्माण को ऐतिहासिक पल बताने में केंद्र सरकार ने पुरजोर कोशिश की। फूल की बारिश हुई, भव्य आयोजन हुए और करोड़ों रुपए खर्च किए गए। हालांकि भारत की आम जनता के राम मंदिर के सपने को पूरा करने वाले की पदवी मीडिया ने प्रधान मंत्री मोदी को बहुत पहले ही दे दी थी। लेकिन अयोध्या में मंदिर का उद्घाटन भारतीय इतिहास के एक अध्याय को लगभग बंद कर देता है, जिसके बारे में बहुत से लोगों विशेष कर युवाओं को शायद पता नहीं। ये एक ऐसी घटना थी जिसने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण फेरबदल किया। भाजपा के; विशेषकर नरेंद्र मोदी के लोकप्रियता से थोड़ा पीछे चलें, तो राम मंदिर से जुड़ी राजनीति और भाजपा और काँग्रेस की खींचा-तानी का लंबा इतिहास रहा है।
साल 1990 में, गुजरात के प्रभास पाटन से भाजपा के प्रवर्तक नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर के लिए जन समर्थन जुटाने के लिए रथ यात्रा शुरू की थी। यह एक ऐसी घटना जिसने गुजरात और देश की राजनीति का चेहरा हमेशा के लिए बदल दिया था। राजनीति और बॉलीवुड या राजनीति और उद्योगपतियों में हमेशा से गहरा रिश्ता रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में खास कर डिजिटल युग के चलन से, हमने राजनीतिक विचारधारा पर ऑनलाइन और ऑफलाइन झगड़े, विवाद और यहां तक कि कर्फ्यू, दंगे और कोर्ट केस होते हुए भी देखें हैं।
मीडिया में आई खबरों के अनुसार पिछले दिनों राम मंदिर के उद्घाटन से शंकराचार्यों की नाराजगी और भाजपा का इसपर चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। हालांकि चंद्रयान से लेकर संसद भवन और कोरोना के वैक्सीन तक, हमें देश के विकास के रूप में सिर्फ एक ही चेहरा नजर आता है। आज जिस तरह देश ‘विश्व गुरु’ और विश्व गुरु का पर्याय ‘नरेंद्र मोदी’ बन गए हैं, इसके पीछे भाजपा की सोची-समझी रणनीति रही है। चाहे बुलेट ट्रेन हो या गंगा नदी की सफाई, देश एक ही चेहरे को पहचानता है। दुनिया में भारत का चेहरा बदलने का प्रयास करने के दावों के साथ भाजपा सरकार ने इसके लिए कई कोशिशें की। इन प्रयासों में मोदी का विदेशी नेताओं को गले लगाना, तस्वीरें लेने जैसे कई चीज़ें शामिल थी जो आम लोगों में नैरेटिव तैयार करने में कामयाब रही। लेकिन, आने वाले दिनों में चुनाव के मद्देनजर शायद भाजपा के लिए निर्माणाधीन मंदिर का उद्घाटन करना और इसका राजनीतिकरण करना देश के असल विकास के बजाय चुनावी मुद्दों को स्पष्ट करती है।
क्या धर्म ही होगा विकास का मुद्दा
बीते सालों में भाजपा ने सत्ता में रहने के फ़ायदों में देश में धार्मिक सहिष्णुता, धर्म निरपेक्षता और लोगों के सुरक्षा के दावे किये हैं। लेकिन देश में हुए विभिन्न सांप्रदायिक दंगे, असहिष्णुता और मांसाहारी खानों की बिक्री पर प्रतिबंध जैसी घटनाएं इसके उलट गवाही देते हैं। उदाहरण के लिए, अयोध्या से 1400 किलोमीटर दूर असम में बीजेपी सरकार ने 22 जनवरी के अवसर के लिए कई कदमों की घोषणा की थी। इसमें राज्य भर में उस दिन ड्राई डे, शाम 4 बजे तक मांस और मछली के बिक्री पर प्रतिबंध और होटलों में दोपहर 2 बजे तक मांसाहारी भोजन परोसे जाने पर निषेध शामिल था। बीजेपी केंद्र और राज्यों में सुरक्षा और हिंसा मुक्त प्रदेश के दावे भी करते रही है। लेकिन, इसके उलट अगर सिर्फ भाजपा के मॉडल राज्य गुजरात की भी बात करें, तो गुजरात में 2002 के बाद भी कई सांप्रदायिक दंगे हुए हैं। न्यूजक्लिक में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार उनका स्थान केवल शहरी से ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानांतरित हुआ है।
क्या मानवाधिकार और मीडिया के स्वतंत्रता का महत्व नहीं
हालिया दिनों में केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में भी हमें आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिले हैं। छात्र संघ के प्रदर्शनों पर रोक, बॉलीवुड और उद्योगपतियों का राजनीतिकरण केंद्र सरकार ने नीतिगत रूप से किए हैं। भाजपा के 2014 के अभियान ने दौरान यूपीए-2 सरकार की पृष्ठभूमि में लोगों से ‘अच्छे दिन’ का वादा किया था। भाजपा सरकार के लिए यह जरूरी था कि वह लोक समाज में लोगों के विश्वास और धर्म के आधार पर ही सही, लेकिन यह साबित कर दे कि अच्छे दिन आ चुके हैं। हालांकि धर्म और आस्था एक निजी विषय है, लेकिन देश की मौजूदा स्थिति बताती है कि यह निजी से चुनावी विषय बन चुकी है। पिछले वर्षों में, भारतीय मीडिया की कहानी भी मजबूत ग्राउन्ड रिपोर्ट, चर्चाएं, और आलोचनात्मक विश्लेषण से बदलकर लगभग सरकार के प्रचार में बदल गई है। हालांकि मोदी सरकार के तमाम खबरों के बीच मीडिया के स्वतंत्रता पर चोट की खबरें या तो कम दिखी या इन्हें न दिखाने की कोशिश कामयाब रही।
लेकिन द न्यूज मिनट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में एक अध्ययन ‘गेटिंग अवे विद मर्डर’ पर चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि 2014 और 2019 के बीच पत्रकारों पर लगभग 198 गंभीर हमले दर्ज किए गए। इनमें 36 केवल साल 2019 में हुए। इस अवधि के दौरान 40 पत्रकार भी मारे गये। साल 2014 से ही नरेंद्र मोदी सरकार एजेंडा या राजनीतिक नैरेटिव तैयार कर रहे हैं। कहीं सोशल मीडिया, तो कहीं बयानबाजी तो कहीं रणनीतियों से केंद्र सरकार ने भाजपा का पर्याय नरेंद्र मोदी को बनाने में सफलता हासिल की है। जरूरी है कि हम केवल सोशल मीडिया पर संविधान की तस्वीरें नहीं, असल जीवन और राजनीति में भी संवैधानिक मूल्यों को आधार बनाए।