उपन्यास ‘हजार चौरासी वें की माँ’ लेखिका महाश्वेता देवी की एक प्रसिद्ध कृति में से एक है जिसमें उन्होंने मातृत्व की जटिलताओं, दुख और समकालीन भारत के एक्टिविज़म को पाठकों के बीच रखा है। यह उपन्यास एक बेटे की माँ सुजाता पर आधारित है जो एक कट्टर वामपंथी गुरिल्ला सेनानी बन जाता है और जिसे बाद में पुलिस द्वारा मार दिया जाता है। सुजाता एक मध्यम वर्गीय परिवार से संबंध रखती है। उपन्यास में लेखिका ने बंगाल के समाज में महिलाओं का संघर्ष और युवा क्रांतिकारियों पर राज्य की क्रूर कार्रवाई का संघर्ष किया गया है। यह एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो बेटे की मौत के बाद खुद के अस्तित्व को पहचानती है, अपने होने के अर्थ को जानती है। निजी संपत्ति की रक्षा के लिए बना हुआ परिवार, समाज और राज्य की भूमिका को पहचानती है।
इस उपन्यास को लेखिका ने चार खण्ड में बांटकर लिखा है- सुबह, दोपहर, शाम और रात। उपन्यास की शुरुआत स्मृतियों में सुजाता के जाने से होता है। गर्भ के भार से ढीला शरीर, लेकिन वह अपने बेटे ब्रती को दुनिया में लाने के लिए व्यस्त हैं। पूरा उपन्यास सुजाता और उसके बेटे ब्रती चटर्जी और उसकी विचारधारा पर केंद्रित है। बेहद आत्मीय और अद्भुत सम्बन्ध है सुजाता का अपने बेटे ब्रती से। लेकिन वह उसके रहते उसे नहीं जान पायी। इस पीड़ा की ग्लानि में पूरे उपन्यास में वो छटपटाती रहती है। वह सोचती है आखिर क्यों वो अपने प्रिय बेटे को उसके रहते समझ न पायी। उसका बेटा तो उस मनुष्यों की मुक्ति के लिए ही लड़ रहा था। समाज और व्यवस्था में व्याप्त शोषण के तंत्र को वह उखाड़ कर फेक देना चाहता था।सुजाता वहीं बार-बार जाती है जहां उसका बेटा जाता था। उसकी हत्या के बाद वह उसके दोस्त सोमू के घर जाकर वहाँ की एक-एक चीज को देखती है, महसूस करती है।
एक मध्यवर्गीय परिवार की जीवनशैली का हिस्सा बनी सुजाता नहीं जानती थी कि इसके बाहर भी संसार में बहुत कुछ घट रहा है। मध्यवर्ग के राग-रंग और विलास के जीवन में तो सुजाता नहीं खोयी थी लेकिन पति, सास और बाद में बेटे-बहू और बेटियों की जिम्मेदारी उठाने और उनकी इच्छा पर उसका जीवन चलता रहा। “इस समय उम्र के उन्हीं सजे-संवरे दिनों में टेलीफोन की घंटी बजी थी। माँ ने नींद भरी आंखों से टेलीफोन का रिसीवर उठाया था अचानक एक अनजान ठंडा मशीनी अफसरी स्वर ने पूछा ब्रती चटर्जी आपका कौन लगता है! बेटा? कांटापुकुर चले आइये।
