संस्कृतिकिताबें प्रोफेसर की डायरीः शिक्षा व्यवस्था के भेदभाव को उजागर करती एक महत्वपूर्ण किताब

प्रोफेसर की डायरीः शिक्षा व्यवस्था के भेदभाव को उजागर करती एक महत्वपूर्ण किताब

इस डायरी के आखिरी पन्ने पलटने तक हम प्रोफेसर लक्ष्मण के 14 साल के सफर में सहयात्री हो जाते हैं। एडहॉक, दिल्ली यूनिवर्सिटी, डूटा(दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन) के धरने प्रदर्शन, मिश्रा जी की चाय टपरी, क्लासरूम सब देखा जाना सा लगने लगता है। 

“इस दौर में बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है। सवालों से घबराने वाली सत्ताएं चाहती है कि सवाल पैदा करने वाली जगहों को ही कमजोर कर दिया जाए। इसलिए अब सत्ता की कोशिश है कि शिक्षक हमेशा डर में रहे। एक डरा हुआ शिक्षक अपनी कक्षाओं में रीढ़ विहीन विद्यार्थी तैयार करता है जो समाज में जाकर मुर्दा नागरिक में तब्दील हो जाता है।” प्रोफेसर लक्ष्मण यादव की लिखी किताब ‘प्रोफेसर की डायरी’ में लेखक किताब में लिखते हैं कि आज के समय में आवाज़ उठाने की कीमत चुकानी पड़ती है।

प्रोफेसर लक्षमण यादव ने करीब 14 साल तक दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में एडहॉक के तौर पर असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर रहे। इसी जद्दोजहद में जीवन के महत्वपूर्ण डेढ़ दशक लगाए कि अपना भी एक शजर पर घोंसला हो। लेकिन भारतीय शिक्षा व्यवस्था का राजनीतिकरण कर देने वाली ‘व्यवस्था’ ने उनसे शजर पूरा करने का माध्यम ही छीन लिया। इसमें लेखक के अनुभव और संघर्ष तो है ही साथ उन्होंने शिक्षण व्यवस्था की अन्यायपूर्ण तस्वीर भी सामने रखी है।

भावुक होकर वह डायरी में लिखते हैं, “अम्मा, पापा, चाचा, बहनें, भाई, दादा, परदादा जो जो याद आ सकते थे सब याद आने लगे। उन पीढ़ियों में पहला कोई शख्स प्रोफेसर बनने वाला है। खेत खलिहान से निकल किसी स्कूल की चौखट लांघने का मौका हमें मिला।”

बहुत ही साहसी और ईमानदारी तरीके से उन्होंने जो अनुभव किया है उसे बयान किया है। इसमें जाति दमन और जूनियर शिक्षक के साथ एक सीनियर शिक्षक का रवैया स्पष्ट झलकता है। यह डायरी एक प्रोफेसर का अनुभव और आप बीती मात्र नहीं बल्कि शिक्षक वर्ग की व्यथा कथा भी है। जब कोई एक छोटे से गांव से निकलकर तमाम सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों से जूझते हुए पहली चोटी के शिक्षण संस्थानों में पहुंचता है, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडलिस्ट बनता है, तो उम्मीद जगती है कि परिवार वाले ठीक कहते थे कि पढ़-लिख लो, शिक्षा ही तुम्हारा भला करेगी। ठीक इसके उलट प्रोफेसर बन जाने के लिए उपयुक्त तमाम डिग्री और योग्यताएं होने के बाद भी नौकरी छीन लेना आदमी के सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा कर देना जैसा है।  

