दिल्ली उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों एक मामले के फैसले में हाल ही में इस बात पर जोर दिया कि पुलिस अधिकारी हो तो भी घरेलू हिंसा की शिकार हो सकती है। साथ ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने अन्य अदालतों से किसी भी पेशे से जुड़े लिंग-आधारित या रूढ़िवादी धारणाओं से बचने का आग्रह किया। यह टिप्पणी उस मामले के निर्णय में न्यायालय द्वारा दी गयी जिसमें सत्र अदालत ने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी के प्रति क्रूरता के आरोप से मुक्त कर दिया था, जो दोनों पुलिस अधिकारी थे। आईपीसी की धारा 498ए के तहत आरोपी को बरी करते समय सत्र न्यायालय के दिमाग में मुख्य रूप से यह विचार आया कि चूंकि याचिकाकर्ता दिल्ली पुलिस में एक पुलिस अधिकारी के रूप में काम कर रही थी, इसलिए विचाराधीन अपराध उसके खिलाफ नहीं किया जा सकता था।
उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने जेंडर नूट्रल निर्णय लेने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए इस बात पर जोर दिया कि अदालतों को आपराधिक आरोप तय करते समय रूढ़िबद्ध धारणाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अदालत ने कहा कि यह मानना कि एक पुलिस अधिकारी घरेलू हिंसा का शिकार नहीं हो सकती, अन्यायपूर्ण और पक्षपातपूर्ण है। उच्च न्यायालय ने दहेज की मांग और यातना के विशिष्ट आरोपों को नजरअंदाज करते हुए, शिकायतकर्ता के पेशे के आधार पर आरोपियों को बरी करने के निचली अदालत के फैसले की आलोचना की। न्यायमूर्ति शर्मा ने सशक्त महिलाओं से जुड़े घरेलू हिंसा के मामलों की जटिलताओं को पहचानने के महत्व पर जोर दिया। अदालत ने न्यायिक शिक्षा में लैंगिक संवेदनशीलता की आवश्यकता पर जोर देते हुए दिल्ली न्यायिक अकादमी से अपने पाठ्यक्रम और सतत शिक्षा कार्यक्रमों में लैंगिक समानता और सांस्कृतिक विविधता जैसे विषयों को शामिल करने का भी आग्रह किया।
क्या है पूरा मामला
इस मामले में याचिकाकर्ता महिला और आरोपी दोनों दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। दोनों की शादी हुई। शादी के बाद याचिकाकर्ता को ससुराल वालों द्वारा पर्याप्त दहेज़ न लाने की वजह से आरोपी के माता-पिता और बहनों के द्वारा ताने दिए जाने लगे और चिढ़ाया जाने लगा। आरोपी व्यक्ति कथित तौर पर दहेज़ की और मांग करने लगा और उसे पूरा न करने पर याचिकाकर्ता के साथ दुर्व्यवहार भी करने लगा। इसके बाद जब याचिकाकर्ता का परिवार उनकी मांग पूरा न कर पाया, तो उन्होंने याचिकाकर्ता को जान से मारने की भी धमकी भी दी। कुछ समय बाद, ससुराल पक्ष के लोगों ने उन्हें अपने वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया। सत्र न्यायालय ने आरोपी पति को यह कह कर बरी कर दिया था कि सर्वाइवर महिला खुद दिल्ली पुलिस में कार्य करती है। ऐसे में उनके साथ घरेलू हिंसा नहीं हो सकती।
उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई में कहा कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत आरोपी को बरी करते समय सत्र न्यायालय के दिमाग में मुख्य रूप से यह विचार आया कि चूंकि याचिकाकर्ता दिल्ली पुलिस में एक पुलिस अधिकारी के रूप में कार्यरत थी, इसलिए विचाराधीन अपराध उसके खिलाफ नहीं किया जा सकता था। एक आपराधिक मामले और मुकदमे को संभावनाओं या धारणाओं से संचालित नहीं किया जा सकता है। इसे उन तथ्यों के आधार पर निर्णय लिया जाना चाहिए, जो रिकॉर्ड से स्पष्ट हैं।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि एक महिला पुलिस अधिकारी का वर्तमान मामला, जहां सिर्फ उसके पेशे के कारण न्याय व्यवस्था को यह मानने में परेशानी हो कि वह भी सर्वाइवर हो सकती है, हमारे छिपे हुए पूर्वाग्रहों को बताता है। विशेष रूप से एक न्यायाधीश के रूप में, यह धारणा बनाए रखना कि एक महिला, एक पुलिस अधिकारी के रूप में अपने पेशे के आधार पर, शायद अपने व्यक्तिगत या वैवाहिक जीवन में पीड़ित नहीं हो सकती है, एक प्रकार का अन्याय है। ऐसी धारणाओं पर आधारित न्यायिक निर्णय, लोगों के जीवन की जटिल वास्तविकताओं को पहचानने से, अदालत के इनकार और कानून, तर्क और सहानुभूति की अवहेलना के उदाहरण हैं।
घरेलू हिंसा में पावर डाइनैमिक्स, शिक्षा और आर्थिक स्थिति की भूमिका
हालांकि ऐसा माना जाता है कि वैवाहिक संबंधों में लिंग-आधारित पावर डायनामिक्स घरेलू हिंसा के प्रति महिलाओं की संवेदनशीलता का आधार है। घरेलू हिंसा के नतीजन शारीरिक, यौन, आर्थिक या मनोवैज्ञानिक नुकसान होता है। घरेलू हिंसा में मार-पीट के आलावा धमकी, जबरदस्ती सम्बन्ध बनाना और अपने साथी को स्वतंत्रता से वंचित करना शामिल है। भारत में, घरेलू हिंसा का अनुभव करने वाली सभी विवाहित महिलाओं में से 84 फीसद ने अपने वर्तमान पति को अपराधी बताया। भारत में इन्टीमेट पार्टनर वाएलेंस (आईपीवी) सांस्कृतिक मानदंडों और रूढ़िवादी सामाजिक संरचना से उपजी अपनी पितृसत्तात्मक प्रकृति में गहराई से निहित है। यह वैवाहिक संबंधों में पुरुषों और महिलाओं के बीच असमान पावर डायनामिक्स की अभिव्यक्ति के रूप में काम करता है।
आईपीवी की उत्पत्ति का पता पितृसत्ता की अवधारणा से लगाया जा सकता है, जैसा कि फ्रीड्रिच एंगेल्स ने अपने क्लासिक काम ओरिजिन ऑफ द फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट में स्पष्ट किया है। एंगेल्स का सिद्धांत है कि कृषि की प्रगति के साथ, निजी भूमि स्वामित्व की आवश्यकता उत्पन्न हुई, जिसके बाद समाजों के भीतर विरासत के महत्व पर प्रकाश डाला गया। परिणामस्वरूप, महिलाओं को संपत्ति की वस्तु के रूप में माना जाने लगा, जिनकी प्राथमिक भूमिका पारिवारिक वंश को बढ़ाना और बनाए रखना था। महिलाओं पर पुरुषों द्वारा लगाया गया नियंत्रण पितृसत्तात्मक प्रभुत्व को कायम रखने का एक उपकरण बन गया, जिससे घर के भीतर पुरुषों का वर्चस्व कायम हो गया। इस प्रभुत्व के लिए कोई भी कथित खतरा अक्सर घरेलू हिंसा की घटनाओं को ट्रिगर करता है।
निम्न शिक्षा स्तर हिंसा को बढ़ावा देती है
महिलाओं का शैक्षिक स्तर भी घरेलू हिंसा में एक महत्वपूर्ण कारक है। शिक्षा का उच्च स्तर न केवल आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान को बढ़ावा देता है बल्कि महिलाओं को मदद और संसाधन लेने के लिए सशक्त बनाता है, जिससे घरेलू हिंसा के प्रति उनकी सहनशीलता कम हो जाती है। निम्न स्तर की शिक्षा और सीमित कामों अवसरों वाली महिलाएं हिंसा का अनुभव करने के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। उन परिवारों में जहां पुरुषों की शिक्षा निम्न स्तरीय होती है, वहां भी घरलू हिंसा के मामले अधिक पाए जाते हैं।