उपन्यास हजार चौरासी की कहानी 1970 के दशक में बंगाल में रहने वाली एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो समाजिक न्याय की लड़ाई में मारे गये बेटे की साथी बनकर न्याय की उस लड़ाई में अपने नये रूप में शामिल होती है। ये उपन्यास उस समाज मे होने वाले राजनैतिक परिवर्तन, सत्ता द्वारा दमन, हिंसा और भय का दस्तावेज है। पढ़ते हुए उपन्यास के कितने दृश्य आँखों में उतर आते हैं। वर्ग, संघर्ष की लड़ाई में मारे गये दो युवकों की माँ अपने-अपने फटे कलेजे को लेकर बैठी हैं और उसी दुःख पीड़ा यातना की बातचीत में वर्ग-भेद का दृश्य दिखता रहता है। सोमू, ब्रती का साथी था। सोमू की माँ अपने घोर गरीबी के जीवन को जीते हुए कहती हैं कि सोमू की बहन को कोई काम नही देता क्योंकि वो सोमू की बहन थी। तो जैसे सुजाता को इस बात का अंदाजा ही नहीं था कि समाज मे ऐसा भी व्यवहार होता है वो कहती है कि ऐसा क्यों हुआ मैं तो काम करती हूँ तब सोमू की माँ कहती है कि आप बड़े लोगों की बात अलग है आपके बेटे का तो नाम अखबार में नहीं आया।
सुजाता को याद आया मुर्दाघर में उसने कुछ लाशें देखी थीं। शमशान में कुछ लोगों का रोना-चीखना सुना था। उन लाशों से उन शोकाकुल स्त्री-पुरुषों के साथ किस गणना के चक्र से वह भी मिल गयी थी, यह उसे तब नहीं मालूम चला। अब समझती है, सिर्फ मृत्यु में ब्रती उन लड़कों के साथ एक होकर नहीं पड़ा था, जीवन में भी वह उन्ही के साथ घुलमिल गया था, उनके जैसा हो गया था। कलकत्ता के संभ्रांत घर की महिला सुजाता को पुलिस से अपने सबसे छोटे बेटे ब्रती की मौत की ख़बर मिलती है। पुलिस मुर्दाघर मे रखी उसकी लाश पर गोलियों के निशान हैं और उसकी पहचान अब मात्र लाश क्रमांक एक हज़ार चौरासी ही रह गयी है।
अपने बेटे की मौत की वजह तलाश करने के अपनी यात्रा मे उसे मालूम पड़ता है की वह एक नक्सल कार्यकर्ता बन चुका था जो एक हमले मे मारा गया था। जैसे-जैसे सुजाता अपने बेटे की क्रांतिकारी प्रतिबद्धताओं और उसके वैचारिक सामाजिक बदलाव लाने के सपनों को करीब से जानने की कोशिश करती है उसके दोस्तों और उसकी प्रेमिका नंदिनी से मिलती है वह एक माँ की जगह एक दोस्त के नज़रिये से उसको देख पाती है। अपने बेटे का व्यवस्था से विद्रोह बरसों से घर की चार दीवारों के अंदर घुट रही सुजाता का अपना विद्रोह बन जाता है। वह अपने पारंपरिक घरेलू परिवेश से बाहर निकल कर तमाम सामाजिक जड़ताओं, दमन, भेदभाव, पुलिस प्रताड़ना और आर्थिक शोषण के ख़िलाफ़ खड़ी होने का साहस दिखाती है।
“ब्रती के जीवन का जो अध्याय उसका अपना बनाया हुआ था जहां वह स्वयं संपूर्ण था। इस अध्याय में वह इन लड़कों के साथ एकात्मक हो गया था यही थे उसके निकट के आदमी सुजाता और घर के लोग नहीं मेरा बेटा मेरा भाई यह शब्द उसके जन्म से निर्धारित कुछ संज्ञा और नाम मात्र थे और कुछ नहीं। लेकिन अपना मत, अपनी आस्था, अपना आदर्श को लेकर उसने अपना एक अलग अस्तित्व बनाया था। जिस भिन्न उसकी सृष्टि उसने की थी वह अपनी माँ को कितना भी प्यार करे या माँ चाहे उसे कितना भी प्यार करे, वह उसे पहचानती तक नहीं थी। सुजाता जिस बेटे को कभी नहीं पहचान पायी, ये लड़के उसके दोस्त थे। इसलिए वे जीवन और मृत्यु दोनों में उससे एकात्म बने रहे। और आज सुजाता भी उन्हीं लोगों से एकात्म है जो इन लड़को के शोक को आजीवन ढोते रहेगें।
