गर्भावस्था किसी के जीवन के लिए बहुत मुश्किल या बहुत अच्छा समय हो सकता है। अक्सर गर्भावस्था में महिलाओं को हजारों नसीहत दी जाती है। परिवार और रिश्तेदार यह बताते चलते हैं कि कैसे चलना है, कैसे उठना है, घूमना-फिरना, खान-पान और यहां तक कि चिकित्सकीय सलाह भी दी जाती है। पर असल में लोग यह नहीं समझते कि हर महिला अलग है, हर शरीर अलग है और गर्भावस्था से जुड़ी समस्याएं भी अलग हैं। हमारे देश में कई बार गर्भावस्था के चिकिसकिया जरूरतों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसलिए, उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था पर भी कई बार बात ही नहीं होती या ध्यान नहीं दिया जाता। मनोरंजन की दुनिया और सामाज में मौजूद पूर्वाग्रह के बदौलत यह दिखाया और सिखाया जाता है कि माँ बनना सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन महिलाओं के गर्भावस्था की समस्या को सिर्फ लेबर पेन तक सीमित कर दिया जाता है। गर्भावस्था में कौन-कौन सी स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती है, या कैसे हर गर्भावस्था अलग है, या पोस्टपार्टम डिप्रेशन जैसी समस्याओं पर कोई बातचीत नहीं होती।
नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के डेटा पर आधारित एक क्रॉस-सेक्शनल अध्ययन किया। इसमें वर्तमान में कुल 23, 853 गर्भवती महिलाओं पर विश्लेषण के लिए विचार किया गया। इस अध्ययन के अनुसार भारतीय महिलाओं में उच्च जोखिम वाली गर्भधारण की व्यापकता 49.4 फीसद पाई गई, जिसमें 33 फीसद महिलाओं में एक ही उच्च जोखिम था। 16.4 फीसद में कई उच्च जोखिम वाले कारक थे। विशेष रूप से, मेघालय और मणिपुर में गर्भवती महिलाओं में 67.8 फीसद और 66.7 फीसद महिलाओं में एक या एक से अधिक उच्च जोखिम वाले कारक थे। लगभग 31.1 फीसद महिलाओं में जन्म के समय कम अंतर था, और 19.5 फीसद महिलाओं में पिछले जन्म के दौरान प्रतिकूल जन्म परिणाम थे।
क्या है उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था और इससे जुड़ी चिंता
उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था वह गर्भावस्था होती है, जिसमें एक महिला और उसके भ्रूण को समस्याओं का अनुभव होने की संभावना सामान्य से अधिक होती है। ये जोखिम गर्भावस्था के कारकों के कारण हो सकते हैं, या वे पहले से मौजूद मातृ चिकित्सा स्थितियों, जैसे कैंसर, मधुमेह या ल्यूपस से उत्पन्न हो सकते हैं। भारत में मातृ मृत्यु दर की समस्या पहले से मौजूद है। ये एक ऐसी समस्या है जो न चाहते हुए भी गर्भवती महिलाओं को अपने चपेट में लिए है।
हालांकि भारत ने मातृ मृत्यु दर, नवजात मृत्यु दर और 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु को कम करने में महत्वपूर्ण प्रगति की है। साल 2020 में, मातृ मृत्यु दर घटकर 97 प्रति एक लाख जीवित जन्म, नवजात मृत्यु दर 20 प्रति 1000 जीवित जन्म और 5 वर्ष से कम उम्र की मृत्यु दर 32 प्रति 1000 जीवित जन्म हो गई। लेकिन यह चिंता अब भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। लगभग 40 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मृत्यु और आधी मातृ मृत्यु उसी दिन होती है जिस दिन बच्चा पैदा होता है। इन रोके जा सकने वाली मौतों को कम करने से, भारत तीनों मापदंडों में सतत विकास लक्ष्य 2030 को पूरा करने की दिशा में तेजी ला सकता है।
गर्भावस्था और प्रसव के बाद हो सकता है जीवन परिवर्तन
बच्चे का जन्म किसी महिला के लिए आजीवन शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है। लेकिन देश में, खासकर ऐसे परिवारों में जहां लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है, वहां बच्चे के होते ही महिलाओं का स्वास्थ्य गैरजरूरी हो जाता है। द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, हर साल कम से कम 40 मिलियन महिलाओं को प्रसव के कारण होने वाली दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्या का अनुभव होने की संभावना होती है।