प्रोफसर लक्ष्मण जाने-माने सामाजिक चिंतक और बुद्धिजीवी हैं जो देश और समाज में हो रही हलचल पर तेज पकड़ रखते हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में पक्षपाती सिस्टम के ख़िलाफ़ खुलकर लोगों के सामने बात रखीं। उन्होंने बताया कि कैसे एडहॉक प्रोफेसर के नाते उनके अधिकारों को छीना गया और व्यवस्था किस तरह से हाशिये के समुदाय से आने वाले व्यक्ति का शोषण करती है। यही वजह है कि प्रोफेसर यादव ने बहुत पहले अंदेशा जता दिया था कि उनकी नौकरी छीनी जा सकती है। तमाम साजिशें रची जा रही हैं। इसके एक माह बाद ही यह फरमान आ गया कि अब इस संस्थान को आपकी ज़रूरत नहीं है। यह किताब प्रोफेसर ने ‘रोहित वेमुला और उन जैसी अधूरी रह गईं अनगिनत संभावनाओं के नाम’ समर्पित की है। 

यूं शुरू हुई दास्तां

तस्वीर साभारः The Wire

अगस्त 2010 में जब प्रोफेसर यादव का इंटरव्यू पास हुआ और कॉलेज से फोन आया कि आपका सलेक्शन हो गया है। कल सुबह 10 बजे सारे ओरिजनल डॉक्यूमेंट्स लेकर आ जाइएगा। यह पक्का हो गया कि अब नौकरी मिल गई है तो एक्साइटमेंट का लेवल काफी ऊपर हो गया। भावुक होकर वह डायरी में लिखते हैं, “अम्मा, पापा, चाचा, बहनें, भाई, दादा, दादा परदादा जो जो याद आ सकते थे सब याद आने लगे। उन पीढ़ियों में पहला कोई शख्स प्रोफेसर बनने वाला है। खेत खलिहान से निकल किसी स्कूल की चौखट लांघने का मौका हमें मिला। शिक्षा उस कर्ज अदायगी के काबिल बनाने की प्रयोगशाला है। पहली पीढ़ी का कोई युवा जिस दिन इन प्रयोगशालाओं से निकलकर शिक्षक बनता है, वह इस सभ्यता के माथे पर लकीर खींच देता है। जाने क्यों मगर आज मैं अपने हाथ में कलम लेकर सोने जा रहा हूं।”

इन शब्दों में कई पीढ़ियों की थकान मिटाने का साहस भरा हुआ है। हम वो घोड़े हैं जब हम सफल होते हैं तो हमारे साथ हमारा परिवार, दोस्त, रिश्तेदार, गांव, खेत खलिहान सब सफल हो जाते हैं। और जब हमारे पांव बोझ से चटक जाते हैं तो साथ ही उन सबकी उम्मीदें धड़ाम से भरभरा जाती हैं जो एक अरसे से हमारी ओर देख रहे थे। इस डायरी के आखिरी पन्ने पलटने तक हम प्रोफेसर लक्ष्मण के 14 साल के सफर में सहयात्री हो जाते हैं। एडहॉक, दिल्ली यूनिवर्सिटी, डूटा(दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन) के धरने प्रदर्शन, मिश्रा जी की चाय टपरी, क्लासरूम सब देखा जाना सा लगने लगता है। 

उच्च शिक्षण संस्थान किस तरह से हमारे हक अधिकारों के संरक्षक हैं यह इस बात से समझा जा सकता है कि 13 प्वाइंट रोस्टर के विरोध में पहली चिंगारी दिल्ली यूनिवर्सिटी में ही उठी थी। यहीं से यह जन आंदोलन बना और इसकी गूंज देशभर में पहुंची। सालभर के बाद सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया था और 200 प्वाइंट रोस्टर प्रणाली बहाल हुई। 13 प्वाइंट रोस्टर लागू होने का सीधा मतलब यह था कि एससी-एसटी, ओबीसी के युवाओं के लिए प्रोफेसर बनने के अवसर करीब-करीब खत्म हो जाएंगे। जब ऐसे संस्थान ही नहीं बचेंगे तो आवाज कहां से उठेगी। 

इस डायरी में जेएनयू हिंसा, रोहित वेमुला शहादत, 13 प्वाइंट रोस्टर आंदोलन से लेकर कई अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र है। सबसे अहम यह पल-पल एडहॉक प्रोफेसर्स की उम्मीदों को चकनाचूर करती व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। 

