हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की ओर से जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की जनसंख्या 144 करोड़ तक पहुंच गई है, जिसमें से 24 प्रतिशत 0-14 आयु वर्ग में हैं। भारत की जनसंख्या 77 वर्षों में दोगुनी होने का अनुमान है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश में महिलाएं अभी भी अपने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों का प्रयोग करने में असमर्थ हैं। ‘इंटरवुमन लाइव्स, थ्रेड ऑफ होप एडिंग इनइक्विलिटी इन सेक्शुअल एंड रिप्रोडएक्टिव’ नाम से जारी इस रिपोर्ट में विश्व जनसंख्या की स्थिति के बारे में बात की गई है।
रिपोर्ट में पाया गया है कि यौन और प्रजनन स्वास्थ्य में 30 वर्षों के विकास में दुनिया भर में सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले समुदायों को नज़रअंदाज किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार हमारे सिस्टम और समाज के भीतर लगातार असमानताओं और लैंगिक भेदभाव के कारण यह प्रगति पर्याप्त तेज़ और दूरगामी नहीं रही है और हाशिए पर रहने वाली महिलाओं में सबसे कम सुधार हुआ है। लैंगिक हिंसा लगभग हर जगह ‘भयानक’ बनी हुई है। साल 2016 के बाद से मातृ मृत्यु दर में कुछ कमी देखी गई है और लगभग आधी महिलाएं अभी भी अपने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों का इस्तेमाल करने में असमर्थ हैं।
हालांकि पिछले तीन दशकों में इसकी प्रजनन दर लगभग 3.6 से घटकर 2.4 हो गई है। लेकिन अनुमान है कि भारत 2028 तक लगभग 1.45 बिलियन की आबादी के साथ दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। भारत जैसे मध्यम आय वाले देश में स्वास्थ्य और शिक्षा में महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं, लेकिन व्यापक असमानताएं बनी हुई हैं। मातृ मृत्यु दर और लैंगिक भेदभाव उच्च बना हुआ है। कम उम्र में शादी और 24 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं में गर्भावस्था अत्यधिक मातृ मृत्यु का कारण बनती है। महिलाओं की निम्न स्थिति भी एक कारक है, जो लड़कों की तुलना में लड़कियों के बेहद कम अनुपात में परिलक्षित होती है।
हाशिये पर रहनी वाली महिलाएं कैसे प्रभावित हो रही हैं
भारत के 640 जिलों में किए गए एक शोध से पता चलता है कि एक तिहाई जिलों ने मातृ मृत्यु अनुपात को प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 70 से कम करने का सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) हासिल कर लिया है, वहीं 114 जिलों में अभी भी प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 210 या अधिक मौतों का अनुपात है। उच्चतम प्रति 100,000 जन्मों पर 1,671 मातृ मृत्यु अनुपात अरुणाचल प्रदेश के 53 जिले में पाया गया है, जो एक ग्रामीण क्षेत्र है जहां स्थानीय लोगों का अनुपात अधिक है। सभी महिलाओं को मुफ्त मातृ स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार होने के बावजूद, सबसे वंचित जातियों और स्वदेशी समूहों की महिलाओं को कम प्रसवपूर्व, प्रसवोत्तर और प्रसूति संबंधी देखभाल मिलती है, या बिल्कुल नहीं मिलती है।
कहां असमानता अब भी है बरकरार
