गुजरात में कुल 26 में से 25 सीटों पर 7 मई को लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। दुनिया का सबसे ऊंचा स्टैचू ऑफ यूनिटी की बात हो, या मोटेरा स्टेडियम का नाम बदल कर नरेंद्र मोदी स्टेडियम करना हो, गुजरात मॉडल को मोदी सरकार ने दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। साल 2018 में 3,000 करोड़ रुपये की परियोजना की घोषणा करते हुए, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने आदिवासियों को रोजगार के अवसरों का आश्वासन दिया था क्योंकि क्षेत्र में पर्यटन बढ़ेगा।
लेकिन जिस स्टैचू का नाम गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज हो चुका है, उसके पीछे आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की लड़ाई की कहानियां छिपी है। साधु बेट द्वीप, जहां स्टैचू का निर्माण किया गया है, वह स्थानीय आदिवासियों के पूजा का स्थान हुआ करता था। हालांकि आदिवासियों का दावा है कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के आस-पास के 72 गांव हैं जो इस परियोजना से प्रभावित हुए हैं। लेकिन जो छह गांव सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, वे केवड़िया, वाघाड़िया, कोठी, लीम्बडी, गोरा और नवागाम हैं जो साधु बेट के ठीक आस-पास हैं।
यहां न अस्पताल है, न स्कूल और न ही आंगनवाड़ी। यहां के कॉलेक्टर या सरकारी कर्मचारी हमें परेशान करते हैं। स्थानीय लोगों को बहुत कम रोजगार मिला है और अगर वे काम कर भी रहे हैं तो मामूली तनख्वाह पर कर रहे हैं। गांव में कई विधवाएं हैं जो रोड साफ करने और मजदूरी जैसी नौकरियां कर रही हैं।
आदिवासी कैसे करेंगे पुलिस का सामना
स्टैचू से महज 500 मीटर की दूरी पर लीम्बडी गांव में रहने वाली आदिवासी महिला नेता और पंचायत सदस्य दक्षाबेन बरफरिया कहती हैं कि कभी उनके ससुर के नाम पर होने वाली ज़मीन भी सरकार ने ले ली है। आज उसी जगह पर मेन पार्किंग बनाई गई है। स्टैचू के आस-पास प्रोजेक्ट के विस्तार के अंतर्गत, विरोध करने पर सरकार ने उन्हें जमीन के कागज दिखाने के लिए कहा था। लेकिन, कागज़ात दिखाने के बावजूद उन्हें केवड़िया थाने ले जाया गया और पुलिस कार्रवाई भी हुई। उनके 17 और 22 साल के दो बेटे हैं जो फिलहाल रोजगार की तलाश कर रहे हैं।
वह कहती हैं, “यहां न अस्पताल है, न स्कूल और न ही आंगनवाड़ी। यहां के कॉलेक्टर या सरकारी कर्मचारी हमें परेशान करते हैं। स्थानीय लोगों को बहुत कम रोजगार मिला है और अगर वे काम कर भी रहे हैं तो मामूली तनख्वाह पर कर रहे हैं। गांव में कई विधवाएं हैं जो रोड साफ करने और मजदूरी जैसी नौकरियां कर रही हैं। कुछ महिलाएं छोटे-छोटे दुकान भी लगाती हैं। बड़े दुकानों का कान्ट्रैक्ट बाहरी कंपनियों को दिया गया है। हम आज अपनी ही जमीन पर कुछ भी नहीं कर सकते हैं।”
सरकार के रोजगार के कई वादों में एक ‘पिंक ऑटो’ है। इसके लिए महिलाओं को ऑटो चलाने की ट्रेनिंग दी गई थी जहां आज 70-80 महिलाएं काम कर रही हैं। दक्षाबेन बताती हैं, “ऑटो के लिए मंगलवार से शुक्रवार तक महिलाओं को हर दिन 750 रुपए भरने पड़ते हैं। रविवार और सोमवार को 900 भरने पड़ते हैं। लेकिन ये पैसा भरना मुश्किल हो जाता है क्योंकि आम तौर पर इतनी कमाई नहीं होती। ऑटो खराब हो जाए या एक्सीडेंट हो, तो ये भी महिलाओं को खुद संभालना पड़ता है।”
