आज भी हमारे यहां लाखों करोड़ों की संख्या में महिला मजदूर अपने बच्चे के पैर में रस्सी बांधकर ,ईंट बांधकर काम करते दिख जाएंगी। ईंट-भट्टे पर काम करती गरीब सुदूर क्षेत्रों से आई मजदूर महिलाएं अपने छोटे बच्चों को अपनी पीठ पर ही बांधकर, ईंट पाथने या धोने का काम करती हैं। इसी प्रकार से कंट्रक्शन साइट्स पर काम करती स्त्रियों की स्थिति भी भयावह है। न उनके पास शौचालय की सुविधा होती है, न पीने का साफ पानी मुहैया कराया जाता है। घरेलू महिला मजदूरों की हालत भी कुछ ठीक नहीं होती। उनको अक्सर न कोई छुट्टी मिलती है न किसी तरह की सामान्य दैनिक सुविधाओं की सहूलियत। वे कड़ाके की ठंड और भयानक गर्मी में सुविधा सम्पन्न उच्च और मध्यवर्गीय घरों में मशीन की तरह खटती रहती हैं।
इस पूरी व्यवस्था में जहां मजदूरों का जीवन लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है, वहां स्त्री मजदूरों का जीवन और कठिन है। सरकार ने हाल ही में पंजीकृत निर्माण श्रमिकों को उनके नियोक्ताओं द्वारा 26 सप्ताह का मैटरनिटी लीव मुहैया करने का प्रावधान किया है। लेकिन सच्चाई ये है कि अनेकों महिलाएं न पंजीकृत निर्माण श्रमिक हैं, न ही उन्हें इन नियमों की जानकारी है। इसलिए अन्य क्षेत्रों की महिला श्रमिकों की तरह उनके लिए यह कानून कोई मदद नहीं करता क्योंकि निजी सेक्टरों में , खेत-मजदूरी में , ईंट-भट्टे जैसे जगहों पर काम करती महिलाओं को जमीन पर इसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है।
क्या है महिला मजदूरों का हाल
महिला मजदूर सीमा इलाहाबाद के छोटा बघाड़ा में रहती हैं। सीमा कंट्रक्शन साइट पर काम करती हैं। सीमा बताती हैं कि उनके छोटे-छोटे बच्चे हैं तो उनको कोई भी ठेकेदार जल्दी काम नहीं देना चाहता क्योंकि सीमा साइट पर अपने बच्चों को लेकर आएंगी और काम के बीच अपने रोते बच्चों को बहलाने के लिए जा सकती हैं। सीमा ने इसी तरह और अनदेखी की बात बतायी जिससे ये पता चलता है कि ठेकेदार और मालिक दोनों ही मजदूर को मनुष्य होने की जरूरत और गरिमा में नहीं देखता। यहां मजदूर महिला के बच्चों के लिए क्रेच या मैटरनिटी लीव या अन्य सुविधाओं की बात तो दूर, अगर उसके पास छोटे बच्चे हैं, जल्दी उसे काम ही नहीं दिया जाएगा।
गरीबी और बेरोजगारी का आलम ये है कि शहर के लेबर चौक पर मजदूर रोज खड़े मिलते हैं। कंट्रक्शन साइट पर ज्यादातर महिला मजदूर दिहाड़ी पर ही काम करती हैं तो मैटरनिटी लीव का नियम का वहां कोई उपयोग ही नहीं है। इन्हीं साइटों पर ऐसी महिला मजदूर भी दिखती हैं जो साड़ी के टुकड़े को झूले की तरह बनाकर बच्चे को कंस्ट्रक्शन साइट के किसी कोने में डालकर काम करती हैं।
क्या महिला श्रमिकों को है इसकी जानकारी
मैटरनिटी लीव प्रावधान जमीन पर कितना काम कर रहा है यह जानने के लिए महिला मजदूरों ,ठेकेदारों और गवईं क्षेत्रों में मनरेगा में काम करने वाले गवईं मजदूरों से लेकर ग्रामपंचायत के प्रधानों से की गई। हैरानी की बात है महिला मजदूरों को तो इस प्रावधान को लेकर जानकारी ही नहीं है और ठेकेदार आदि इसे महज कागजी प्रावधान मानते हैं। यहां तक कि वे महिला मजदूरों से मेरी बातचीत को लेकर ऐतराज जता रहे थे। मैंने कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाली महिला मजदूरों से या उनके ठेकेदारों से बात करते हुए पाया कि उनको सरकार के इस अभी हाल ही में आए नियम के बारे में जिसका नाम ‘प्रसूति अवकाश’, है इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। ठेकेदारों को कुछ जानकारी है लेकिन वो बात करने से कतराते रहे।
