समाजकार्यस्थल दलित ग्राम विकास अधिकारी की आत्महत्या से मौत और सवाल ग्राम पंचायत की लचर व्यवस्था के

दलित ग्राम विकास अधिकारी की आत्महत्या से मौत और सवाल ग्राम पंचायत की लचर व्यवस्था के

इंटरनेट और कंप्यूटर के बाद के दौर में पंचायत के ज्यादातर काम आधुनिक तकनीक से संचालित होने लगे, लेकिन समय की जरूरतों के हिसाब से पंचायती राज व्यवस्था के सांगठनिक ढांचे को बदलने की कोई कवायद नहीं हुई।

देश की लगभग 70 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में रहती है। सरकारों के हमेशा से बड़े-बड़े दांवे होते है कि गाँवों की सूरत बदलनी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2014 के बाद से गाँव के विकास के लिए अनेक योजनाएं लागू की है। सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गाँव को गोद लेकर उन्हें विकास की भूमिका में शामिल करने जैसे अनेक कदम उठाए हैं। लेकिन यहां भी राजनीतिक अभियान और जमीनी हकीकत के बीच अंतर देखने को मिलता है। गाँव के विकास की वास्तविकता सरकारों के प्रचार से बिल्कुल अलग है।

हाल ही में राजस्थान के थानागाजी जिले की चिपलटा ग्राम पंचायत के दलित ग्राम विकास अधिकारी ललित बेनीवाल की आत्महत्या से मौत की ख़बर सामने आई है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार भ्रष्टाचार और राजनीतिक दबाव के चलते ईमानदारी से काम ना कर पाने के कारण ललित ने यह कदम उठाया है। वह गरीब दलित परिवार से आते थे, उन्होंने आईआईटी कानपुर से बीटेक किया था और सिविल सर्विस परीक्षा की मुख्य परीक्षा में दो बार भाग ले चुके थे। तैयारी के बीच जब उनका ग्राम विकास अधिकारी के पद पर चयन हुआ तो आर्थिक स्थिति बेहतर न होने के कारण इस पद पर ज्वाइन किया था।

सरकार, भष्ट्राचार के ख़िलाफ़ जीरो टॉलरेंस के बड़े-बड़े पोस्टर लगवाती है, प्रचार करती दिखती है वहीं सरकार के जमीनी स्तर पर काम करने वाले अधिकारी इस समस्या का सामना बड़े स्तर पर कर रहे हैं। यह एक गंभीर मामला है जहां हमें सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, ग्रासरूट पर काम करने वाले चेंज मेकर्स के रास्ते में आने वाली समस्याओं और इन सबके समाधान पर गंभीर चर्चा करनी चाहिए। बीबीसी की ख़बर के अनुसार सरपंच और ठेकेदार ने झूठ बोल कर ललित बेनीवाल से किसी अन्य काम के लिए ओटीपी मांगे और किसी विवादित निर्माण कार्य के लिए पेमेंट कर दिया। ग्राम विकास अधिकारी जिसे राजस्थान में पहले ग्राम सेवक/ पदेन सचिव के नाम से जाना जाता था, इसी तरह की कई समस्याओं का सामना करता है।

राजस्थान सरकार ने 2021 में इस पद का नाम बदल कर ग्राम विकास अधिकारी कर दिया लेकिन इन जिम्मेदारियों के अनुपात में ना तो ग्राम पंचायत की शक्तियों में कोई बढ़ोतरी हुई और ना ही ग्राम विकास अधिकारी की शक्तियों में। ग्राम विकास अधिकारी, सरपंच का ‘अधीनस्थ’ कर्मचारी होती है।

कौन होते हैं ग्राम विकास अधिकारी?

भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में विकेन्द्रीकृत प्रशासनिक इकाइयां स्थापित करने का जिक्र है। ये गांधीजी के ग्राम स्वराज की अवधारणा का आधार था। इसी तर्ज पर बलवंत राय मेहता कमेटी की सिफारिशों के बाद कई राज्यों में प्रशासन की त्रिस्तरीय व्यवस्था लागू हुई। राजस्थान ने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्टूबर, 1959 में राजस्थान के नागौर में पंचायती राज व्यवस्था का विधिवत उद्घाटन किया। इसके तहत जिला स्तर पर जिला परिषद, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और सबसे आखिर में गांव के स्तर पर ग्राम पंचायत बनाई गई, जिसमें दो से पांच गांव होते हैं। ग्राम पंचायत का मुखिया निर्वाचित होता है जिसे आमतौर पर सरपंच या मुखिया कहते हैं। ज्यादातर राज्यों में
सरपंच पद के लिए उम्मीदवार को आठवीं तक पढ़ा होना चाहिए। इन्हीं ग्राम मुखियाओं के काम को कागज पर दर्ज करने और खर्चे का हिसाब रखने के लिए ‘ग्राम सेवक’ का पद बनाया जो सरपंच का सचिव भी होना था।

