उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर जिले के गाँव मोघपुर की रहने वाली वंशिका कक्षा 9 में पढ़ती हैं। जब पहली बार उन्हें पीरियड्स आए थे तो उनकी माँ ने उन्हें सैनिटरी प्रॉडक्ट की जगह घर में रखे पुराने कपड़े थमा दिए थे। कपड़े की वजह से असहजता, यूनिफॉर्म में दाग लगने का डर, काफी दर्द और शर्म की वजह से वह न केवल उस दौरान स्कूल जाती है बल्कि तब से उन्हें पीरियड्स आने शुरू हुए है वह किसी रिश्तेदारी या अन्य जगह ठहरने तक नहीं जाती है। थोड़ा याद कीजिए बीते वर्ष बिहार राज्य की सरकार और यूनिसेफ के एक कार्यक्रम में किशोरियों के मुफ़्त सैनिटरी पैड्स की मांग करने पर एक सरकारी अधिकारी हरजोत कौर ने इस मांग को अंतहीन बताते हुए कहा था कि इस मांग का कोई अंत है? कल को जींस पैंट भी दे सकते हैं, परसों सुंदर जूते भी दे सकते हैं, अंत में जब परिवार नियोजन की बात आएगी तो निरोध भी मुफ्त में देना पडे़गा। भारत में पीरियड्स पॉवर्टी के कारण 23 मिलियन पढ़ने वाली लड़कियों में अपनी किशोरावस्था में स्कूल ड्रापआउट देखा गया है। ये महज कुछ घटनाएं नहीं है बल्कि दिखाती है कि भारतीय समाज में पीरियड्स के दौरान सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करना कितना बड़ा विशेषाधिकार है।
पीरियड्स को लेकर जागरूकता में कमी और पीरियड्स पॉवर्टी की वजह से भारत में बड़ी संख्या में पीरियड्स होने वाले लोगों को अनेक चुनौतियां का सामना करना पड़ता है। इसी दिशा में देश में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रम भी चलाए जा रहे है और अनेक दिशा-निर्देश तक दिए गए हैं। लेकिन समय-समय पर प्रशासन और सरकार के बेतुके फैसले दिखाते है कि इस दिशा में अभी बहुत संवेदनशीलता से धरातल पर काम करनी की कितनी आवश्यकता है। हाल ही में केरल सरकार का एक फैसला भी कुछ ऐसा ही है। केरल सरकार ने राज्य में सैनिटरी नेपकिन के कचरे को खत्म करने के लिए लोगों से अतिरिक्त शुल्क लगाने की बात कही।
राज्य सरकार के इस फैसले के ख़िलाफ़ अदालत में हुई सुनवाई में इस कदम की देश की सर्वोच्च अदालत ने कड़ी आलोचना की और साथ ही कहा कि यह फैसला मेंस्ट्रुअल हाइजीन और उसकी सब तक पहुंच को बाधित करने वाला है। दरअसल सैनिटरी टैक्स को मंजूरी देने के केरल सरकार का फैसले ख़ासतौर पर सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल को बढ़ावा देने और पीरियड्स के दौरान साफ-सफाई में सुधार के लिए राष्ट्रव्यापी प्रयास को भी बाधित करता है। हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित जानकारी के अनुसार अदालत ने कहा है कि यह कदम मेंस्ट्रुअल हेल्थ पर उसके लगातार रूख से अलग है।
अदालन ने यह टिप्पणी इंदु वर्मा द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर की है। याचिकाकर्ता ने केरल सरकार के उस नियम को रोक लगाने की मांग की है जो इस्तेमाल किए गए सैनिटरी पेड्स और डायपर के कचरे को खत्म करने के लिए लोगों से अतिरिक्त शुल्क वसूलने की अनुमति देता है। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस सूर्यकांत और केवी विश्वनाथन की पीठ ने राज्य सरकार से पूछा है, “एक तरफ तो हम स्कूलों और अन्य संस्थानों में सैनटरी नैपकिन उपलब्ध कराकर पीरियड्स के दौरान हाइजीन सुनिश्चित करने के लिए निर्देश जारी कर रहे हैं, दूसरी तरफ राज्य सैनेटरी के कचरे को खत्म करने के लिए शुल्क ले रहे हैं। यह कैसे हो सकता है? आप इसे उचित ठहराइए।”
जस्टिस वर्मा ने कहा है, “जब सॉलिड वेस्ट मैनजमेंट नियमों में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है तो राज्य सैनिटरी कचरे के खत्म करने के लिए निवासियों से अतिरिक्त शुल्क कैसे ले सकता है? संबंधित विभाग द्वारा सौपी गई एजेंसियों द्वारा लोगों को सैनटरी नैपकिन, शिशु और व्यस्क के डायपर के संग्रह के लिए अतिरिक्त भुगतान के लिए कहा गया है।” साथ ही जस्टिस वर्मा ने कहा कि उनकी याचिका में कचरा संग्रहण के लिए उपयोगकर्ता शुल्क लगाने के प्रावधान की वैधता को भी चुनौती दी गई है। इस तरह के शुल्क की एक परिभाषा होनी चाहिए। सुनवाई के दौरान कोच्चि को विशेष रूप से केरल के उन शहरों में से एक के रूप में गिना है जहां अतिरिक्त शुल्क लगाया गया था। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के इस फैसले पर चिंता जताई।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा है कि आपको सैनिटरी कचरे के लिए अतिरिक्त शुल्क क्यों लेना चाहिए? यह मेंस्ट्रुअल हाइजीन के संबंध में हमारे निर्देशों के उद्देश्यों के विपरीत होगा। आप इसे उचित ठहराना होगा। वर्मा द्वारा सूचित किए जाने पर कि उन्होंने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को याचिका में पक्षकार बनाया है, अदालत ने कहा कि वह सभी राज्यों को पालन करने के लिए ‘व्यापक निर्देश’ जारी करेगी। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मेंस्ट्रुअल हाइजीन स्वास्थ्य चुनौतियां का समाधान करने और पीरियड्स होने वाले लोगों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय उपायों की ज़रूरत पर जोर दिया है, जबकि सरकारों से अपनी नीतियों को तदनुसार संरेखित करने का आग्रह किया है।
