‘पहाड़ गाथा – गोंडवाना की संघर्ष गाथा’ उपन्यास स्त्री-नायिकाओं की कथा है और उपन्यास की ये विशेषता है कि इतिहास से लेकर वर्तमान तक सारी लड़ाइयों का नेतृत्व स्त्रियां ही कर रही हैं चाहे मानकी हो या नैना नेताम हों। उपन्यास जहां से शुरू होता है, वहां प्रकृति के सौंदर्य के साथ मृत्यु का एक गीत भी शुरू होता है। उपन्यास जैसे शुरुआत में ही संकेत दे देता है कि प्रकृति के सौंदर्य के साथ दुख का यह गीत उपन्यास में जीवन-राग की तरह चलता रहेगा। उपन्यास में नायिका नैना का होना पर्व, उत्साह, गीत, संगीत, उमंग और प्रेम का होना है।
उपन्यास शुरू होता है प्रेम और अपनेपन के पवित्र रंग से। नैना मेले में बजते मांदल और हुरूख को याद करती है तो अपने प्रेमी की बाँसुरी भी याद आ जाती है। उसकी छोटी बहनें उसके प्रेमी को ‘चरवाहा’ कहकर उसे चिढ़ाती हैं। नैना की बहन नैना के चयन को लेकर सवाल करती है कि तुम बहुत पढ़ी-लिखी हो और वो चरवाहा है। नैना कहती है कि प्यार ज्ञान से नहीं दिल से होता है। प्यार के लिए आदमी होना जरूरी है। वह आदमी जिसकी बूढ़ी बाहें साथ देती रहें। वह आदमी जो सरई की तरह अविचल रहे और मैं उसकी डालियों में फूल बनकर महकती रहूं। उपन्यास का भाषा-सौंदर्य प्रकृति के आदिरूप का सौंदर्य वर्णन है, जहां प्रकृति और मनुष्य दोनों एक होते हैं। उनका प्रेम, मिलन, आकांक्षा, स्वप्न सब प्रकृति के साथ सजते हैं।
शहर और गांव का अंतर
नैना पीएचडी में प्रवेश का पत्र पाकर निहाल हो रही थी। अव्वल मिट्टी की दीवारों पर बड़ा देव को उकेर रही थी। बाबा घन लेकर पहाड़ काटने जा रहा था। थोड़ी ही देर में लिपि-पुती साफ-सुथरी दीवारें और जंगल पहाड़ विश्वविद्यालय परिसर में बदल गए। नैना देखती है कि विश्वविद्यालय हरा-भरा है। चौड़ी सड़के और साफ-सुथरा गोरे-गोरे विद्यार्थी दिखाई पड़ रहे हैं। कुछ विद्यार्थी उसकी तरह भी हैं। गाढ़े रंग का गाढ़ापन उन लोगों को बांध लेता है। नैना के करवट बदलते ही उसके हिस्से का सपना भी करवट बदल लेता है। वह एक ऊंची जगह पर खड़ी है। नीचे उसी के गाढ़े रंग वाले कई साथी खड़े हैं। नैना एक गीत गा रही है।
माटी सा रंग
माटी सा उमंग
जीत ही लेंगे पानी पहाड़ की लड़ाई
आओ साथियों गाओ साथियों
नैना के सपने में आया ये गीत महज गीत भर नहीं, एक नारा है। उस आंदोलन की अनुगूंज है, जो जंगल पहाड़ और पानी के लिए उठा है। नैना देखती है कि कुछ लोग चीखते-चिल्लाते भागते हैं। गोली चलने की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। चीखते-पुकारते चेहरों की जगह, जलते जंगल पहाड़ ले लेते हैं। नदियां सूख गई है। नैना जलते जंगल पहाड़ की आग को बुझाने के लिए दौड़ रही है। इस सपना से उपन्यास की शुरुआत होती है। गोंड खुद को कोयतुर अर्थात कोख से पैदा हुआ कहते हैं। उनका मानना है कि दुनिया स्त्री की कोख से ही कायम है। इस समुदाय ने अपने गण-दर्शन (कोया पुनेम) में माता जंगो रायतार की कल्पना की और जब शासन करने का मौका मिला तो गोंड रानियों को शासन सौंप दिया। गोंड रानियों ने शासन के साथ-साथ वास्तुकला, साहित्य और संस्कृति को उस स्तर पर पहुंचा दिया, जिसका कोई जोड़ नहीं मिलता। इन रानियों ने अपने राज्य में जल प्रबन्धन किया, जो एक मिसाल है।
साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़ी महिलाएं
इस उपन्यास में जब भी जल, जंगल और जमीन पर संकट आता है, तो पहाड़ गाथा की नायिकाएं अपने धीरज को बरकरार रखती हुई साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़ी हो जाती हैं। आदिवासी महिलाओं की लड़ाई में शिक्षा में गैर-बराबरी की है जिसमें पूंजीवाद, पितृसत्ता, नस्लवाद, जातिवाद और अभिज्यात्यवाद जुड़ा है। उपन्यास में नैना नैताम के जरिए आदिवासी समुदाय पर आने वाली आपदाओं, संकटों और उतार-चढ़ाव का आख्यान है। उपन्यास की लय में अनेक लोक कथाएं भी गुथी हुई है। यहां नायिकाएं बोलती कम हैं। हस्तक्षेप ज्यादा करती हैं। वे सवाल करती हैं, लड़ती हैं और नेतृत्व करती हैं।
यह उपन्यास दस्तावेज है उन दमनों, हत्याओं, कुचक्रों और हड़पने की नीतियों का जो थम नहीं रहा है। उपन्यास के सारे किरदार, सारी हत्याएं कहीं से गढ़े नहीं लगते। उपन्यास अपने संवादों में व्यवस्था से सवाल करता है। उपन्यास में कई बार अस्मिता की बहस अलगाववाद की तरफ जाती प्रतीत होती है। ये लड़ाई दिकू और आदिवासी भर की लड़ाई नहीं है। ये न्याय के लिए खड़े हर मनुष्य की लड़ाई है। आज तो हर सच कहते मनुष्य का किसी न किसी रूप में दमन हो रहा है ।आज जिस तरह से विकास और पर्यावरण संकट के नाम पर आदिवासियों की ज़मीने हड़पना , उन्हें बेदखल करना और इस सारी लूट को वैधानिक बताना पर्यावरण और पशु-संरक्षण के नाम पर जंगल के मनुष्यों को जंगल से दूर करना राज्य की उसी साम्राज्यवादी प्रकृति को दर्शाता है।
एक उपभोक्तावादी वर्ग जंगल को मुनाफे की दृष्टि से देखता है। जंगल का दलाल बिलास कहता है कि जंगल माने लकड़ी। जंगल माने आदिवासियों की रार। जंगल माने आदिवासी। आदिवासी मछली का कांटा ठहरे। बिलास जैसे लोगों का इस्तेमाल करके उस धरती को नर्क बनाया जा रहा है। उपन्यास के कितने दृश्यों में उस सुंदर सहज जीवन का चित्र खींचा गया है, जो प्रकृति और श्रम से चलता था। पहाड़ आंचल की गोद में बसे खेड़े का हर आदमी एक से एक गरीब कमाते खाते लोग, मगर हर होठों पर चिड़िया नदी और पहाड़ के गीत। इतने सरल और छल-प्रपंच और पाखण्ड से दूर जीवन को उपभोक्तावादी मुनाफाखोर ताकतों ने उजाड़ और निस्तेज बनाया।