लेकिन समय के साथ-साथ ग्राम पंचायत का एक ‘संस्था’ के रूप में विकास हुआ और इसकी जिम्मेदारियां बढ़ने लग गयी। धीरे-धीरे ये गांव में प्रशासन और क्षेत्र से जुड़े कामों की देखरेख की एकमात्र एजेंसी बन गयी। इंटरनेट और कंप्यूटर के बाद के दौर में पंचायत के ज्यादातर काम आधुनिक तकनीक से संचालित होने लगे, लेकिन समय की जरूरतों के हिसाब से पंचायती राज व्यवस्था के सांगठनिक ढांचे को बदलने की कोई कवायद नहीं हुई। परिणामस्वरूप, संस्थाओं के संचालन में गंभीर गड़बड़ियां होने लगी।

किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है?

तस्वीर साभारः The Wire

जैसे-जैसे ग्राम पंचायतों का कार्य क्षेत्र बढ़ा वैसे-वैसे, ग्राम सेवकों की जिम्मेदारी और जवाबदेही भी बढ़ने लगी। राजस्थान सरकार ने 2021 में इस पद का नाम बदल कर ग्राम विकास अधिकारी कर दिया लेकिन इन जिम्मेदारियों के अनुपात में ना तो ग्राम पंचायत की शक्तियों में कोई बढ़ोतरी हुई और ना ही ग्राम विकास अधिकारी की शक्तियों में। ग्राम विकास अधिकारी, सरपंच का ‘अधीनस्थ’ कर्मचारी होती है। निर्णय लेने की प्रक्रिया में सरपंच का अंतिम अधिकार होता है। लेकिन हर निर्णय के नीचे सरपंच और ग्राम विकास अधिकारी दोनों के हस्ताक्षर होते है। किसी भी निर्णय से असहमत होने पर अपनी ‘अधीनस्थ’ की स्थिति और राजनीतिक दबाव के कारण हस्ताक्षर करने से मना करना बेहद मुश्किल हो जाता है। हालांकि, जब निर्णय को अवैध ठहराया जाता है तो सरपंच और ग्राम विकास अधिकारी बराबर जिम्मेदार ठहराए जाते हैं।

इसे कुछ इस तरह देखा जा सकता है जैसे किसी मंत्री के निर्णयों के लिए उसे निजी सचिव को भी बराबर जिम्मेदार ठहराया जाए। अन्य बड़ी वजह जो इन पदाधिकारियों के स्वतंत्र रूप से काम करने के रास्ते में आती है वे ग्राम पंचायत की सीमित शक्तियां। ग्राम पंचायतों के कार्य क्षेत्र की तुलना में इस संस्था को कानून द्वारा प्रदत्त शक्तियां हास्यास्पद है। ग्राम पंचायतों के पास बजट की हमेशा कमी रहती है। नेताओं के बहुतेरे भाषणों, दृष्टिकोणों और आश्वासनों के बावजूद ग्राम पंचायतों के लिए नियमित निधि के प्रवाह के बजाय आज भी उन्हें फंड्स के लिए राज्य और केंद्र सरकार पर निर्भर रहना।

पंचायतें ज्यादातर छोटे वेंडर्स से काम लेती हैं, जिनके लिए पैसा मिलने के लिए होने वाली अप्रूवल की लंबी प्रक्रिया का इंतजार करना आसान नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी सार्वजनिक भवन के रंग-रोगन के लिए एक मजदूर से 25 दिन का काम लेना है, लेकिन उसे भुगतान के लिए तय हुई 20 हजार राशि ग्राम पंचायत कार्य पूर्णता प्रमाण पत्र के बाद ही दे सकती है, जिसमे कई हफ्ते या महीने लग जाते है। एक मजदूर के लिए इतना इंतजार करना बेहद मुश्किल है। ऐसे में सीमित वित्तीय शक्तियां पंचायतों के काम में बाधा बनती है।

आर्थिक के साथ-साथ ग्राम पंचायत की भौतिक शक्ति भी नगण्य है। गांवों में सक्षम और ताकतवर वर्गों से आने वाले लोग सरकारी जमीनों पर अवैध कब्ज़ा कर लेते हैं। ऐसे में ग्राम पंचायतों को किसी भी सरकारी काम के लिए उस जमीन पर अतिक्रमण हटवाने के लिए पुलिस सहायता लेनी पड़ती है। हालांकि, इसकी प्रक्रिया बेहद पेचीदा है। ग्राम पंचायत को इसके लिए अपनी पंचायत समिति से इस सम्बन्ध में निवेदन करना होता है। संबंधित पंचायत समिति का ब्लॉक विकास अधिकारी इस प्रार्थना पत्र को संबंधित तहसीलदार को प्रेषित करता है। वहां से ये पत्र वहां के ब्लॉक लेवल के अधिकारी को जाता है जिसके आधार पर वो ग्राम पंचायत से सम्बन्धित थाना क्षेत्र के थानाधिकारी को आदेश दे सकता है। इसी पेचीदा प्रक्रिया के कारण शक्तिशाली अतिक्रमणकारियों के हौंसले और बढ़ जाते हैं।

