इस बात में कोई दो राय नहीं है कि 21वीं सदी में इतिहास का व्यापक नज़रिया तलाशने का श्रेय समाज में हाशिये पर मौजूद तमाम वंचित समूहों को जाता है। मुख्यधारा का इतिहास मूल रूप से उच्च और कुलीन तबके की गाथाओं से भरा हुआ है। ऐसी परिस्थिति में इतिहास दलित, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, मजदूर, आदि समूहों के पदचिन्हों पर निरंतर गौर करने और पुराने व नये स्रोतों की गंभीर जांच और पुनर्व्याख्या करने की महत्व और ज़रूरत को बयान करता है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आंदोलनों में दलित वीर और वीरांगनाएं उनके समाज के लिए गर्व का तो विषय है। साथ ही सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक अस्तित्व के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। फिर भी दलितों के ये वीर और वीरांगनाएं इतिहास के पन्नों से भी वंचित रहे।
ब्रिटिश काल के इतिहास में एक चरण जिसे दलित गौरव की भावना से देखते हैं वह है 1857 का विद्रोह जिसे पहला स्वतंत्रता संग्राम के नाम से भी जाना जाता है। इसे समुदाय के बीच एक स्मरणीय घटना के रूप में याद किया जाता है। क्रांति में शामिल दलित सेनानियों से संबंधित तमाम नैरेटिव/आख्यान और स्मृतियाँ उभरकर सामने आती हैं। जिसको इतिहास में आज भी कम जगह दी गई है। समुदाय के लिए 1857 के दलित सेनानियों के नैरेटिव और वृतांत अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए उनकी भागीदारी और राष्ट्रवादी नेतृत्व को साबित करने का प्रतीक रहे हैं। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम मातादीन, झलकारी बाई, चेतराम जाटव, बल्लूराम, उदा देवी, महावीरी देवी, बांके आदि दलित समुदाय के बहादुर वीर-वीरांगनाओं के किस्सों से भरा हुआ है।
दलित साहित्य की चेतना ने दिया दलित इतिहास को आकार
1857 की क्रांति में उभरने वाले दलित नैरेटिव दलित साहित्य के उदय के साथ सामने आया। यह 60 का दशक था। जब दलित साहित्य भारतीय जाति व्यवस्था की शोषणकारी प्रकृति के परिणाम के रूप में उभर रहा था। हाशिये पर पड़े उत्पीड़ित लोगों की बेबाक आवाज़ के साहित्य ने इतिहास को सामाजिक न्याय के कटघरे में रखा। यह 60 का वह दशक था जहां दक्षिण भारत में एकेडेमिक के क्षेत्र में ‘सबाल्टर्न दृष्टिकोण’ जन्म ले रहा था। जिसने भारत में दलित चेतना को आगे बढ़ाने का काम किया और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दलितों के योगदान को खोजने का एक प्रयास किया जाने लगे, जो प्रयास आज सुस्त पड़ गया है। सबाल्टर्न दृष्टिकोण’ इतिहास को हाशिए पर रहने वाले लोग और वंचित समूहों के नज़रिये से दोबारा लिखे जाने का प्रयास है। इसे हम ‘हिस्ट्री फ्रॉम बिलो’(History from Below) के रूप में भी देख सकते हैं जिस विचार की शुरुआत 18वीं सदी में हुई थी।
स्वतंत्रता संग्राम में मुख्यधारा के वीर और वीरांगनाओं को कई किताबों, अखबारों, और आम बोलचाल के दौरान अक्सर पढ़ा और सुना जाता है। वहीं दलित वीर और वीरांगनाओं के स्वतंत्रता से जुड़े ऐतिहासिक संदर्भ को परखने में शोध की कमी रही है। न केवल इससे जुड़ी कृतियों और सामग्रियों के प्रकाशन के उत्पादन में कमी दिखाई देती है, बल्कि दलितों के लिए कुछ ही सीमित प्रकाशन हैं जो दलित वीर और वीरांगनाओं की सामग्रियां निकालते हैं। एक शोध यह बात जाहिर करता है कि आज के दलित साहित्य में उनकी छवियों, आदर्श और नैरेटिव की कमी है जिसे साहित्य में अधिक स्थान देने की ज़रुरत है ताकि एक नये दलित सौंदर्यशास्त्र की नींव रखी जा सके।
1857 की क्रांति और मातादीन से जुड़ी कहानी
दलित इतिहास का जिक्र करते हुए वीर मातादीन का ज़िक्र किया जाना जरूरी है, जिनसे जुड़े एक आक्रोश ने मार्च 1857 की क्रांति को जन्मा था। इस वृतांत के बारे में इतिहासकार द्वारा बेहद कम चर्चा की गई। इतिहासकारों का यह पक्षपाती नजरिया रहा है जो स्पष्ट तौर से इतिहास को ‘हीस्ट्री फ्राम अब्व’ (History from Above) के तरीके से लिखने में अधिक दिलचस्प रहे। यदि इस घटना का विश्लेषण एक दलित के बिन्दु से किया जाए, तो मातादीन इस घटना में दो सामाजिक श्रेणियों का विरोध करते हुए दिखाई देते हैं। पहला, जातिवाद और दूसरा, ब्रिटिश साम्राज्य के सिपाही। पहले तो मातादीन के कथित नीची जाति से होने के कारण ब्रिटिश सिपाही मंगल पांडे द्वारा जातिवादी रवैया बरता जाता है।
