साल 1970। यह एक ऐसा वक्त था जब देश भर में महंगाई की मार पड़ रही थी जिसके चलते महाराष्ट्र और गुजरात में एक असाधारण आंदोलन शुरू हुआ जहां हज़ारों महिलाओं ने आगे बढ़के ‘मूल्य वृद्धि विरोधी’ विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया और इसकी कमान भी संभाली। बात है फरवरी 1974 की जब मुंबई के मंत्रालय के सामने महिलाओं के एक समूह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक के पुतले को कचरा के ढेर से तौला। इसकी प्रेरणा उन्होंने पुराने समय के उन बड़े घरानों से ली, जो गरीबों को कितना दान देना है निश्चित करने के लिए खुदको सोने और चांदी से तौलते थे। महिलाओं ने मुख्यमंत्री के पुतले को उस कचरे के ढेर से तौला, जो कचरा राशन की दुकानों से आने वाले राशन में पाया जाता था। यहाँ भव्यता की जगह भ्रष्टाचार और भूख की झलक थी।
आज़ाद भारत का पहला आंदोलन
आज़ाद भारत का यह पहला आंदोलन था जिसमें हज़ारों की संख्या में महिलाओं ने भाग लिया था। विरोध प्रदर्शन के दौरान उन्होंने इकट्ठा होकर थाली को बेलन (लैटनिस) से पीटा था। यह सरकार के लिए एक चेतावनी और लोगों के लिए विरोध में शामिल होने का एक इशारा था। इसके बाद लोग इन महिलाओं को लैटनिस नाम से बुलाने लगे। इन्होंने बड़े पैमाने पर कई सभाएं और रैलियां की जिनका नारा बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी था। कहा जाता है कि जब महंगाई बढ़ती है तो उसका असर सबसे ज़्यादा महिलाओं पर पड़ता है क्योंकि महिला सशक्तिकरण आज भी एक मुद्दा है।
हजारों महिलाओं पर न सिर्फ कम पैसे में घर चलाने की जिम्मेदारी या जाती है, बल्कि कामकाजी महिलाओं को दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। साथ ही, पुरुष मुकाबले आम तौर पर महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है। उनके पास बचत कम होती है, सामाजिक सुरक्षा तक उनकी पहुंच भी कम होती है। एक पुरुष प्रधान समाज का हिस्सा होने के कारण उनपर अवैतनिक देखभाल और घरेलू काम का बोझ पड़ने की संभावना भी अधिक होती है, और इसलिए उन्हें श्रम बल से बाहर होना पड़ता है। उस समय भी महिलाओं की स्थिति कुछ ऐसी ही थी जिसके चलते इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।
आंदोलन के माध्यम से तोड़ा लैंगिक असमानता और जातिगत पूर्वाग्रह
महिलाओं के इस मूल्य वृद्धि आंदोलन में एक ऐसे समाज की छवि देखने को मिली जिसमें अलग-अलग जाति, वर्ग और धर्मों की महिलाएं इन भेदों की परवह किये बिना एक साथ एक ही मुद्दे पर आपसी सहमति जता रहीं थीं। जैसे-जैसे चीज़ों के दाम बढ़ते गए महिलाओं की सहनशीलता भी खत्म होती गयी और यह मुद्दा महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा बन गया। देखते-देखते इस आंदोलन ने इतना बड़ा रूप ले लिया कि अलग-अलग क्षेत्रों से लोगों ने आकर इसमें अपना योगदान दिया। ट्रेड यूनियन इन महिलाओं के साथ खड़ी हुई, छात्रों ने मोर्चे किए, लेखन से जुड़े लोगों ने इस मुद्दे को कवर करके इसपर लेख लिखे। चूंकि बढ़ती महंगाई सरकार की विफलता थी, इसलिए विपक्षी दलों ने भी सरकार पर सवाल उठाकर उसपर निशाना साधा।
मूल्य वृद्धि विरोधी आंदोलन की मुख्य मांगे