रिपोर्ट में दुनिया भर में पिछले तीन दशकों में महिलाओं के क्षेत्र में हुई प्रगति को स्वीकार किया गया है, जिसमें वैश्विक स्तर पर अनपेक्षित गर्भधारण की वैश्विक दर में लगभग 20 फीसद की गिरावट आई है। वहां आधुनिक गर्भनिरोधक तरीकों का उपयोग करने वाली महिलाओं की संख्या दोगुनी हो गई है। कम से कम 162 देशों ने घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून अपनाए हैं और 2000 के बाद से मातृ मृत्यु में 34 फीसद की गिरावट आई है। साथ ही यूएनएफपीए की कार्यकारी निदेशक डॉ. नतालिया कनेम कहती हैं कि इस प्रगति के बावजूद, हमारे समाज और स्वास्थ्य प्रणालियों के भीतर असमानताएं बढ़ रही हैं, और हमने उन लोगों तक पहुंचने को पर्याप्त रूप से प्राथमिकता नहीं दी है जो सबसे पीछे हैं। हमारा काम अधूरा है लेकिन निरंतर निवेश और वैश्विक एकजुटता के साथ असंभव नहीं है।
लिंग आधारित असमान मानदंड स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे में अंतर्निहित हैं, जिसमें दुनिया की बड़े पैमाने पर महिला दाई कार्यबल में लगातार कम निवेश भी शामिल है। विकलांग महिलाओं और लड़कियों को 10 गुना अधिक लैंगिक हिंसा का सामना करना पड़ता है, जबकि उन्हें यौन और प्रजनन संबंधी जानकारी और देखभाल में उच्च बाधाओं का भी सामना करना पड़ता है। एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के लोगों को भेदभाव और अपमान के अलावा इसके परिणामस्वरूप गंभीर स्वास्थ्य, परेशानियां और असमानताओं का भी सामना करना पड़ता है।
युवाओं के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य की बात है ज़रूरी
रिपोर्ट के अनुसार अनुमान है कि भारत में 10-24 आयु वर्ग 26 प्रतिशत है, जबकि 15-64 आयु वर्ग 68 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त, भारत की 7 प्रतिशत आबादी 65 वर्ष और उससे अधिक आयु की है, जिसमें पुरुषों की जीवन प्रत्याशा 71 वर्ष और महिलाओं की 74 वर्ष है। इतनी बढ़ी युवाओं की आबादी वाले देश में युवाओं का स्वस्थ और सम्पूर्ण जीवन जीना आवश्यक है। यौन और प्रजनन स्वास्थ्य (एसआरएच) युवा लोगों के समग्र स्वास्थ्य और विकास का एक महत्वपूर्ण घटक है, जिसमें शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक कल्याण शामिल है। यह जीवन की सबसे महत्वपूर्ण शारीरिक, बौद्धिक और भावनात्मक परिवर्तनों वाली अवधि है, जिसमें यौवन की शुरुआत, यौन जागरूकता और परिपक्वता भी शामिल है। असमान सामाजिक मानदंड और लैंगिक दृष्टिकोण लड़कों और लड़कियों के लिए एसआरएच परिणामों पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं।
लड़कियों को एसआरएच, प्रजनन क्षमता और नारीत्व के बारे में परस्पर विरोधी संदेशों का सामना करना पड़ता है और कई को पीरियड्स से जुड़ी रूढ़िवादी परंपराओं और वर्जनाओं का सामना करना पड़ता है। प्रचलित लिंग आधारित मानदंडों के कारण, कई लड़कियों से शादी की तैयारी के लिए घरेलू ज़िम्मेदारियां उठाने की अपेक्षा की जाती है और अक्सर उनका स्कूल छूट जाता है या माता-पिता द्वारा छुड़वा दिया जाता है। दूसरी ओर, लड़कों के लिए यौवन को पुरुषत्व की शुरुआत के रूप में देखा जाता है, जिसमें मादक द्रव्यों के सेवन, हिंसा और असुरक्षित यौन संबंध जैसी जोखिम लेने वाली प्रथाओं का जोखिम बढ़ जाता है। वे वयस्कों के रूप में कमाने वाले बनने की उम्मीद के साथ भुगतान वाले काम में संलग्न होना भी शुरू कर देते हैं। चूंकि किशोरावस्था में लैंगिक समाजीकरण और आदतों का निर्माण शुरू हो जाता है, इसलिए जीवन में यह समय सकारात्मक दृष्टिकोण, व्यवहार और एसआरएच परिणामों को आकार देने के लिए महत्वपूर्ण है।
भारत में यौन और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल में लैंगिक भेदभाव