शहर आगे और विश्वविद्यालय पीछे

साल 2017 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में लड़कियों ने हॉस्टल की टाइमिंग, यौन हिंसा और कैंपस में उनके साथ किए जा रहे भेदभाव को लेकर आंदोलन छेड़ दिया। गीत गाते हुए नारे लगाए जा रहे थे कि “तेरे कांधे पे ये आंचल बहुत खूब है लेकिन, तुम इस आंचल को परचम बना लेती तो अच्छा था।” वहीं शहर और विश्वविद्यालय के बारे में प्रोफेसर लिखते हैं, “एक शहर को एक विश्वविद्यालय बनाता है और एक विश्वविद्यालय अपने शहर और समाज दोनों को बदलता है। इसमें हावी विश्वविद्यालय को होना होगा। शहर हावी हुआ तो कैंपस इलाज नहीं कर सकेंगे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय हो या बीएचयू ये एक जमाने में अपने समय के आगे चलने वाली मशाल होने की कोशिश में थे। मगर कब शहर इन कैंपसों को अपने भीतर समा ले गया, पता ही नहीं चला। इन दोनों शहरों की खामियां इन कैम्पसों में भरती गई। अब शहर आगे है और विश्वविद्यालय उनके पीछे।”

यह किताब इस समय की शिक्षा व्यवस्था की सटीक व्याख्या है। सोचकर भी ताज्जुब होता है जहां पढ़ाई-लिखाई से संबंधित सभी चीजें परमानेंट है, क्लास, कैंपस, लाइब्रेरी, किताबें, बोर्ड, मार्कर से लेकर चॉक तक बस इन सबकी बुनियाद खुद शिक्षक ही परमानेंट नहीं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडहॉक हर स्तर पर अपनी आप बीती कह चुके हैं कड़े से कड़े कदम उठाएं जा चुके हैं। लेकिन सरकार की रीढ़ में लचक न आ सकी। इस डायरी में जेएनयू हिंसा, रोहित वेमुला शहादत, 13 प्वाइंट रोस्टर आंदोलन से लेकर कई अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र है। सबसे अहम यह पल-पल एडहॉक प्रोफेसर्स की उम्मीदों को चकनाचूर करती व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। 

शहर और विश्वविद्यालय के बारे में प्रोफेसर लिखते हैं, “एक शहर को एक विश्वविद्यालय बनाता है और एक विश्वविद्यालय अपने शहर और समाज दोनों को बदलता है। इसमें हावी विश्वविद्यालय को होना होगा। शहर हावी हुआ तो कैंपस इलाज नहीं कर सकेंगे।

कॉलेज के विद्यार्थियों ने प्रोफेसर को निकाले जाने के विरोध में आंदोलन किया। सोशल मीडिया पर समर्थन किया। देश की अलग-अलग जगहों पर धरने प्रदर्शन हुए। राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सौंपा गया लेकिन ‘व्यवस्था’ ने उन्हें न स्वीकारने की कसम खा ली। लक्ष्मण यादव की डायरी ने देश के प्रमुख शिक्षण संस्थानों की जातिवादी व्यवस्था पर बात कही है। उन्होंने उस सिस्टम को केंद्र में लाकर सामने रखा है जिसकी वजह से हमारे शिक्षण संस्थानों से समावेशी वातावरण की कमी है।

प्रोफेसर यादव ने उन व्यापक फलकों को बयां किया है जिसकी वजह से उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदाय के लोग न के बराबर दिखते हैं। प्रोफसर की डायरी अकादमिक जगत की उस व्यवस्था को दिखाती है जिसके समाधान के विकल्प के तौर पर अक्सर शिक्षण जगत को इकलौता विकल्प कहा जाता है। भेदभाव, जातिवाद, विशेषाधिकार, भाई-भतीजावाद, स्थायी-अस्थायी पद और सेवाओं की स्थिति को बयां करती यह डायरी वास्तविकता से रूबरू कराती है और शिक्षा व्यवस्था के ब्राह्मणवादी चेहरे को सामने रखती है।


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