कई बार उच्च शिक्षा वाली महिलाएं शादी देर से करती हैं और ऐसी साथी चुनने में सक्षम होती हैं, जहां वे लैंगिक समानता और सुरक्षा की समझ के साथ आगे बढ़ पाती हैं। वहीं लैंगिक हिंसा के अंतर्गत आर्थिक हिंसा शारीरिक या यौन हिंसा की तुलना में हिंसा का कम प्रचलित रूप है। पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा को बढ़ावा देती है। पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता महिलाओं को न केवल वित्तीय दृष्टि से, बल्कि उनकी शारीरिक अखंडता के संबंध में भी कमजोर बना सकती है। हालांकि कुछ मामलों में महिलाओं की आर्थिक निर्भरता होने के बावजूद हिंसा होती है और वहीँ महिलाओं के सामाजिक तौर पर उच्च स्थिति, स्वतंत्रता या शिक्षा के बावजूद घरेलू हिंसा होने की संभावना होती है। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू हिंसा 31.6 फीसद और शहरी क्षेत्रों में 24.2 फीसद है।
पितृसत्ता का खेल
पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में पुरुषों का मानना है कि उन्हें अपने जीवनसाथी पर शक्ति और नियंत्रण रखने का पूरा अधिकार है। पितृसत्ता की इस विचारधारा को अक्सर स्वयं महिलाओं द्वारा भी बढ़ावा दिया जाता है, जो पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं का पालन करती हैं और दुर्व्यवहार या हिंसा को पति के प्यार या अधिकार समझती है। दुर्व्यवहार की यह स्वीकार्यता सामाजिक अपेक्षाओं और सांस्कृतिक मानदंडों से प्रभावित है जो विवाह के संरक्षण और महिलाओं की अधीनता को प्राथमिकता देते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, जो महिलाएं पति द्वारा अपनी पत्नी की पिटाई को उचित ठहराने के लिए एक या अधिक कारणों से सहमत हैं, उनके लिए शारीरिक या यौन हिंसा की व्यापकता 41-44 प्रतिशत है, जबकि उन महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत है जो पत्नी के साथ शारीरिक हिंसा को उचित ठहराने के किसी भी कारण से सहमत नहीं हैं।
अक्सर लड़कियों की तुलना में लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि परिवार के नाम और वंश को आगे बढ़ाने के लिए पुरुषों को आवश्यक माना जाता है। यह प्राथमिकता घरों के भीतर संपत्ति के वितरण और निर्णय लेने की शक्ति में भी दिखाई देती है, जहां पुरुषों को अधिक अधिकार दिए जाते हैं। ऐसी लिंग-आधारित असमानताएं शक्ति असंतुलन के चक्र को कायम रखती है और महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सामान्य बनाने में योगदान करती है। भारत में, 32 फीसद विवाहित महिलाओं ने बताया कि उन्हें अपने जीवनकाल में अपने पतियों द्वारा शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा का सामना करना पड़ा है। भारत में पति-पत्नी की हिंसा का सबसे आम प्रकार शारीरिक, उसके बाद भावनात्मक और यौन है।
हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने में न हो झिझक
हमारे देश में महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा और क्रूरता के मामले बहुत विविधता देखने को मिलती है। कई बार अपने कार्यस्थल पर प्रभाव और नेतृत्व के पद के बावजूद, ये महिलाएं अक्सर अपने वैवाहिक जीवन में खुद को असुरक्षित और शक्तिहीन पाती हैं। अपने जीवनसाथी और ससुराल वालों द्वारा दुर्व्यवहार और हिंसा का सामना करती हैं। इसलिए, समाज और न्यायायिक व्यवस्था को घरेलू हिंसा के विभिन्न आयाम को समझाना जरूरी है।