मेरे लिए आपने जो नियम बताया मुझे बताइए कि कैसे काम कर सकता है। गर्भवती महिलाओं को जल्दी ठेकेदार काम पर ही नहीं रखता है। फिर पैसे देने की बात तो दूर की है। जब काम ही नहीं करेंगे, तो पैसा कैसे मिलेगा।
बुनियादी सुविधाओं की कमी
कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाली महिला मजदूरों से बात करते हुए मेरा सबसे पहले सवाल था कि क्या उन्हें सरकार द्वारा लाए गए मैटरनिटी लीव के बारे में पता है। मैंने देखा कि वहां काम करने वाली अधिकतर महिलाएं इस शब्द से भी परिचित नहीं थी। इसलिए मैंने उन्हें इस प्रसूति अवकाश, नियम के बारे में बताया कि यह गर्भवती महिला के काम के दौरान मिलने वाली छुट्टी होती है। लेकिन अवकाश के दौरान भी उन्हें तनख्वाह मिलती रहती है।
उन्होंने थोड़े अचरज से इसे समझा। लेकिन कईयों ने कहा कि बिना काम के भला कौन दिहाड़ी देगा। फिर वे अन्य समस्याओं पर बात करने लगीं। उन्होंने बताया कि कितनी मुश्किलें हैं महिला मजदूरों को क्योंकि शौचालय से लेकर साफ पीने के पानी तक की सहूलियत उन्हें काम के जगहों पर नहीं मिलती। ऐसे में अवकाश के दौरान दिहाड़ी कौन देगा।
बनारस की रहने वाली महिला मजदूर गीता ने बताती हैं, “हमें इस तरह के नियम से कोई लाभ नहीं होगा। मैं दिहाड़ी मजदूर हूं। मैं आए दिन एक नया काम पकड़ती हूं और फिर उसे करती हूं और अगले दिन एक नया काम खोजती हूं। मेरे लिए आपने जो नियम बताया मुझे बताइए कि कैसे काम कर सकता है। गर्भवती महिलाओं को जल्दी ठेकेदार काम पर ही नहीं रखता है। फिर पैसे देने की बात तो दूर की है। जब काम ही नहीं करेंगे, तो पैसा कैसे मिलेगा।” इसी तरह इलाहाबाद की महिला मजदूर दुलारी कहती हैं, “मुझे नहीं पता कि कोई नियम मजदूरी करने वाली महिलाओं के लिए लाया गया है। मैंने तो इसके बारे में पहली बार अभी आप से ही सुन रही हूँ।” दुलारी थोड़ी सी पढ़ी-लिखी हैं। उन्होंने सोचकर कहा, “यह नियम सरकार किन महिलाओं के लिए लाई है। अगर रजिस्टर्ड मजदूरी की बात है तो यह नियम दिहाड़ी पर काम करने वाली महिलाओं को कोई लाभ नहीं देगा क्योंकि ठेकेदार हमें बस दिहाड़ी देते हैं।”
क्या ठेकेदार करेंगे मैटरनिटी लीव में भुगतान
इलाहाबाद में महिला मजदूर रेखा एक नई बन रही बिल्डिंग में मजदूरी करती है। उनका ठेकदार से बिल्डिंग के बनने तक का करार है और वह बताती है कि वह उनकी ही मजदूर है। उन्हें भी प्रसूति अवकाश के बारे में कुछ भी नहीं पता है। उनके ठेकेदार से बात करने पर पता चला कि उन्हें भी ऐसे किसी नियम कानून के बारे में ठोस जानकारी नहीं है। हालांकि ऐसा कोई कानून आया है इसकी भनक ठेकेदार को है। लेकिन वे भी इसे महज कागजी नियम समझते हैं। जब मैंने ठेकेदार से आगे बातचीत में कहा कि अब तो आपको पता चल गया है कि ऐसा कोई नियम है तो क्या आप अपने रजिस्टर्ड महिला मजदूर के प्रेगनेंसी के दौरान उन्हें अवकाश और मजदूरी देगें, तो अवकाश को लेकर उनका जवाब हां था पर मजदूरी देने की बात पर गोल-मोल बात करने लगे।
जितने दिन काम उतनी ही मजदूरी