गांवों में न अस्पताल, न स्कूल, न रोजगार
बोरिया, केवड़िया और गरुडेश्वर गांवों में तीन हाई स्कूल हैं जहां आस-पास से बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं। यहां लोग चिकित्सा के लिए गरुडेश्वर में सिविल अस्पताल, राजपीपला या 90 किमी दूर वडोदरा जिले में जाते हैं। जिले में सिर्फ एक अस्पताल है लेकिन वहां भी सुविधाओं की कमी है। नर्मदा के सभी तालुकाओं में क्रियाशील पीएचसी या प्राथमिक स्कूल नहीं है। आज केवड़िया का नाम बदलकर एकतानगर रखा गया और स्टैच्यू ऑफ यूनिटी एरिया डेवलपमेंट एंड टूरिज्म गवर्नेंस अथॉरिटी (SoUADTGA) की स्थापना की गई, जिसका आस-पास के 21 गांवों के प्रशासन पर पूरा नियंत्रण है। जहां वाघड़िया गांव ने इस परियोजना के कारण अपनी सारी जमीन खो दी है, वहीं केवड़िया ने लगभग 90 फीसद जमीन खो दी है। गांव में स्टैचू को लक्ष्य करके 50 बसें चलती हैं। जयेश भावोर केवड़िया गांव से हैं और स्टैचू ऑफ यूनिटी में चलने वाली बस के ड्राइवर हैं। वह बताते हैं, “पगार लगभग 25 हजार है पर हमें हाथ में 16-17 हजार ही मिलते हैं।”
आदिवासियों के जमीन का जो केस गुजरात हाई कोर्ट में चल रहा है, उसकी सुनवाई भी जल्दी नहीं होती और पुलिस फैसले का इंतज़ार नहीं करती। वे लगातार प्रोजेक्ट के अंतर्गत जमीन का अधिग्रहण कर रहे हैं।
क्यों इन गांवों में शिक्षा का स्तर खराब है
शिक्षा के विषय पर गुजरात के रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक रोमेल सुतारिया कहते हैं, “बहुत सारी फर्जी विश्व विद्यालाएं हैं जहां आम तौर पर आदिवासी बच्चों को दाखिला मिल जाता है। इन विश्व विद्यालाओं को अनुसूचित जनजाति बच्चों के नाम पर सरकार से फंड मिल जाती है। लेकिन बच्चों की कोई पढ़ाई नहीं होती क्योंकि उन्हें विश्व विद्यालय जाना नहीं पड़ता या ऐसे जगहों पर बिल्कुल पढ़ाई नहीं होती। वहीं समय-समय पर सरकार ने स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होने के कारण कई सरकारी स्कूलों को मर्ज किया है। स्कूलों में गुजराती में पढ़ाई न होना इन बच्चों के लिए अतिरिक्त समस्या है। जहां एक ओर स्कूलों में इन्हें भाषा की वजह से दिक्कतें आती हैं, वहीं अक्सर स्कूल इन्हें पास कर देते हैं।”
आगे के दिनों के लिए क्या है खतरे की बात
रोमेल बताते हैं कि यहां दो-चार कंपनियां हैं, जहां स्थानीय लोगों को थोड़ा-बहुत रोजगार मिला है। लेकिन सरकार को स्थानीय लोगों को इन कंपनियों में लेने से यूनियन तैयार होने का खतरा महसूस होता है। इसलिए, ज्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार से लोग काम कर रहे हैं। भाजपा की चुनावी राजनीति के बारे में वे कहते हैं, “इलेक्टोरल राजनीति में भाजपा के जोड़-तोड़ को मात देना मुश्किल है। केवड़िया में इतने विरोध के बावजूद स्थानीय चुनावों में बीजेपी जीतती आई है। दूसरा कारण ये भी है कि विपक्ष के तौर पर कांग्रेस बिल्कुल मजबूत नहीं है।”