यूएनएफपीए रिपोर्ट के अनुसार सुरक्षित जन्म, गर्भ निरोधकों का एक विकल्प, लैंगिक हिंसा से सुरक्षा पहले से कहीं अधिक लोगों ने इन आवश्यक, जीवन-निर्वाह अधिकारों को महसूस किया है। लेकिन इन अधिकारों से वंचित लोगों की संख्या अभी तक शून्य तक नहीं पहुंची है जैसा कि हो सकता है और होना भी चाहिए। भारत में यौन और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के भीतर लैंगिक भेदभाव वर्षों से होता आ रहा है। यह हमें पीढ़ी दर पीढ़ी पुरखों से मिलता आ रहा है। एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रसव देखभाल का इतिहास है, जिसे सदियों से बड़े पैमाने पर महिलाओं का क्षेत्र माना जाता था। महिला दाइयां प्रसव का प्रबंधन करती थीं, जबकि चिकित्सक जो कि पुरुषों तक ही सीमित था, आम तौर पर इससे बचते थे। प्रसव को लंबे समय तक एक महिला रहस्य माना जाता था, और केवल महिलाओं को ही इसका विशेष ज्ञान और समझ थी, जिसमें दवाओं के रूप में जड़ी-बूटियों का उपयोग भी शामिल था।
समय के साथ, पुरुष डॉक्टरों ने महिलाओं को जन्म देने में सहायता करना शुरू कर दिया। आरम्भ में पुरुष केवल जटिल और उच्च जोखिम वाले प्रसव में दाइयों की मदद करते थे लेकिन अब यह उससे अधिक हो गया है। देश के सभी हिस्सों में अभी तक महिलाओं की प्रजनन और स्वस्थ देखभाल पर भेदभाव मौजूद है। अधिकतर महिलाओं के प्रजनन और यौन अधिकार से सम्बंधित फैसले उनके पति लेते हैं। विरासत में मिली पितृसत्तात्मक सोच और प्रणाली महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किये हुए है। इसी कारण लगातार कोशिशओं के बाद भी गहरी लैंगिक असमानता बनी हुई हैं।
गर्भनिरोधक के इस्तेमाल के निर्णय में महिलाओं की एजेंसी
एक महिला की अपने प्रजनन स्वास्थ्य, गर्भनिरोधक उपयोग और यौन संबंधों के बारे में निर्णय लेने की क्षमता लैंगिक समानता और यौन और प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों तक सार्वभौमिक पहुंच के लिए महत्वपूर्ण है। हालांकि, अक्सर महिलाएं एजेंसी और वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण हानिकारक और भेदभावपूर्ण सामाजिक मानदंडों और प्रथाओं के कारण इन मुद्दों पर अपनी स्वायत्तता का प्रयोग करने में सक्षम नहीं होती हैं। लिंग मानदंड महिलाओं के स्वतंत्र या संयुक्त निर्णय लेने में एक महत्वपूर्ण बाधा का प्रतिनिधित्व करते हैं। पितृसत्तात्मक सोच के कारण महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे यौन भूमिकाओं और संबंधों में विनम्र और निष्क्रिय रहें, विवाह में प्रजनन संबंधी दायित्वों को पूरा करें और अपने प्रजनन स्वास्थ्य के संबंध में अपने पतियों के निर्णयों का पालन करें।
यूएनएफपीए के 2022 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की आयु की केवल 45 फीसद विवाहित महिलाएं यौन और प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों के संबंध में अपने निर्णय स्वयं लेती हैं। जिसमें दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में केवल 58 फीसद महिलाएं ही अपने यौन और प्रजनन से सम्बंधित फैसले ले सकती हैं, वहीं गोवा, हरियाणा, गुजरात, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल में केवल 48 फीसद महिलाएं फैसला ले सकती हैं। दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश, बिहार और जम्मू-कश्मीर में 40 फीसद से भी कम महिलाएं प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के बारे में निर्णय ले पाती हैं।