फ्री सैनिटरी पैड्स देने पर जोर
भारत में आज भी बड़ी संख्या में पीरियड्स के दौरान लोगों के पास स्वच्छता का विकल्प मौजूद नहीं है। पीरियड्स होने वाले लोग पीरियड्स के दौरान कपड़ा, घास और अन्य चीजों का इस्तेमाल करते है जिनसे इन्फेक्शन होने की संभावना रहती है और जो रिप्रोडक्टिव हेल्थ के लिए सुरक्षित नहीं है। पीरियड्स के दौरान स्वच्छता सुनिश्चित करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने बीते वर्ष केंद्र, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को छठी कक्षा से लेकर 12वीं तक की हर छात्रा को मुफ्त सैनिटरी पैड्स उपलब्ध कराने के लिए एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए मेंस्ट्रुअल हाइजीन मैनेजमेंट पर राष्ट्रीय दिशानिर्देशों पर जोर दिया था। बीते वर्ष नवंबर में कोर्ट ने केंद्र सरकार को शैक्षणिक संस्थानों में कम लागत वाले सैनिटरी पैड्स, वेंडिंग मशीनों की उपलब्धता और उनके सुरक्षित निपटान पर नीति को अंतिम रूप देने का भी दिशा निर्देश दिया था।
भारत में पीरियड्स को लेकर जानकारी और पॉवर्टी कितना बड़ा मुद्दा है
देश में 35.5 करोड़ से अधिक महिलाएं, लड़कियां, ट्रांसजेंडर और नॉनबाइनरी मेंस्ट्रुअल साइकल से गुजरते हैं जिनमें से ज्यादातर लोग ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं। स्वायत्ता और एजेंसी में कमी के कारण उन्हें पीरियड्स के दौरान अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भारत में पीरियड्स को लेकर जानकारी का बहुत अभाव है। इसी साल मार्च में मुंबई में एक 14 साल की बच्ची की आत्महत्या से मौत की वजह पहला मेंस्ट्रुएशन पीरियड बना। किशोरी के पहले पीरियड्स के दौरान दर्दनाक अनुभव और गलत जानकारियों के कारण तनाव में आकर उसने यह कदम उठाया। ठीक इसी तरह बीते वर्ष मई में एक 30 वर्षीय युवक ने अपनी नाबालिग बहन के कपड़ों पर पीरियड्स के खून के धब्बों को सेक्सुअली एक्टिव होना समझकर उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी। यह केवल कुछ घटनाएं भर नहीं है बल्कि दिखाती है कि भारत में पीरियड्स के बारे में जानकारी का कितनी कमी है। आंकड़े दिखाते है कि 29 प्रतिशत से 71 प्रतिशत से लड़कियों को अपने पहले पीरियड्स से पहले इसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती है। पीरियड्स को लेकर अपवित्र जैसी धारणाएं मौजूद है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य परिक्षण (एनएफएचएस-4) का सर्वे दिखाता है कि भारत में 15 से 24 साल की केवल 58 प्रतिशत महिलाएं मेंस्ट्रुअल हाइजीन का ख्याल रख पाती है। मेंस्ट्रुअल प्रॉडक्ट्स का इस्तेमाल आज भी सबके लिए सहज उपलब्ध नहीं है। 50 फीसदी महिलाएं आज भी पीरियड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती है। तमाम आंकड़े दिखाते है कि भारत में आज भी पीरियड्स को लेकर कितनी अज्ञानता है और आज भी मेंस्ट्रुअल साइकिल से गुजरने वाले लोगों की आधी आबादी पीरियड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करने पर मजबूर है। ऐसे में बाज़ार में मिलनेवाले डिस्पोज़बल सैनिटरी नैपकिन को नष्ट करने के लिए शुल्क लगाना इस देश में बड़ी संख्या में मेंस्ट्रुअल साइकल से गुजरने वाले लोगों को हाइजीन से दूर करना है।
पीरियड्स स्वास्थ्य और स्वच्छता को बुनियादी मानवाधिकार के रूप में देखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। पीरियड्स के जुड़ी बातों पर बात जाति, जेंडर और वर्ग के आधार पर करने की बहुत आवश्यकता है। आज भी पीरियड्स को महिलाओं और लड़कियों से ही जोड़कर देखा जाता है। ट्रांस और नॉनबाइनरी लोगों के समूह को इससे नज़रअंदाज कर दिया जाता है। पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं के समावेशी हल निकालने होंगे। ऐसे में सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे कम कीमत पर या मुफ्त में पीरियड्स प्रोडक्ट्स लोगों को मुहैया कराए ना कि उनके कचरे को नष्ट करने के लिए एक अतिरिक्त शुल्क लगाए और सीधे-सीधे एक बड़ी आबादी के लोगों के स्वास्थ्य अधिकार का हनन करें।