जब सरकार मैटरनिटी लीव नियम लेकर आई तो इस पर बहुत सारे सवाल उठे थे क्योंकि यह नियम कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाली महिलाओं या कंपनियों में काम करने वाली महिलाओं की प्रेगनेंसी के दौरान छुट्टी के लिए लाया गया था। सवाल उठता है कि अगर यह नियम सिर्फ कंस्ट्रक्शन साइट और कंपनियों में काम करने वाली रजिस्टर्ड महिला वर्कर्स के लिए है तो ज्यादा संख्या में अनरजिस्टर्ड महिला वर्कर्स का क्या होगा।
महिला मजदूरों से बात करते हुए सामने आया कि ज्यादातर संख्या में महिलाओं को सरकार द्वारा लाए गए मैटरनिटी लीव नियम के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। ऐसे में किसी नियम का जिसका उन्होंने पहले कभी नाम ही नहीं सुना, वह उनके हित में कैसे काम करेगा? मैंने उन्हें अपनी बातचीत पर मैटरनिटी लीव के मुख्य नियमों के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि हम ऐसी माँग करेंगे तो ठेकेदार हमें काम नहीं देगा और हम भूखे मरेंगे।
“मुझे इस नियम के बारे में जानकारी नहीं है।” बाद में मैंने उनके गांव के ग्राम पंचायत के प्रधान से मैटरनिटी लीव को लेकर बातचीत की, तो उन्होंने भी पहले इनकार किया। लेकिन मेरे कुछ खबर फोन पर दिखाए जाने पर उन्होंने कहा, “हां ऐसा कोई प्रावधान आया है। मेरी जानकारी में है। लेकिन यहां किसी ने इस नियम को लागू नहीं किया।”
मनरेगा जैसी योजनाएं इसमें शामिल नहीं
इस विषय पर गवईं क्षेत्रों की महिला मजदूरों से बात की गई जिसमें ईंट-भट्टा, मनरेगा और खेतिहर मजदूरी करती महिलाएं शामिल थीं। उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले में रहने वाली ऊषा मनरेगा में काम करती हैं। इस विषय पर पूछने पर वह बताती हैं, “मुझे इस नियम के बारे में जानकारी नहीं है।” बाद में मैंने उनके गांव के ग्राम पंचायत के प्रधान से मैटरनिटी लीव को लेकर बातचीत की, तो उन्होंने भी पहले इनकार किया। लेकिन मेरे कुछ खबर फोन पर दिखाए जाने पर उन्होंने कहा, “हां ऐसा कोई प्रावधान आया है। मेरी जानकारी में है। लेकिन यहां किसी ने इस नियम को लागू नहीं किया।” ये पूछे जाने पर कि आपको जब मैटरनिटी लीव नियम की सूचना है, तो उसे ग्राम पंचायत में लागू क्यों नहीं किया जा रहा, उन्होंने कहा, “यहां काम करने वाले मजदूरों को दिहाड़ी दी जाती है। यहां कागज पर जो भी हो लेकिन मजदूर जितने दिन काम करेगें मनरेगा में मजदूरी सिर्फ उतने दिन की दी जाती है।”
पूंजीवाद और सामंतवादी गठजोड़ में नियम मजदूरों के हितों की सुरक्षा के लिए नहीं, मजदूरों की मेहनत की लूट के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। आखिर बच्चे के पांव में ईट बांधने वाली, पीठ पर बच्चा लिए काम करती मजदूर स्त्रियाँ कौन हैं इस देश की? अगर नागरिक हैं तो क्या उनके पास नगरिक होने के कोई अधिकार हैं। क्या मनुष्य होने की किसी गरिमा में उनका जीवन है। कितनी अमानवीय बात है ये कि कोई मां अपने बच्चे के पांव बांधकर काम करती हैं। फिर मजदूर औरत के पास, निम्न मध्यवर्गीय, मध्यवर्गीय कामकाजी स्त्रियों के पास अपना बच्चा क्रेश में रखने की आजादी और सुविधा नहीं है। डेकेयर या क्रेश एक सुविधा है। लेकिन कितनी महिलाओं को ये सुविधा उपलब्ध है। मनुष्य की सामान्य दैनिक जरूरत की सुविधाएं जैसे टॉयलेट, साफ पानी जैसी चीजें उपलब्ध नहीं हैं। मैटरनिटी लीव रजिस्टर्ड महिला मजदूरों के लिए लाने का प्रावधान किस अर्थ में बना जबकि अनरजिस्टर्ड महिला मजदूरों की संख्या उनसे कहीं ज्यादा है।