कुर्रतुलैन हैदर द्वारा रचित उपन्यास ‘आग का दरिया’ भारत के 2500 सालों के इतिहास को बेहद खूबसूरती से दर्शाता है। कुर्रतुलैन हैदर ने इसे चार हिस्सों में बांटा है। पहला हिस्सा चंद्रगुप्त मौर्य के पहले से लगभग 400 ईसा पूर्व से शुरू होता है। दूसरा सलजुक साम्राज्य से शुरू होकर मुगलों के आगमन तक चलता है वहीं तीसरा ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर से जुड़ा है और चौथा सन 1930 से 1950 तक की बात करता है। इसमें लोगों का नहीं बल्कि पीढ़ियों का इतिहास है। इसमें वेद, उपनिषद, रामायण, जैन मत, बौद्ध मत और इस्लाम जैसे सारे मजहबों के विकासवादी इतिहास को दर्शाया गया है। इसमें भारत में सदियों से मौजूद लोगों की धार्मिक और सामाजिक नैतिकता और रहन-सहन पर बात की गई है। इस उपन्यास में लेखिका अंग्रेजों के आने से पहले के हिंदुस्तान के बारे में बताती हैं। देश में उस वक्त धर्म और संस्कृति कैसी थी और अंग्रेजों के आने के बाद क्या बदलाव हुआ या प्रभाव पड़ा। यह उपन्यास कांग्रेस, मुस्लिम लीग, पार्टीशन ,समाजवादी और कम्युनिस्ट जैसी विचारधाराओं के अलावा नई पीढ़ी की इंकलाब की ख्वाहिश की बात करती है।
विभिन्न किरदारों के तार को जोड़ती उपन्यास
लेखन की दृष्टि से देखें तो इस उपन्यास में कुर्रतुलैन ने एक नई तकनीक ‘स्ट्रीम ऑफ कॉन्सिसन्स’ का इस्तेमाल किया है, जो उर्दू लेखन में उनसे पहले किसी ने नहीं किया था। यह उपन्यास किसी निश्चित कहानी पर आधारित नहीं है, जो किसी एक ही उद्देश्य के साथ चलती रहे। यह बदलता रहता है और निरंतर चलता रहता है। इस उपन्यास के गौतम नीलांबर, चंपा, चंपक, हरिशंकर, निर्मला और कमाल कुछ अहम किरदार हैं जो उपन्यास के अलग-अलग हिस्सों में दिखाई पड़ते हैं। जैसे, गौतम नीलांबर कहीं त्याग के राह का राही बनकर आता है तो कहीं सरकारी मुलाज़िम और कहीं भारत में आजादी का पैरोपकार बनकर आता है। जबकि गौतम नीलांबर के उलट चंपा किसी दौर में साधारण घरेलू महिला हैं तो किसी दौर में चंपाबाई के नाम की सेक्स वर्कर और किसी हिस्से में सुशिक्षित और दृढ़ता से अपना मत रखने वाली चंपा अहमद बनकर आती है।
कुर्रतुलैन हैदर का काम और उपन्यास की बारीकियां
कुर्रतुलैन हैदर का जन्म 20 जनवरी 1927 में अलीगढ़ में पिता सज़्ज़ाद हैदर और माँ नज़र सज़्ज़ाद के घर हुआ। वो भारत में जन्मी और पली-बढ़ी, लेकिन विभाजन के बाद अपने घर वालों के साथ पाकिस्तान चली गई। 1961 में वो फिर से भारत वापस आईं और अपने आखिरी सांस तक भारत में रहीं। ये उपन्यास 1959 में प्रकाशित हुआ और अपने युग से आगे बढ़ते हुए आज एक ऐतिहासिक उपन्यास बन चुका है। वहीं इस उपन्यास की प्रस्तावना टी एच इलियट की कविता से ली गई है। इस उपन्यास में कुर्रतुलैन ने भी ‘समय’ को मुख्य भूमिका में रखा है। बाकी किरदार अलग-अलग दौर में एक जैसे नामों के साथ समय के इर्द-गिर्द घूमते नज़र आते हैं। ये किरदार एक के बाद एक समय के साथ आते हैं और अपना सफर तय करते हुए समय के साथ कहीं गुम हो जाते हैं। इस उपन्यास के हर किरदार की एक सी जिंदगी और उनकी ज़िंदगी में एक जैसी घटनाएं चलती रहती हैं।
कहानी की शुरुआत
चार हिस्सों में बंटे उपन्यास के पहले हिस्से की शुरुआत गौतम नीलांबर से होती है जो ब्रह्मचारी कलाकार और दार्शनिक है। नीलांबर अमन पसंद करता है और उसे युद्ध व्यर्थ लगता है। सरयू नदी पार करने के दौरान उसे किनारे पर चम्पक दिखती है और ब्रह्मचारी होने के बावजूद वह चम्पक से प्रेम करने लगता है। लेकिन उसके ब्रह्मचर्य जीवन में इसकी अनुमति नहीं होती। वक्त के साथ वह दोबारा चम्पक से मिलता है और बिछड़ भी जाता है। इसी सफर में उसकी मुलाकात हरिशंकर से भी होती है जो तक्षशिला में पढ़ता है और बौद्ध धर्म का अनुयायी है। लेकिन नीलांबर हरिशंकर से भी बिछड़ जाता है। उसे मगध पर चंद्रगुप्त मौर्य के आक्रमण के दौरान युद्ध भी करना पड़ता है। गौतम सारी ज़िंदगी ज्ञान, प्रेम, दोस्ती और जीवन में उलझा हुआ रहता है। अपने अंतिम समय में वह चम्पक को शादीशुदा रूप में देखता है और इससे दुखी होकर वो एक अजनबी सफ़र पर निकल जाता है।
अबुल मंसूर के सहारे दो विचारधाराओं को दिखाने की कोशिश
