सांस्कृतिक और सामाजिक प्रतिबंधों के कारण, हमारे समाज में, पुरुष विशेषाधिकार की धारणा प्रचलित है, जो महिलाओं को पुरुषों के अधीन और हीन मानती है। वैसे तो, कई महिलाएं अपने ऊपर हुए अत्याचारों को सोशल कन्डिशनिंग के तहत स्वीकार कर लेती हैं। ग्रामीण स्तर पर न्याय प्रदान करने की पारंपरिक व्यवस्था अक्सर पुरुष-प्रधान ही है। शायद ही वहां कभी महिलाओं की समस्याओं को ध्यान में रखा जाता है। अक्सर ऐसे फैसले दिए जाते हैं, जो संवेदनशील या समावेशी नहीं होते। महिलाओं को समय रहते न्याय देने की सोच को बढ़ावा देने के लिए, सरकार ने वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली के रूप में ब्लॉक स्तर पर नारी अदालतों का निर्माण किया।
इन अदालतों में परामर्श, सुलह और सुविधा के माध्यम से समस्याओं का समाधान करना आरंभ किया गया। ये अदालतें, विशेष रूप से महिलाओं के लिए समर्पित, सामाजिक बुराइयों और कलंकों को दरकिनार करते हुए, न्याय व्यवस्था को संतुलित करने के प्रयास में लाईं गयी। लेकिन हमारे देश की कानूनी व्यवस्था और नीतियों के क्रियान्वन में लगने वाले समय ने इन्हें भी लगभग असफल सा बना दिया।
महिलाओं के खिलाफ अपराधों के बढ़ते पेंडिंग केस
भारत में, 2014 के बाद से 15 दिसंबर 2022 तक जिला और अधीनस्थ अदालतों में महिलाओं द्वारा दायर 36 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। सबसे अधिक संख्या वाले तीन राज्य – उत्तर प्रदेश जहां 7,80,578 मामले लंबित हैं, महाराष्ट्र में 3,83,463 मामले और बिहार में 3,77,885 मामले लंबित हैं। सरकार द्वारा गठित विभिन्न फास्ट-ट्रैक अदालतों के बावजूद लंबित मामलों की संख्या इतनी अधिक है। 31 अक्टूबर, 2022 तक भारत में जघन्य अपराधों, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ़ अपराध आदि के लिए कुल 838 फास्ट ट्रैक अदालतें कार्यरत थीं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों के बीच महिलाओं द्वारा दायर लंबित मामलों की संख्या गंभीर चिंता का कारण है, जो 2021 में 15.3 फीसद बढ़ गई है। दिसंबर 2023 में लोकसभा में बताया गया था कि देश भर के 25 उच्च न्यायालयों में 61.7 लाख से अधिक मामले लंबित हैं, जबकि जिला और अधीनस्थ अदालतों में 4.4 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिससे देश की सभी अदालतों में कुल लंबित मामले 5 करोड़ से अधिक हो गए हैं।
भारत में न्याय व्यवस्था महिलाओं के लिए है एक मुश्किल रास्ता
महिलाओं को अपने साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ न्याय पाने के लिए लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है। उन्हें शिकायतें वापस लेने के लिए उन्हें अक्सर ‘परामर्श’ दिया जाता है। असमानता कानूनी प्रक्रिया के हर स्तर पर बनी रहती है, जो इस भावना से प्रेरित होती है, जो अक्सर सार्वजनिक रूप से व्यक्त की जाती है कि महिलाएं अपनी शिकायतों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं या कानून का दुरुपयोग करती हैं। महिलाओं के खिलाफ हिंसा को प्रभावी ढंग से कैसे संबोधित किया जा सकता है, इस पर चर्चा में, अक्सर अनुशंसित बात यह होती है कि महिलाओं को बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और आधिकारिक शिकायत करके पहला कदम उठाना चाहिए।
आशय यह है कि एक बार सिस्टम सक्रिय हो गया तो न्याय मिलना निश्चित है। हाल ही में अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस रिव्यू में प्रकाशित हरियाणा में 4 लाख से अधिक एफआईआर के अध्ययन से पता चलता है कि महिलाओं के लिए कानूनी उपचार का रास्ता इतना आसान नहीं है। इसमें पाया गया है कि न केवल महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले, जिनमें महिलाएं प्राथमिक शिकायतकर्ता हैं, दर्ज होने की संभावना कम होती है और अदालत में खारिज होने या बरी होने की संभावना अधिक होती है, बल्कि अन्य प्रकार के मामलों, पंजीकरण से लेकर अभियोजन तक, में भी लिंग पूर्वाग्रह दिखाई देता है। शोधकर्ता इसे ‘बहु-स्तरीय’ भेदभाव कहते हैं।
महिला के खिलाफ हिंसा के कितने गंभीर प्रकार
महिलाओं के खिलाफ सबसे आम अत्याचार हैं- दहेज हत्या, ओनर किलिंग, कन्या भ्रूण हत्या और शिशु हत्या, जादू-टोना से संबंधित हत्याएं, बलात्कार, जबरन सेक्स वर्क, मानव तस्करी, एसिड हमले, जबरन बाल विवाह, घरेलू हिंसा या यौन हिंसा आदि। महिलाओं के खिलाफ होने वाले सभी अपराधों में पतियों और रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता सबसे अधिक होती है। महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने के इरादे से, उन पर हमला करना भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध का दूसरा सबसे प्रचलित प्रकार है।