सुजाता चटर्जी उच्च मध्यवर्ग की एक पढ़ी-लिखी, कामकाजी महिला है, अपने जीवन में रिश्ते निभाने में ही उलझी रहती है। वे अपने बेटे से बहुत प्यार करती है, लेकिन उस के लिए यह गुत्थी बनकर रह जाती है कि बेटे ने जो किया वो क्यों किया? एक दिन वह पुलिस के हाथों मारा जाता है। जब उसके मृत्यु की खबर उसके परिवार तक पहँचायी जाती है तो उनके परिवार के लिए यह बात बड़ी शर्मनाक बन जाती है। उसके पिताजी श्री दिव्य नाथ चटर्जी अपनी सारी पहुँच लगाकर इस बात को दबा देते हैं कि वह आंदोलन से जुड़ा था। हालांकि सुजाता को असहनीय दु:ख होता है कि एक माँ होकर भी वह अपने लाड़ले बेटे को पहचान न सकी और अपने समाज के यथार्थ को वो खुली दृष्टि से देखने लगीं।
“यह सब जैसे कीड़ों से खाया ब्याधि-ग्रस्त, सड़ा गला कैंसर है। मरे हुए रिश्तों को घसीटते हुए कुछ लाशें जीने का बहाना कर रही हैं। सुजाता को लगा अमित, नीपा, बलाई के पास खड़े होने पर भी शायद उनकी देह से सड़ने की दुर्गंध आने लगेगी।” एक समाज जिसे हजारों लाखों मनुष्यों की चीखें नहीं सुनाई पड़ती, करोड़ों लोगों की भूख नहीं दिखाई देती वो दरअसल भीतर से एकदम संवेदनाहीन हो गया है। जिसे उपन्यास में सुजाता एक सड़े गले ब्याधि ग्रस्त समाज के रूप में देखती है। “यह भ्रूण अवस्था से ही दूषित व्याधि-ग्रस्त हैं जिस समाज को ब्रती जैसों ने उद्धस्त कर देना चाहा था वही समाज हजारों भूखों का अन्न छीनकर इन्हीं को यत्न से पाल-पोस रहा है। उस समाज में जीवन के अधिकारी होते हैं मरे हुए लोग, सचमुच के जीवंत लोग नहीं।
बेटे की मौत के बाद जिस सुजाता का जन्म हुआ है उसकी चेतना इस अन्याय व भेदभाव के समाज को देखकर हाह करती है कि आखिर धरती की सम्पदाओं, कलाओं और मनुष्य के श्रम को क्या यही लोग उपभोग करते रहेंगे। क्या ऐसे समाज के हाथों में ब्रती दुनिया को छोड़कर चला गया। धरती की सब कविता, कविता के बिम्ब, लाल गुलाब के गुच्छे हरी घास, नियॉन की रोशनी, मां के चेहरे पर फैली हंसी, शिशु का क्रंदन..! हमेशा अनंत काल तक इन सब का भोग करती रहेगी ये लाशें! अपने सड़े-गले- गंधाते अस्तित्व के लिए धरती के हर सौंदर्य और माधुर्य को हथियाये रहेंगीं, क्या इसलिए ब्रती मर गया..? सिर्फ इसलिए धरती को इन लोगों के हवाले कर, उनके ही हाथों में सौंपने के लिए क्या उसने अपनी जान दे दी ..? नहीं कभी नहीं!