तस्वीर साभारः Pradhan

तकनीकी समस्याओं का करना पड़ता है सामना

डिजिटल भारत में ग्रामीण विकास की राह में तकनीकी समस्याएं भी बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। सरकार ने पंचायत के सभी काम डिजिटल कर दिए हैं, जिसके पीछे सरकार की नियत पारदर्शिता लाने की ही थी लेकिन सकारात्मक फैसलों को ठीक ढंग से लागू न कर पाने के कारण वे भी जी का जंजाल बन जाते है। योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एक ‘इंटीग्रेटेड प्लेटफार्म’ होने के बजाय सरकार ने ढेरों वेबसाइट और मोबाइल एप पेश कर दिए। इनमें से ज्यादातर इतने पेचीदा है कि सामान्य तकनीकी जानकारी रखने वाले सरपंच और ग्राम विकास अधिकारियों के लिए उन्हें संचालित करना टेढ़ी खीर हो गया है। ये वेबसाइट ‘अक्षम’ भी है, बार-बार सर्वर डाउन होने की समस्या आम है।

ई-ग्रामस्वराज कितना कारगर

भारत सरकार के मुताबिक 2022 तक 1 लाख 83 हजार ग्राम पंचायत के लिए पेमेंट करने के पुराने तरीके बंद कर उनके द्वारा ई-ग्रामस्वराज पोर्टल द्वारा पेमेंट करना अनिवार्य कर दिया गया है। किन्तु अभी तक भी उचित ट्रेनिंग के अभाव में इस पोर्टल की बेहद पेचीदा और कमजोर कार्यक्षमता व प्रक्रिया को काम में नहीं ले पा रहे हैं जिस कारण वे उच्चाधिकारियों के लिए सहज-कोप-विषय हो गए हैं। ऐसे ही समस्या ‘स्वामित्व योजना’ के क्रियान्वयन में आ रही है। इस योजना में 2021 से 2025 तक देश भर के लगभग 6.62 लाख गांवों का सर्वेक्षण किया जाएगा, जिसमें जमीन के मालिकाना हक़ का डेटा एकत्र करने के लिए ड्रोन सहित विभिन्न तकनीक का उपयोग किया जाएगा। हालांकि सच्चाई ये है कि ना सिर्फ अभी तक इसके नियम कानून स्पष्ट हुए हैं बल्कि इसमें आने वाले तकनीकी और अन्य तरह की समस्याओं के बारे में अधिकारी गण भी अनभिज्ञ है।

योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एक ‘इंटीग्रेटेड प्लेटफार्म’ होने के बजाय सरकार ने ढेरों वेबसाइट और मोबाइल एप पेश कर दिए। इनमें से ज्यादातर इतने पेचीदा हैं की सामान्य तकनीकी जानकारी रखने वाले सरपंच और ग्राम विकास अधिकारियों के लिए उन्हें संचालित करना टेढ़ी खीर हो गया है।

ग्राम विकास अधिकारी संघ राजस्थान के द्वारा इस संबंध में शासन सचिव के नाम दिए गया ज्ञापन में लिखा है कि ‘स्वामित्व योजना’ के क्रियान्वयन के संबंध में किसी भी अधिकारी/कर्मचारी को पूर्ण रूप से जानकारी नहीं होने के कारण किसी भी तरह की जानकारी चाहने पर संतोषप्रद जवाब नहीं मिलता है। श्रीमान जी उच्च अधिकारियों द्वारा उक्त व्यावहारिक समस्याओं का कोई समाधान नहीं किया जा रहा है और न ही कोई नियमानुसार उचित लिखित मार्गदर्शन दिया जा रहा है बल्कि उच्च अधिकारियों द्वारा नियम विरुद्ध कार्य करने हेतु अनावश्यक दबाव बनाकर नोटिस व चार्जशीट जारी करने की धमकी दी जा रही है और दी भी जा रही है,जिससे समस्त ग्राम विकास अधिकारियों में भारी रोष, असंतोष एवं भय व्याप्त हो रहा है।

पंचायती राज के नियम कानून उच्चपदस्थ अधिकारियों द्वारा बनाये जाते हैं लेकिन जमीनी वास्तविकताओं में उनका क्या असर होगा ये जांचने और समझने की शायद कोई कोशिश नहीं होती। ये कुछ उदाहरण उन सब मामलों की एक झलक मात्र है जो ग्राम पंचायतों के सामने ग्राम स्वराज के लक्ष्य की राह के कांटे बन गए हैं। समय की मांग है की इनका विस्तृत सर्वे कर समुचित समाधान निकालने का प्रयास हो और पंचायती राज विभाग ललित जैसे उच्च आदर्श और सकारात्मक परिवर्तन की महत्वाकांक्षा रखने वाले नौजवानों की जिंदगी मुश्किल करने का उपक्रम बन कर ना रह जाये।


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