देश की आधी आबादी को न केवल न्याय की तलाश में ऐसी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, बल्कि सुनवाई के लिए भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसीलिए, सरकार ने अधिक महिला पुलिस स्टेशन और फास्ट ट्रैक अदालतों आदि का निर्माण किया था। ये प्रक्रियात्मक समाधान महिलाओं के खिलाफ बढ़ते मामलों को कम करने के लिए आरम्भ किये गए थे। लेकिन, इन सबके बावजूद महिलाओं को समय पर न्याय नहीं मिल पाता।
महिला अदालतों की आवश्यकता और भूमिका
ऐसे में महिला अदालत महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि के लिए एक जमीनी स्तर की प्रतिक्रिया के रूप में देश में उभरा और उम्र, जाति, वैवाहिक स्थिति, धर्म, क्षेत्र और व्यवसाय के आधार पर बनाया गया है। ये अदालत महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मुद्दों को संबोधित करती हैं, और उन्हें नागरिक के रूप में उनके अधिकारों तक पहुंचने में मदद करती है। नारी अदालत न्याय प्रदान करने वाले तंत्र शिकायतों का जल्द से जल्द निवारण सुनिश्चित करते हैं। वह अदालतों और वकीलों के मुकाबले स्थानीय स्तर पर सस्ती फीस पर काम करते हैं। अदालतें मध्यस्थता और परामर्श के माध्यम से विवादों को सुलझाने और महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने की दिशा में काम करती हैं। काम करने का यह तरीका समुदाय के सामाजिक ताने-बाने को सुरक्षित रखता है जो औपचारिक न्यायिक प्रणाली के संपर्क में आने पर संभव नहीं होता।
नारी अदालत ने औपचारिक न्यायिक प्रणाली के दृष्टिकोण को सुविधाजनक बनाना भी आसान बना दिया गया है। चूंकि भारत पितृसत्ता में इतनी बुरी तरह जकड़ा हुआ है कि यहां पर महिलाओं का बोलना और अपने अधिकार के लिए खड़ा होना ही अपने आप में एक बड़ी बात है। एनसीआरबी और और एनएफएचएस के डेटा देखने और निरीक्षण करने पर यह समझ आता है कि देश में एक ऐसी कुशल प्रणाली और एक सक्षम मध्यस्थता प्राधिकरण की आवश्यकता है जो महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर जमीनी स्तर पर कार्य कर सकें।
महिला अदालत ग्रामीण क्षेत्रों में पूर्ण रूप से सफल क्यों नहीं हो पाईं
जहां अधिकांश शहरी महिलाएं अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ लड़ने के लिए उपलब्ध बुनियादी कानूनी निवारण प्रणालियों से अवगत हैं, वहीं ग्रामीण महिलाएं इस मोर्चे पर काफी हद तक अनभिज्ञ हैं। विशेषकर कम विकसित राज्यों की महिलाओं को उपलब्ध बुनियादी कानूनी सहायता के बारे में जानकारी नहीं है। एक अजीब स्थिति यह भी है कि कभी-कभी महिलाएं भी यह मानती हैं कि उन्हें पुरुषों के अधीन रहना चाहिए और इसलिए, जवाबी कार्रवाई करने के बजाय, क्रूरता को अपना भाग्य मान लेती हैं। इन अदालतों की विफलता का एक कारण यह भी है कि इन अदालतों में काम करने वाले सभी वर्कर प्रशिक्षित नहीं हैं।
दक्षता की कमी के कारण परीक्षण प्रक्रियाओं में देरी होती है। इन अदालतों के फैसलों को अक्सर जूरी सदस्यों की अपर्याप्तता के आधार पर चुनौती दी जाती है। कई बार, प्रभावशाली लोग इन अदालतों के सत्रों में आते हैं और अज्ञानी सदस्यों को बरगलाने की कोशिश करते हैं। ऐसी अदालतों के संचालन का तरीका समय लेने वाला होता है, जिससे बड़ी संख्या में मामले सुनवाई के लिए भी नहीं आ पाते हैं। ये अदालतें महीने में अधिकतर केवल एक बार बैठाई जाती हैं। ऐसी अदालतों के संचालन की आवृत्ति को भी बढ़ाने की आवश्यकता है, ताकि ज्यादा स ज्यादा संख्या में मामलों पर सुनवाई की जा सके।
ग्रामीण के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी बहुत सारी महिलायें अपने अधिकारों और कानून के बारे में जागरूकता के प्रयास करने होंगे। सामाजिक पूर्वाग्रहों ने भी महिलाओं को हर स्तर पर हतोत्साहित करने में अपनी भूमिका निभाई है। समाज की यह पारंपरिक मानसिकता अक्सर महिलाओं के लिए मुश्किल स्थिति पैदा कर देती है। नारी अदालतों को सही से काम करने के लिए सरकार को इसकी नीति और क्रियान्वन में कुछ बदलाव करने की आवश्यकता है। इन अदालतों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने और इनपर जागरूकता की जरूरत है। जागरूकता की कमी के कारण लोग अभी तक इन अदालतों की पहुँच से दूर हैं। इन अदालतों में प्रशिक्षित सदस्यों की कमी है। इन संस्थानों को बेहतर ढंग से काम करने के लिए नियमित पैरालीगल प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए जाने चाहिए। अदालतों को चलाने में आने वाली समस्याओं और उन्हें सुलझाने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए सदस्यों के बीच स्वयं बैठकें आयोजित की जानी चाहिए। इन अदालतों के सत्रों की निगरानी की जानी चाहिए। महिलाओं को भी समझना होगा कि अपने अधिकारों की मांग करना अनुचित या समाज और परिवार के खिलाफ जाना नहीं है।