सुजाता जिस दोपहर ब्रती की दाह-क्रिया के बाद घर लौटती है उसे देखते ही घर में साहयिका के तौर पर काम करने वाली हेम सिर पटकती हुई बिलखकर कर रो उठी। उसने कहा कि अब कौन मुझे सबकुछ भुलाकर दवाई लाकर देगा, कौन मुझे कहेगा कि राशन लेकर सड़क पर पैदल क्यों जाती हो, कौन मुझे डांटकर रिक्शे पर चढ़ा देगा। और उसी ब्रती को उसके पिता दिव्यनाथ “अनफिलिंग सन” कहते थे। ये मध्यवर्गीय चेतना का समाज जो वर्गीय ढाँचे में ही सबकुछ देखता है। उसकी संवेदना, करुणा सब अपने वर्ग और स्वार्थ में सीमित होती है। तमाम तरह के पाखण्ड को ढोता ये समाज खुद को आधुनिक और सभ्य, सांस्कृतिक कहता है।
जिस तारीख को ब्रती की हत्या हुई थी उसी तारीख को आज ब्रती की बहन तुली की सगाई रखी गयी है क्योंकि स्वामी जी ने मुहूर्त बताया है। आज सुजाता का मन नीचे उतरकर सगाई में शामिल होने को नहीं कर रहा है। वह मन ही मन अपने बेटे से बात करती है कि “तू जो कहता है सबसे मुश्किल काम है अपनी तरह का होना। आज अगर मैं अपनी तरह होकर अपनी मर्जी से चल पाती तो। उसने बेटे को जन्म दिया था वह प्रकृति और मनुष्य की मूल प्रकृति के जीवन का वाहक था। वह माँ को माँ की तरह नही एक मनुष्य, एक स्त्री की तरह देखता था। उसे प्यार करता था। बचपन में पिता के अन्याय को सहती माँ को वो मजबूत बनाना चाहता था और कहता था कि मैं तुम्हें एक शेर-बाघ की दहाड़ की छाप वाली साड़ी लाकर दूँगा जिसे पहनकर तुमसे हर कोई डर जाएगा। ब्रती परिवार में एक स्त्री के घुटते जीवन की तकलीफ समझता था। वह बचपन में देखता था सुजाता के परिवार में ब्रती को छोड़कर हर कोई उसे डोमिनेट करता रहता था इसलिए वो माँ से कहता है कि मैं तुम्हें एक शीशे के कमरे में रखूँगा जहां से तुम सबको देख सकोगी पर तुम्हें कोई नहीं देख सकेगा।
उपन्यास के एक दृश्य में सोमू की माँ कहती हैं कि तुम्हारे बेटे का चेहरा मेरी आँखों के आगे दिखता है दिदिया! सोमू की माँ कहती हैं कि जिन लोगों का जीवन गरीबी की यातना में त्रस्त हैं वो इस राह पर आ सकते हैं लेकिन उसके जीवन में तो कोई दुःख नहीं रहा वो इस राह पर कैसे आया। सोमू की माँ का सवाल जितना स्वाभाविक है उतना ही गहरा भी। आखिर भोग-विलास, यश , प्रसिद्ध के रास्ते को छोड़कर वह दुखियारों की राह पर क्यों गया। वो कौन सा विचार था जिसने बंगाल इतने सारे प्रबुद्ध और सुविधा सम्पन्न वर्ग युवाओं को वहाँ खींच लाया जहाँ भूख और गरीबी के जीवन जीते लोगों की आह थी। जहाँ सत्ता बर्बरता से उनकी हत्या का खेल खेलती रहती थी। जहाँ सदियों से श्रम करने वालों का हक मारने वाले बचाये जाते हैं और उनके लड़ने वाले मार दिये जाते हैं। आखिर हिंसा क्या होती है। धनवानों के साथ हुई हिंसा ही हिंसा होती है गरीबों के साथ हिंसा जैसे हिंसा ही नहीं होती।
एक मनुष्य की करुणा उसका न्यायप्रिय मन ही सही अर्थों में आधुनिक मनुष्य बनाता है। सामाजिक न्याय के आंदोलन की तरफ ब्रती अपने इसी मन के कारण गया वो दुनिया को गैरबराबरी और भेदभाव से मुक्ति दिलाना चाहता था। दुनिया को सुंदर बनाने के स्वप्न से बना उसका मन जानता कि मुक्ति अकेले की नहीं होती। वो हमेशा माँ की मुक्ति का स्वप्न देखता था और जब एकदिन ब्रती नहीं रहा तो सुजाता इन सारी बातों को जान पायी मुक्ति की उस लड़ाई को समझ पायी। फिर एकदिन वो उस लड़ाई में शामिल होकर लड़ने वाले उन मनुष्यों की साथी बनती हैं। मूल रूप से 1974 में आए लेखिका महाश्वेता देवी के उपन्यास की प्रसिद्ध को देखा जाए तो इसके प्रकाशित होने के बाद कई संस्करण आ चुके हैं, जाने कितने नाटक इस उपन्यास पर खेले गये। मील का पत्थर बनी गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘हजार चौरासी की माँ’ भी इसी पर आधारित है।