यौन और प्रजनन स्वास्थ्य निर्णय लेने की गतिशीलता महिलाओं की आयु वर्ग और उनके निवास स्थान, शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों में काफी भिन्न होती है। उदाहरण के लिए, वृद्ध महिलाएं और शहरी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाएं अपने निर्णय स्वयं लेने की अधिक संभावना रखती हैं। शहरी क्षेत्रों में भी, दो में से केवल एक महिला ही अपने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में निर्णय लेने में सक्षम है, जबकि बाकी आधी महिलाएं ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं। विवाहित किशोरियों में स्वायत्तता का स्तर बहुत कम है क्योंकि उनमें से केवल 17 फीसद ही अपने लिए यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में स्वयं या अपने साथी के साथ संयुक्त रूप से निर्णय ले सकती हैं।
प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के संबंध में महिलाओं के निर्णय लेने का स्तर उनकी शिक्षा के स्तर से अपरिवर्तित प्रतीत होता है। बिना शिक्षा वाली महिलाएं अपनी स्वास्थ्य देखभाल पर निर्णय लेने में औसत से अधिक भाग लेती हैं। महिलाओं की शिक्षा के विभिन्न स्तरों में निर्णय लेने वालों का प्रतिशत 42 फीसद से 48 फीसद के बीच है। यह स्पष्ट रूप से बताता है कि महिलाओं की उच्च शिक्षा भी उनके यौन और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल पर निर्णय लेने के लिए बातचीत की शक्ति में तब्दील नहीं होती है, और मजबूत पितृसत्तात्मक व्यवस्था और नकारात्मक सामाजिक मानदंड इसे और बढ़ा देते हैं।
आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की लगभग एक-तिहाई महिलाएं ही निर्णय लेने की क्षमता रखती हैं। हालांकि, एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि उच्चतम आर्थिक वर्ग से संबंधित केवल आधी महिलाएं ही इस प्रकार के निर्णय लेने में भाग लेने में सक्षम हैं। यह एक बार फिर पुरुष प्रधान समाज और प्रतिगामी सामाजिक मानदंडों की भूमिका को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। देखभाल के संबंध में महिलाओं के निर्णय लेने का स्तर आम तौर पर जातीयता के आधार पर बहुत भिन्न नहीं होता है। अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों की लगभग 44 फीसद महिलाएं अपने यौन स्वास्थ्य के बारे में निर्णय लेने में भाग लेने में सक्षम हैं, जो इन जातियों (48%) के अलावा अन्य लोगों में थोड़ा अधिक है। यह तथ्य इस बात को बताते हैं कि महिलाओं की पृष्ठभूमि विशेषताओं पर व्यापक नकारात्मक सामाजिक मानदंड हावी हैं।
समानता की प्रगति हासिल की जा सकती है
इससे निपटने और लैंगिक असमानता को कम करने के लिए डॉ. नतालिया कहती है कि सार्वभौमिक यौन और प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों के जनसंख्या और विकास वादे पर काहिरा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को पूरा करने का रास्ता साफ है। इसे प्राप्त करने के लिए हमें अपनी स्वास्थ्य प्रणालियों और नीतियों से असमानताओं को जड़ से खत्म करना होगा और उन महिलाओं और युवाओं पर प्राथमिकता के रूप में ध्यान केंद्रित करना होगा जो सबसे अधिक हाशिये पर हैं और बहिष्कृत हैं। हमें मानवाधिकारों पर आधारित व्यापक, सार्वभौमिक और समावेशी स्वास्थ्य देखभाल और क्या काम करती है इसके साक्ष्य की आवश्यकता है। यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, न्यायसंगत है और संभव है। अंततः समान प्रगति सुनिश्चित करने से पूरे समाज को लाभ होगा। अधिक न्यायपूर्ण और लैंगिक समान दुनिया हासिल करने का लाभ वैश्विक अर्थव्यवस्था में खरबों डॉलर भी जोड़ सकता है।