वह बताते हैं कि आने वाले दिनों में सरकार सापूतारा कॉरिडोर और एयरपोर्ट बना रही है। पर हाई कोर्ट में केस की वजह से ये फिलहाल रुका हुआ है। बता दें, 2020 तक गुजरात सरकार ने आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों द्वारा दायर 62,256 भूमि अधिकारों के दावों को खारिज किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 10 लाख से अधिक आदिवासी और वनवासी परिवारों को बेदखल करने का आदेश भी दिया था। लेकिन रोमेल बताते हैं, “फॉरेस्ट राइट ऐक्ट के अंतर्गत गुजरात में 1 लाख 83 हजार के जैसे क्लैम हुए हैं जिसमें 50 फीसद अप्रूव हुए हैं। चुनाव के कारण इन बातों पर चर्चा नहीं हो रही है।” साथ ही साल 2020 में राज्य सरकार छोटा उदेपुर जिले में अंबाडूंगर नगर क्षेत्र के आस-पास के कुल 109 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अधिसूचित किया है जहां अधिसूचना की तारीख से 5 वर्ष तक परमाणु खनिजों, दुर्लभ पृथ्वी तत्वों सहित और अन्य संबंधित खनिजों के संबंध में रिसर्च की जाएगी।
इलेक्टोरल राजनीति में भाजपा के जोड़-तोड़ को मात देना मुश्किल है। केवड़िया में इतने विरोध के बावजूद स्थानीय चुनावों में बीजेपी जीतती आई है। दूसरा कारण ये भी है कि विपक्ष के तौर पर कांग्रेस बिल्कुल मजबूत नहीं है।
भूमि अधिग्रहण का इतिहास
स्टैचू के लिए जब भूमि अधिग्रहण किया जा रहा था, तो गांव वासियों ने परियोजना का विरोध किया था। लेकिन इन आदिवासियों का संघर्ष स्टैच्यू ऑफ यूनिटी से शुरू नहीं हुआ। यह लड़ाई सरदार सरोवर बांध परियोजना से शुरुआत हुई, जो स्टैचू से 3 किमी दूर है। असल में, सरदार सरोवर कर्मचारी कॉलोनियों के लिए अधिग्रहीत पहले छह गांवों को कभी भी ‘परियोजना प्रभावित’ के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी और वे अभी भी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। जिन 19 गांवों को ‘परियोजना प्रभावित’ के रूप में मान्यता दी गई थी, वहां के स्थानीय भी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि अभी तक वादे के मुताबिक मुआवजा नहीं मिला है।
इस मामले पर पूर्व आम आदमी पार्टी के नेता और आदिवासी कार्यकर्ता प्रफुल वसावा कहते हैं, “गुजरात सरकार 1960 की शुरुआत से ही इस क्षेत्र के गांवों के आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण कर रही है। नेहरू के जमाने नर्मदा डैम वाघाड़िया में बनने वाला था। पर अंत तक ये वहां नहीं बना। हालांकि शुरुआत में गांववासियों ने इसलिए अपनी ज़मीन डैम के लिए दी क्योंकि ये पूरे गुजरात की बात थी। लेकिन आज स्टैचू के माध्यम से इन गांवों की जमीन ली जा रही है और बिजनस हब बनाया जा रहा है। आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से अलग किया जा रहा है। सरकार अनुसूची V का पूरी तरह उल्लंघन करके और ग्राम पंचायतों की इच्छा के खिलाफ़, आदिवासियों के जमीन का अधिग्रहण कर रही है।”
सुप्रीम कोर्ट ने 10 लाख से अधिक आदिवासी और वनवासी परिवारों को बेदखल करने का आदेश दिया था। रोमेल बताते हैं, “फॉरेस्ट राइट ऐक्ट के अंतर्गत गुजरात में 1 लाख 83 हजार के जैसे क्लैम हुए हैं जिसमें 50 फीसद अप्रूव हुए हैं। चुनाव के कारण इन बातों पर चर्चा नहीं हो रही है।”