जब उनका जीवन अपने मूल स्वरूप से छूटते हुए बाजारीकरण की ओर जाना पड़ा तो कैसे गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास जैसी चीजों उनकी हत्या के लिए मुँह उठाये खड़ी थीं। उपन्यास का एक अंश है “वह जानता था गरीबी दास्तान दुहरा रही है। गरीबी गरीब की बलि माँग रही है। बाबा शहर में होता तो बच जाता। डॉक्टर की दो एक टिकिया देवता सोखा पर भारी पड़ जाती है। अवधू का अपने कन्धे से गुनिया का हाथ हटाना अंधविश्वास को नकारना है। शिक्षा और विज्ञान के महत्व को अवधू समझता है। गरीबी और शोषण के तंत्र को भी समझता है। उपन्यास में भाषा जैसे एकदम निर्झर और निर्मल होकर दुख में आदिवासियों का साथ देती है।
संस्थागत अपराध और भेदभाव का चित्रण
जिन संस्थानों में संस्थागत अपराध होते हैं, वहां सतह से देखने पर अपराध के कोई चिन्ह नहीं दिखते। लेकिन, जो गैरबराबरी का समाज होता है वहां उसी जाति, वर्ग और नस्ल की गहरी खाई में उनके संस्थान भी उतरे होते हैं। उपन्यास में ऐसे संस्थानों की प्रकृति और उनकी खोखली शान का सटीक चित्र खींचा गया है। हाशिये का मनुष्य जब शिक्षा की ओर बढ़ता है, तो बहुत जल्दी समझ लेता कि व्यवस्था में क्या चल रहा है। नैना विश्वविद्यालय में अपने साथियों से कहती है कि अब तो संविधान तक में दाग लगाने की कोशिश होने लगी है। हमारे पुरखों की लड़ाइयां और विद्रोह को चुराया जा रहा है। हमें आज से नहीं, अतीत तक से बेदखल किए जाने की साजिश रची जा रही है। प्रकृति के साथ-साथ, नागरिकता संविधान और पर्यावरण बचाने की नौबत आती जा रही है।
जब सत्ता अपने दमन में बहुआयामी हो तो लड़ाई भी बहुस्तरीय हो जाती है। उपन्यास में आज की इस अनिवार्यता को जोर देकर कहा गया है कि अगर हम एक नहीं हो पाए तो हम हार जाएंगें। उपन्यास पढ़ते हुए मन में सवाल उठता है कि आखिर कब तक चलेगा धरती और उसके अपने मनुष्यों की हत्या का ये बर्बर खेल। इतिहास कहता है कि आदि मनुष्यों से उनकी धरती छीनने का ये अन्याय सदियों से चल रहा है। लेकिन इधर कुछ सालों में तो राज्य और कॉरपोरेट के लालच ने सभी सीमाएं लांघ दी है। उपन्यास में बार-बार जब संगठित होकर शक्ति बनने की बात आती है, तो बरबस ध्यान चला ही जाता है इस बात पर कि सत्ता की तरफ मुंह होते ही हर उत्पीड़ित उत्पीड़क बन जाता है।
आखिर कौन लड़ेगा ये लड़ाई, पूँजी और सभ्यता के पाखंड में ढले लोग तो कत्तई नहीं। जंगल पहाड़ से आया हुआ मनुष्य भी कहां अछूता रह पाया? आज तो पूरी मनुष्यता और धरती ही दांव पर है। इसलिए, दरकार है लड़ाई की उस चेतना का जो वर्चस्व स्वार्थ और सत्ता का पर्याय न होकर मनुष्यता, न्याय और धरती सहेजने की जिम्मेदारी ले। ‘पहाड़ गाथा – गोंडवाना की संघर्ष गाथा’ एक निरंतर विस्थापन की पीड़ा के साथ आदिवासी लोककथाओं का संग्रह है। साथ ही उस इतिहास में स्त्री-अस्मिता का प्रमुख हस्तक्षेप भी है जहाँ लड़ाई का नेतृत्व हमेशा स्त्रियां कर रही हैं। यह उपन्यास गोंडवाना के अतीत और वर्तमान के आख्यान, लोक कथाओं, लोकगीतों, मिथकों, संघर्षों के साथ विश्वविद्यालय परिसरों की अदृश्य हिंसाओं का कथात्मक दस्तावेज भी है।