संस्कृतिकिताबें ‘चूड़ी बाज़ार में एक लड़की’ किताब जो बताती है, “कोई लड़की संस्कृति के सामने एक दिन में घुटने नहीं टेकती है”

‘चूड़ी बाज़ार में एक लड़की’ किताब जो बताती है, “कोई लड़की संस्कृति के सामने एक दिन में घुटने नहीं टेकती है”

"कोई लड़की संस्कृति के सामने एक दिन में घुटने नहीं टेकती है। इस समर्पण के लिए उसे धीरे-धीरे तैयार किया जाता है। यह सब उसके साथ किस उम्र में शुरू होता है यह कहना बहुत मुश्किल है।"

“चूड़ी बाज़ार में लड़की”, प्रो कृष्ण कुमार द्वारा लिखी वह किताब है जो स्त्री के गढ़ने के नियमों की पड़ताल करती है। किताब छोटी बच्चियों के दिमाग पर पितृसत्तात्मक प्रभाव के दैनिक जीवन पर होनेवाले नियंत्रण पर बात करती है। लड़कियों के संदर्भ में बचपन क्या है, इसकी जांच करती है। घर-परिवार से लेकर बाहर तक उनके साथ होने वाले व्यवहार की अलग सिरे से व्याख्या की गई है। एक लड़की को एक स्वीकृत औरत बनाए जाने की यात्रा का वर्णन किया गया है। 

यह किताब भारतीय स्त्री की सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक स्थिति का पाठ है। यह बताती है कि पितृसत्ता एक स्त्री को कैसे बनाती है। घर-बाहर, शिक्षा, सार्वजनिक जीवन में उसके लिए तय किए गए नियमों का पालन कर कैसे उसे नियंत्रण में लाया जाता है। किताब में कहा गया है, “कोई लड़की संस्कृति के सामने एक दिन में घुटने नहीं टेकती है। इस समर्पण के लिए उसे धीरे-धीरे तैयार किया जाता है। यह सब उसके साथ किस उम्र में शुरू होता है यह कहना बहुत मुश्किल है।” 

किताब में लड़की से औरत तक के लिए बनाई जटिल सामाजिक संरचना की व्याख्या की गई है। लड़कियों के लिए चलना कुछ है और लड़कों के लिए चलना अलग है। लड़के बचपन से घर से निकलने का एक उद्देश्य बना लेते हैं। उनके लिए इधर-उधर जाना, एक जगह खड़े होकर किसी चीज या दृश्य को देखना सामान्य होता है। इससे अलग लड़की के लिए घर से निकलने का अर्थ पहले से तय जगह पर पहुंचने की शुरुआत से होता है। वे रास्ते में किसी चीज को देखती है तो लोग उन्हे देखना शुरू कर देते हैं और अपनी निगाहों से बताते है कि ऐसे रुकना ठीक चीज नहीं है। यही नहीं, लड़की कितनी ही स्वस्थ्य और मजबूत हो उसके भीतर यह बात डाल दी जाती है कि उसके शरीर में उसकी सामाजिक असुरक्षा की बुनियाद है। इस वजह से घर से बाहर निकलना बच्ची से लेकर लड़की और औरत बनने तक की सामाजिक प्रक्रिया में चिंता का विषय बन जाता है। 

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किताब में कहा गया है, “कोई लड़की संस्कृति के सामने एक दिन में घुटने नहीं टेकती है। इस समर्पण के लिए उसे धीरे-धीरे तैयार किया जाता है। यह सब उसके साथ किस उम्र में शुरू होता है यह कहना बहुत मुश्किल है।” 

हर पड़ाव पर लड़की के लिए अदृश्य नियम बना दिए जाते हैं जिनका पालन करना उसके व्यवहार में रचा-बसा दिया जाता है। एक सड़क का अंतर लड़के और लड़की के मन में अलग डाला जाता है। लड़के के लिए जो स्थिति स्वतंत्रता का भाव लाती है वही लड़की के लिए ऐसी स्थिति जिम्मेदारी, संस्कार और संस्कृति का रूप ले लेती है। किताब में इस बात पर चर्चा की गई है कि सार्वजनिक जगह से उसको अदृश्य करने के लिए उसके व्यवहार में भाव बचपन में ही डाल दिए जाते हैं।

किताब के अंश के अनुसार “जैसे-जैसे लड़की बड़ी होती है, सड़क पर पहले से ज्यादा सिमकटकर चलना शुरू करती है। वह सीखती है कि सड़क उसके लिए असुरक्षित जगह है जिससे उसे सिर्फ ज़रूरत का वास्ता रखना है। उसकी समझ बनाती है कि दुनिया में उसके लिए एकमात्र सुरक्षित जगह उसका घर है। घर में भी एक ही जगह उसकी अपनी है और वह है रसोई। असुरक्षा के नाम पर कैसे उसके जीवन का खुलापन खो जाता है और आखिर में घर का एक तंग संसार उसका जीवन बन जाता है इस पर विस्तार से लिखा गया है।