इस मूल्य वृद्धि विरोध प्रदर्शन में महिलाओं की कुछ मुख्य मांगे थी। इसमें खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण सबसे प्रमुख मांग थी। दूसरा बढ़ते भ्रष्टाचार और राशन की दुकानों द्वारा राशन में पाए जाने वाले कचरे को देखते हुए, उन्होंने जवाबदेही और पारदर्शिता की मांग की थी। उन्होंने रोजगार के अवसर मांगे जिससे कि आर्थिक संकट को कम किया जा सके।
राजनीतिक नेताओं की जवाबदेही पर भी ज़ोर डाला। मुख्यमंत्री का पुतला जलाना भी इस जवाबदेही की कमी के विरोध में किया गया था। प्रदर्शनकारी चाहते थे कि राजनेता अपने कार्यों को लेकर जवाबदेह हों क्योंकि उनके काम और नीतियां सीधी तरह से आम लोगों के जीवन को प्रभावित करती हैं।
क्या थी सरकार की प्रतिक्रिया
शुरू में तो सरकार ने आंदोलन पर ध्यान नहीं दिया और उसे केवल महिलाओं की सभा कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया था। पर महिलाओं ने हार नहीं मानी और अपनी माँगों को लेकर डटी रहीं। जैसे-जैसे प्रदर्शन बढ़ता गया, सरकार को उसपर नज़र डालनी पड़ी। पुलिस का सहारा लेकर सरकार ने प्रदर्शनकारियों को जेल में बंद भी करवा दिया था। इससे प्रदर्शनकारियों को और हिम्मत मिली और वे डटकर विरोध करते रहे। मीडिया पर भी दबाव डाले गए ताकि इन प्रदर्शनों की कवरेज को रोका जा सके। कई तरह के प्रलोभन भी दिए गए पर यह महिलाएं अपनी माँगों पर बनी रहीं। लोगों का समर्थन प्रदर्शनकारी महिलाओं के प्रति बढ़ता जा रहा था, जिसके चलते सरकार को ना चाहते हुए भी आंदोलन को गंभीरता से लेना पड़ा। सरकार ने कुछ चीज़ों के दामों को कम कर दिया। पर यह मूल्य नियंत्रण अस्थायी था और महिलाओं की मांग लंबे समय के लिए थीं जिस वजह से वे विरोध करती रहीं।
आंदोलन अधूरा रहा लेकिन महिलाओं ने दिखाई एकजुटता
हालांकि यह सच है कि मूल्य-वृद्धि विरोधी आंदोलन वह सब हासिल नहीं कर सका, जो उसका उद्देश्य था, और यह 1975 में राष्ट्रीय स्तर पर आपातकाल की घोषणा के साथ समाप्त हो गया। नतीजन कई नेताओं को जेल भी हुआ पर इस आंदोलन की कई विशिष्ट उपलब्धियां भी हैं। आंदोलन अपनेआप में आकार लेने वाला महिलाओं को एकजुट करने वाला और लोकतांत्रिक स्वरूप का प्रतीक बना।
इसका आयोजन महिला संगठनों और विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़ी महिलाओं ने किया था। इसने महिलाओं के बीच एकजुटता की भावना पैदा की, जो अद्वितीय थी। इसमें सभी क्षेत्रों की महिलाएं, गृहिणियां और कामकाजी महिलाएं, घरेलू नौकर और मिल-मजदूर, शिक्षक और छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक नेता इस मुद्दे पर एकजुट हुए।
औरतों को उनकी दुनिया चारदीवारी के अंदर दिखाई जाती है। उनके लिए बाहर की दुनिया में निकलना हमेशा एक चुनौती रही है। विरोध करने के लिए महिलाओं को अपना घर छोड़कर सड़क पर निकलना पड़ा तो कई लोगों ने उन्हें भला-बुरा कहकर चरित्र पर सवाल भी उठाए। पर इन सवालों ने उनकी हिम्मत को नहीं तोड़ा। इन महिलाओं ने कई रूढ़िवादी परंपराओं को चुनौती दी जो आज भी सभी महिलाओं को प्रेरणा देती है। यह महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक कामों में योगदान के लिए प्रेरित करती है और अपने हक के लिए लड़ने की सीख देती है। सरकार का पहले इन आंदोलनों को गंभीरता से ना लेना, फिर बाद में अस्थायी मूल्य नियंत्रण करना इस बात का प्रतीक है कि जनता की एकता और दृढ़ संकल्प के आगे ऊपरी ताकत को जवाबदेही देनी पड़ती है। यह आंदोलन विभिन्न जाति, वर्ग और धर्मों की महिलाओं को एक साथ लाया जो कि आज के युग के लिए भी एक मिसाल है।