क्या है हालिया स्थिति
वे बताते हैं, “गुजरात हाई कोर्ट में इन ज़मीनों का केस चल रहा है। गुजारत सरकार कानूनी तरीके से जमीन लेने के लिए कभी रुकी नहीं है। वे लगातार प्रोजेक्ट के अंतर्गत जमीन का अधिग्रहण कर रहे हैं। हमारे गांव में जमीन पर सबसे पहले हमारा अधिकार होना चाहिए। ये सरकार जब भी जाएगी हम साबित कर देंगे कि ये सरकार आदिवासियों का जमीन गैर कानूनी तरीके ली है। बीजेपी के टिके रहने का एक कारण ये भी है कि विपक्ष आदिवासियों के मुद्दों को समझने में नाकाम होती है।”
गुजरात उच्च न्यायालय ने 2020 में केवड़िया, केवड़िया, वाघाड़िया, कोठी, लीम्बडी, वाघाड़िया, नवगाम, गोरा और कोठी गांवों की याचिका को खारिज कर दिया था, जिन्होंने सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएनएल) द्वारा उनकी जमीन पर कब्जा करने को चुनौती दी थी, जिसे मूल रूप से 1961 में गुजरात सरकार द्वारा अधिग्रहित किया गया था। बता दें कि 2020 में केवड़िया से लगभग 4 किमी दूर गोरा गांव के एक आदिवासी युवक ने सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएनएल) द्वारा की गई बाड़बंदी के विरोध में आत्महत्या का प्रयास भी किया था।
आज स्टैचू के माध्यम से इन गांवों की जमीन ली जा रही है और बिजनस हब बनाया जा रहा है। आदिवासियों को उनके जंगल और जमीन से अलग किया जा रहा है। सरकार अनुसूची V का पूरी तरह उल्लंघन करके और ग्राम पंचायतों की इच्छा के खिलाफ़, आदिवासियों के जमीन का अधिग्रहण कर रही है।
रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के समस्याओं के बीच महिलाएं भी कई प्रकार की समस्याओं से जूझ रही हैं। आज गांव में कई विधवा अकेले रोजगार और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रही हैं। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा, रोजगार और सामाजिक न्याय के लिए इन महिलाओं की मदद कर रही एकल महिला मंच की संस्थापक शोभा मालवारी कहती हैं, “सरकार के दिए जा रहे राशन से चलता नहीं है। इन महिलाओं को घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। वहीं जिन महिलाओं की पति की मौत हो चुकी है, उन्हें रोजगार में परेशानी होती है। इस मंच के माध्यम से महिलाएं एकजुट होकर एक-दूसरे की मदद करती हैं।”
नर्मदा जिला मुख्य रूप से आदिवासी बहुल है और राज्य के सबसे पिछड़े जिलों में से एक है। 90 प्रतिशत से अधिक आदिवासी आबादी वाला जिला नर्मदा को 2006 में देश के 250 सबसे पिछड़े जिलों में से एक घोषित किया गया था जो आज भी विकास का इंतज़ार कर रहा है। इस साल गुजरात ने नर्मदा जिले में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के आस-पास पर्यटन परियोजनाओं के लिए 475 करोड़ रुपये से अधिक की घोषणा की है। जहां एक ओर स्टैचू ऑफ यूनिटी के मद्देनजर बड़े होटल, रेस्टोरेंट और कैफै खुल गए हैं, वहीं ग्रामीण आदिवासी विकास के कोसों दूर अपने जमीन और अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं। देखना ये है कि आने वाले चुनावों में एक बार बीजेपी की जीत होती है या हालात में बदलाव होते हैं।