सरयू के किनारे ही उपन्यास के दूसरे हिस्से की शुरुआत होती है जो लगभग पंदह सो सालों के बाद का समय है। भारत में अब इस्लाम आ चुका है और निशापुर से ‘अबुल मंसूर कमालुद्दीन’ आया है जो लेखक, शायर, शोधकर्ता और अमन-पसंद इंसान है। उसकी मुलाकात चंपा से होती है जो पंडित की बेटी है। अबुल और चंपा एक-दूसरे से मोहब्बत करते हैं लेकिन परिस्थितियों के कारण दोनों बिछड़ जाते हैं। इस समय भारत में इस्लामिक शासन का विस्तार होता है और लगातार युद्ध का माहौल रहता है। युद्ध से थककर अबुल अमन की तलाश में निकल जाता है। अबुल बेचैन होकर जिस कबीरदास और सूफियों का मज़ाक बनाता था, उन्हीं के शरण में जाता है और उसे शांति मिलती है। चंपा से बिछड़ने के बाद अबुल बंगाल की एक दलित लड़की से शादी करता है। इस समय तक दिल्ली में मुगलों का आगमन हो चुका होता है। सियासी कारणों से अबुल का कत्ल कर दिया जाता है। सारी उम्र जिस अबुल मंसूर ने खुद को सिपाही कहे जाने का विरोध किया और खुद को अमन पंसद लेखक की तरह पेश किया, आख़िर में वो ख़ुद विद्रोहियों की भेंट चढ़ जाता है।
कहानी का तीसरा हिस्सा
कहानी के तीसरे हिस्से की शुरुआत होती है। इस हिस्से की शुरुआत होती है ‘सिरिल एशले’ से जो एक मिडिल क्लास ब्रिटिश नौजवान है और अमीर बनने की चाह में भारत आया है। जब वो मद्रास पहुंचता है तो उसे एंग्लो इंडियन लड़की ‘मारिया टेरेसा’ से प्यार हो जाता है। लेकिन वो मारिया को छोड़कर कलकत्ता चला जाता है। वहां बेहद अमीर बनकर नवाबों के बीच आम चलन की तरह बंगले में एक गरीब लड़की ‘शुनीला’ को ले आता है।
हालांकि वो उससे शादी नहीं करता और कुछ समय बाद सिरिल एशले और शुनीला को छोड़कर लखनऊ की एक बेहद मशहूर तवायफ़ चम्पाबाई के इश्क़ में पड़ जाता है। उपन्यास का तीसरा हिस्सा ब्रिटिश दौर में भारतीयों के साथ हो रहे ज़ुल्म को दिखाता है। इस दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपनी ज़मीन को और मज़बूत करती रहती है। भारत के इतिहास के पन्नों पर मुग़लों और नवाबों के पतन की दास्तान दर्ज़ होती है। तत्कालीन भारतीय समाज और संस्कृति में होते बदलाव को मिलता है।
कहानी का आखिरी हिस्सा
कहानी का आखिरी हिस्से की शुरूआत होती है। इस हिस्से में कई किरदार हैं जिनमें ‘सिंघाड़े वाली कोठी’ का हरिशंकर और उसकी दो बहनें निर्मला और लजवती हैं। वही गुलफ़िशा में रहने वाले कमाल, तलअत, तहमीना (अप्पी)और अमीर रज़ा (भईया साहब) हैं। हर बार की तरह गौतम नीलाम्बर और चंपा भी इस हिस्से में मौजूद होते हैं। इन नौजवानों का अपना एक गिरोह है जो पढ़ने-लिखने, वाद-विवाद के साथ भारत की आज़ादी का पैरोकार भी हैं। उपन्यास के इस हिस्से में 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन है, आज़ादी से पहले अंग्रेज़ों के साथ घुलने-मिलने वाले भारतीय एलीट क्लास हैं। इसमें कांग्रेस और गांधी की आवाज़ को बुलंद करने वाले कमाल हैं तो वहीं मुस्लिम लीग की समर्थक चंपा बाजी भी हैं।
यहां भारत में शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया है। ख़ास तौर से महिला शिक्षा की बात की गई है। इस उपन्यास के हर हिस्से की तरह इस हिस्से में भी अधूरे मोहब्बत की बात भी है। अंत तक आते-आते भारत और पाकिस्तान का बंटवारा और लोगों के विस्थापन पर बेहद संवेदनशील तरीक़े से बात की गई है। लेखिका कुर्रतुलैन उपन्यास के आखिरी हिस्से में विभाजन के दर्द से रूबरू करवाती हैं। चार मुख्य किरदार पूरे उपन्यास में उतार-चढ़ाव में, हर संस्कृति और दौर में एक साथ रहते हैं। लेकिन विभाजन के बाद ये अलग हो जाते हैं। ये दिखाता है कि विभाजन की लकीर महज सरहदों के बीच नहीं थी बल्कि ये संस्कृति, इतिहास और रिश्तों के बीच खिंची गई थी। उपन्यास का कैनवास बेहद बड़ा है जिनमें हजारों रंग, संस्कृति, भाषा और समय चक्र समाए हुए हैं। ये हर दौर के इतिहास, विचारधारा और दर्शन की बात करता है। उपन्यास की खास बात यह है कि हर दौर के लोग ख़ुद को इससे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। इसे पढ़ते हुए पाठक ढाई हजार सालों के भारतीय समाज के सांस्कृतिक और दार्शनिक इतिहास का सफ़र शब्दों के माध्यम से तय कर लेता है। कुर्रतुलैन का ये उपन्यास हर नज़रिए से विविध और मुकम्मल है।