अध्ययन से पता चलता है कि प्रसव के बाद स्थितियों का एक बड़ा बोझ है, जो जन्म देने के बाद महीनों या वर्षों तक बना रहता है। इनमें यौन संबंध के दौरान दर्द शामिल है जो प्रसवोत्तर महिलाओं की एक तिहाई यानि 35 फीसद से अधिक को प्रभावित करता है। पीठ के निचले हिस्से में दर्द से लगभग 32 फीसद महिलाओं को जूझना होता है। वहीं गुदा में असंतुलन, पेशाब में असंयम, चिंता जैसी समस्याएं भी शामिल होती हैं। इसके अलावा अवसाद, पेरिनियल दर्द, बच्चे के जन्म का डर और बच्चे न हो पाने की समस्या भी शामिल है।
उच्च जोखिम वाले गर्भावस्था और शिक्षा का संबंध
हमारे देश में गर्भवस्था में देखभाल; खर्च और जागरूकता का भी विषय है। शिक्षित और समृद्ध परिवार जहां गर्भावस्था में लगातार डॉक्टर की सलाह लेते हैं, अस्पताल में प्रसव कराते हैं, वहीं गरीब और वंचित समुदाय के लिए यह एक अतिरिक्त बोझ है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन ने ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में प्रसवपूर्व सेवाओं का उपयोग करने वाली उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था वाली महिलाओं पर एक अध्ययन किया।
इस अध्ययन में प्रतिभागियों की औसत आयु 23 वर्ष पाई गई। अध्ययन में शामिल हुई प्रतिभागियों में से अधिकांश 21 से 25 वर्ष के थे और 18.5 फीसद गर्भवती किशोरियां थीं। लगभग 22.6 फीसद माताएं निरक्षर थीं और अधिकांश ने सिर्फ माध्यमिक स्कूली शिक्षा पूरी की थी। लगभग 12.5 फीसद के पति निरक्षर थे, 27.4 फीसद ने माध्यमिक शिक्षा पूरी की थी और 20.8 फीसद ने महज 12वीं कक्षा उत्तीर्ण की थी। भारत में सभी गर्भधारण में से लगभग आधे में एक या अधिक उच्च जोखिम वाले कारक होते हैं, जो चिंता का विषय है।
गरीबी और उच्च जोखिम गर्भावस्था का संबंध
यह जोखिम कमजोर आबादी जैसे कि अशिक्षित और गरीब समूहों में अधिक है। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के एक अध्ययन के अनुसार हाई रिस्क प्रेग्नन्सी (एचआरपी) यानि उच्च जोखिम गर्भावस्था ग्रामीण महिलाओं में 50 फीसद, बिना औपचारिक शिक्षा वाली महिलाओं में 61.4 फीसद और गरीब समूह की महिलाओं में सबसे ज्यादा 56.1 फीसद थी। सामाजिक समूहों में, इन महिलाओं में ईसाई धर्म से सबसे ज्यादा 52 फीसद महिलाएं थीं। पूर्वी क्षेत्र की महिलाओं में उच्च जोखिम गर्भावस्था 51.7 फीसद पाई गई, जो भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा थी। इसके अलावा, तीसरी तिमाही में गर्भवती महिलाएं पहली और दूसरी तिमाही की तुलना में अधिक जोखिम में थीं। अन्य शिक्षित श्रेणियों की तुलना में अशिक्षित महिलाओं में कई उच्च जोखिमों का अनुपात अधिक पाया गया।
अध्ययन के अनुसार, भारत में एचआरपी का कुल प्रसार नेपाल, बांग्लादेश, चीन जैसे पड़ोसी देशों के ज्यादा पाया गया। साथ ही, यह अन्य निम्न-मध्यम आय वाले देशों से भी अधिक है जिनमें इथियोपिया और कांगो जैसे देश भी शामिल हैं। हालांकि प्रधान मंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान (पीएमएसएमए) भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की एक पहल है, जिसका उद्देश्य उच्च जोखिम वाली गर्भधारण की शीघ्र पहचान करना और उचित सुविधाओं के साथ स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों पर उनका पालन करना है। लेकिन आज भी देश में लगभग आधी गर्भवती महिलाएं उच्च जोखिम गर्भावस्था से गुजर रही हैं।
सरकार के नियमों के अनुसार एक बार जब गर्भवती स्त्री को एचआरपी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, तो यह संबंधित आशा या एएनएम की जिम्मेदारी है कि वह उस एचआरपी के लिए डॉक्टर या प्रसूति विशेषज्ञ द्वारा 3 अतिरिक्त एएनसी दौरे सुनिश्चित करें। नियम के अनुसार डॉक्टर या प्रसूति रोग विशेषज्ञ के साथ इनमें से प्रत्येक फॉलो अप मुलाक़ात के लिए, एएनसी उच्च जोखिम वाली गर्भवती महिला के साथ क्लिनिक तक जाएगी। लेकिन देश में बुनियादी स्वास्थ्य समस्याओं की कमी, गरीबी और अशिक्षा ऐसे लक्ष्यों को पूरा होने से रोकते हैं और महिलाओं के गर्भवस्था में खतरे को बढ़ाते हैं। जरूरी है कि हम न सिर्फ ऐसे नियम बनाए, बल्कि जमीनी स्तर पर उनके पालन के लिए भी कोशिश करें। साथ ही, गर्भावस्था भले निजी तौर पर अनुभव किया जाता हो, महिलाओं की स्वास्थ्य और खुशहाली की जिम्मेदारी में परिवार, समाज और सरकार को दायित्व लेने की जरूरत है।