किताब में आँख, नाक और कान जैसी इंद्रियों के बारे में विस्तार से चर्चा करके बताया गया है कि कैसे लड़कियों की इंद्रियों के व्यवहार द्वारा उन पर नियंत्रण बना दिया जाता है। उनके देखने, सुनने के तय तरीकों से कैसे उन पर सीमाएं बनाता चलता है। किताब में कहा गया है, “लड़कियों के ऐन्द्रिक विकास पर लगी सांस्कृतिक बंदिशें ही उनके दमन का सबसे सशक्त माध्यम करार दी जा सकती हैं। आँखे यानी देखना इन पाबंदियों में सबसे ध्वंसकारी है।”

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लड़कियों को सामने या चारों तरफ न देखकर, नीची निगाह करके चलने की हिदायत देकर हमारी सभ्यता में लड़कियों को एक तरह के अंधेरे में धकेल दिया जाता है। यह संस्कृति किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है। ठीक इसी तरह उसकी चाल को सुंदर करने के लिए ऊंची ऐड़ी की चप्पलों से उसकी चाल को सुंदर बनाने का एक अलग पैमाना बना दिया जाता है। आंख, नाक, कान, जीभ और हथेली का विकास लड़कियों का एक तय व्यवहार के द्वारा किया जाता है जो उसके अस्तित्व को सीमित करता है।  

किताब के तीसरे अध्याय ‘चूड़ी का चिह्नशास्त्र’ में स्त्री के शरीर पर गहने और उनकी सांस्कृति संरचाओं पर बात की गई है जिसमें बताया गया है कि पुरुष की सत्ता इसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करती है। आभूषण स्त्री की देह पर होता है और वह प्रतीक उसके पुरुष से जुड़ी पहचान बताती है। इसके तहत एक नियत नाम से पहचाने जाने वाली औरत की पहचान ही गायब कर दी जाती है। इस अध्याय में उसके गहनों के पहने की जो व्याख्या की गई है वह उसके गहरे मायने समझाती है। जिसमें बताया गया है कि सौंदर्य और आभूषण उसकी देह पर होते हैं लेकिन वे दिखते किसी और को है। वह तो किसी विशेष स्थिति में ही उनको देख पाती है। ठीक इसी तरह चूड़ी की व्याख्या लेखक ने विस्तार से की है और उसके कई पहलू सामने रखे हैं। चूड़ी वाला अध्याय मन में ऐसी गहरी छाप छोड़ता है कि चमकती रंग-बिरंगी चूड़ी सबसे बड़ी बेड़ी के तौर पर प्रतीत होती है।

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लड़कियों के लिए चलना कुछ हैं और लड़कों के लिए चलना अलग हैं। लड़के बचपन से घर से निकलने का एक उद्देश्य बना लेते हैं। उनके लिए इधर-उधर जाना, एक जगह खड़े होकर किसी चीज या दृश्य को देखना सामान्य होता है। इससे अलग लड़की के लिए घर से निकलने का अर्थ पहले से तय जगह पर पहुंचने की शुरुआत से होता है।

किताब के पांचवे अध्याय ‘अभिमन्यु की शिक्षा’ के लेख में लेखक ने जीवन के संघर्ष और शिक्षा प्राप्ति की समस्याओं पर जोर दिया है। बचपन से ही लड़की को स्कूल जाने के साथ ही परिवार की भी जिम्मेदारी संभालनी पड़ती है। शिक्षा के साथ उसका सफर किस तरह से तय किया जाता है उसपर बात की गई है। लड़कियों का गणित क्यों कमजोर होता है, विज्ञान की पढ़ाई में असमानता की समाज की पोषित मान्यताओं का वर्णन किया गया है। कुल मिलाकर किताब में हमारी संस्कृति के नाम पर लड़कियों के साथ भेदभाव के व्यवहार को परत दर परत खोलकर रखा गया है जिसे पढ़कर पितृसत्ता की जड़ों को समझा सकता है। 

किताब में कुल पांच अध्याय हैं जिसमें भारतीय सामाजिक परिवेश में एक लड़की के स्त्री बनाने की सांस्कृतिक स्थिति पर गहरा चिंतन किया गया है। कैसे एक लड़की के व्यवहार पर तय नियम पालन कर उसको कमज़ोर बनाया जाता है और उसके मन में यह बात स्थापित की जाती है। लेखक ने स्त्री के जीवन के हर पड़ाव पर सामाजिक-सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का गहराई से विश्लेषण किया है। मानवीय अधिकारों से वंचित स्त्री की पितृसत्ता के घिरे चक्रव्यूहों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। लेखक ने संवदेनशीलता से बच्ची के उसे औरत बनाने की हर प्रक्रिया पर बारीकी से बात की है जो उसको दोयम दर्जा देती है। किताब हमारे दैनिक जीवन की उस अदृश्य दुनिया की झलक दिखाती है जिसकी संरचना को बदलने की बहुत आवश्यकता है। 

किताब के अन्य पहलू पर बात करें तो इसकी भाषा कुछ कठिन लगी है। भाषा के स्तर से ऐसा लगता है कि यह किताब अकादमिकों या विशेष समूह को ही संबोधित करती है। जिन महत्वपूर्ण विषयों पर किताब में बात की गई है उन्हें सरल शब्दों में लिखकर इसकी पहुंच को आम-हिंदी भाषी तक ज्यादा सुगमता तक पहुंचाया जा सकता था। भाषा की जटिलता किताब को पढ़ते हुए साफ दिखती है। 

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तस्वीर साभारः Education Mirror

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