वहीं मंगल पांडे के कथित ऊंची जाति से होने से गाय और सूअर की चर्बी से तैयार किए जाने वाले कारतूसों का इस्तेमाल करने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है, जिसे लेकर वह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खड़े होते हैं। यह किस्सा असल में समाज में उस वक्त मौजूद जातिवादी व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करता है जिसपर कोई विद्वान गौर करना ज़रूरी नहीं समझते हैं। कई विद्वानों का मानना है कि मंगल पांडे ब्राह्मणवादी शुद्धता और अपने स्थानीय सामाजिक पदानुक्रम में अपनी स्थिति खोने के विचार से क्रोधित थे। इस ब्राह्मणवादी शुद्धता का एहसास मातादीन कराते हैं, जो बदले में जातिवादी व्यवहार और भेदभाव का अनुभव करते हैं।
1857 की क्रांति में मातादीन की भूमिका
साल 1857 में स्वतंत्रता की पहली क्रांति में दलित क्रांतिवीर माने जाने वाले मातादीन की अग्रणी भूमिका रही है। इस पर कम बात की जाती है कि क्रांति का आधार छुआछूत और जातिवाद की घटना से ही तैयार हुआ। कुछ ऐसे इतिहासकार भी हैं जो लिखते हैं कि विद्रोह का आधार कथित नीची जाति थी। डी. सी. डिंकर की किताब ‘स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान’ के अनुसार, क्रांति की शुरूआत के संघर्ष की चिंगारी एक तथ्य पर आधारित किस्से से कुछ यूं शुरू होती है-
“बंगाल के बैरकपुर में कारतूस बनाने का एक कारखाना था। इस कारखाने में काम करने वाले कामगार दलित जाति से संबंध रखते थे। एक दिन उन्हीं में से किसी एक मजदूर को प्यास लगती है। वह पानी पीने के लिए एक ब्रिटिश सैनिक से पानी का लोटा मांगता है। वह सैनिक धर्मपरायण मंगल पांडे थे। मंगल पांडे ने मजदूर को पानी का लोटा देने से इंकार कर दिया। कारण यह था कि वह मजदूर दलित जाति से वास्ता रखता था। लोटा न मिलने से मजदूर को यह बात काफी अपमानजनक लगी। उसने मंगल पांडे को ललकारते हुए कहा, बड़ा आव है ब्राह्मण का बेटा, जिन कारतूसों का तुम इस्तेमाल करते हो उन पर गाय और सूअर की चर्बी लगावल जात है, जिन्हें तुम अपने दाँतों से तोड़कर बन्दूक में भरत हो। ऊ समय तुम्हारी जाति और धर्म वहाँ जावत ? धिक्कार तुम्हारे इस ब्राह्मणत्व को।”
“यह सुनकर मंगल पांडे हक्का-बक्का रह गए। वह मजदूर कोई और नहीं, मातादीन थे जिसने एक हिन्दुस्तानी सैनिक की आँखें खोल दी थीं और छावनी में स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी भड़का दी थी। जल्दी ही पूरी छावनी में मातादीन की बात की चर्चा आग की तरह फ़ैल गई। 1 मार्च, 1857 को सुबह की परेड के दौरान मंगल पांडे कतार से निकल कर अंग्रेजों पर भड़क उठे और धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने के बदले में उन पर अन्धाधुंध गोलियाँ बरसाने लगे। यही वह घड़ी थी जब अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह शुरू हुआ। इसी दौरान मंगल पांडे को घायल अवस्था में गिरफ्तार कर लिया गया। उनका कोर्ट मार्शल हुआ और सभी सैनिकों के सामने उन्हें 8 अप्रैल 1857 को फाँसी पर चढ़ाया गया। इसके बाद भारतीय सैनिकों की भावनाओं को रोकना मुश्किल हो गया। इसके बाद जो चार्जशीट बनाई गई उसमें सबसे पहला नाम मातादीन का था, जिसे बाद में गिरफ्तार कर लिया गया। सभी गिरफ्तार क्रान्तिकारियों का कोर्ट मार्शल हुआ। मातादीन पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजद्रोह का आरोप लगाया गया।”
स्वतंत्रता संग्राम में दलितों की महत्वपूर्ण भूमिका
इतिहास गवाह रहा है कि स्वतंत्रता संग्राम में कई दलित सेनानियों का योगदान रहा है। उनके लिए इन स्मृतियों के ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज करना असमान सामाजिक व्यवस्था के पटल पर लाकर फिर से वंचित बने रहने देने के बराबर होगा। आज़ादी के संघर्ष में न जाने ऐसे कितने ही दलित वीर-वीरांगनाएं रहे होंगे जो मुख्यधारा के स्वतंत्रता सेनानियों की तरह सामूहिक गर्व का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। हर तरह से उनकी स्थिति दयनीय होने के बावजूद उनमें मातृभूमि के लिए लड़ने का बल फिर भी मौजूद था। हालांकि दलितों के समस्त इतिहास की पक्षपात से रहित तस्वीर को सामने लाने और तमाम ज़रूरी स्रोतों की जांच परखता न्यायपूर्ण कदम हो सकता है। भारत और दुनिया की अधिकांश जनता बंगाल सेना में विद्रोह की कहानी को ही जानती है। ‘मंगल पांडे – द राइजिंग’ नाम से एक नाटकीय और रोमांटिक बॉलीवुड फिल्म भी बनाई गई थी। फिल्म में मातादीन की भूमिका को काफी नाटकीय ढंग से पेश किया जाता है जो असल किस्से से बिल्कुल अलग है।
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