संस्कृतिसिनेमा मसानः लाशों के शहर में जीवन और आशा की तलाश की एक कहानी

मसानः लाशों के शहर में जीवन और आशा की तलाश की एक कहानी

मसान, वाराणसी शहर के कुछ वासियों की कहानी है जिनमें पारंपरिकता और अधूरी इच्छाएं है। इस कहानी में छोटे शहरों के जीवन के अलग-अलग दंश, धीमी और जकड़ी हुई जिंदगी से बाहर निकलने की कौलाहट भी दिखती है। 

समाज में हो रही कई सारी चीजों को सिनेमा में दर्शाया जाता हैं इसीलिए सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है। इसी तरह निर्देशक नीरज घेवन ने अपनी फिल्म ‘मसान’ के ज़रिये समाज को आईना दिखाने का काम किया। मसान यानी शमशान घाट जहां पर हिंदू धर्म के लोगों का अंतिम संस्कार होता है। मसान, वाराणसी शहर के कुछ वासियों की कहानी है जिनमें पारंपरिकता और अधूरी इच्छाएं है। इस कहानी में छोटे शहरों के जीवन के अलग-अलग दंश, धीमी और जकड़ी हुई जिंदगी से बाहर निकलने की कौलाहट भी दिखती है। 

नीरज घेवन उन निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी फिल्म के ज़रिए सामाजिक मुद्दों, बनारस शहर की वास्तविकता और उसकी चमक-धमक के पीछे अंधेरे में रह रहे लोगों की कहानी प्रस्तुत की है। कहानी तीन लोगों की जिंदगियों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। फिल्म की शुरुआत होती हैं देवी (रिचा चढ्ढा) के अपने पुरुष मित्र के साथ एक होटल में होने पर पुलिस द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। एक पुलिस ऑफिसर (भगवान तिवारी) उनका वीडियो बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करता है और उसके पिता पाठक (संजय मिश्रा) से तीन लाख रूपये की मांग करता है। पाठक अपनी इज्जत को बचाने के लिए जुआ खेलता है और घाट पर रहने वाले छोटे लड़के झोंटा के जीवन को ताक पर रखता है।

फिल्म में स्थिति तब बदलती है जब शालू को इस बात से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता हैं। वह दीपक को कहती हैं, “हमारे माता-पिता जाति को लेकर थोड़े पुराने खयालात वाले हैं मगर तुम चिंता मत करो, अगर भागना भी होगा ना तो भाग जाएंगे।”

फिल्म में दूसरी कहानी डोम जाति के दीपक (विक्की कौशल) की है, जो सिविल इंजीनियर की पढ़ाई कर रहा हैं। उसके घर में चूल्हा, चिता की लकड़ी से ही जलता हैं। कॉलेज की पढ़ाई से बचे टाइम में वह अपने पिता और भाई की मदद के लिए घाट पर चिता जलाने का भी काम करता है। हालांकि चिता की अग्नि अक्सर उसे चिंता में डाल देती हैं। उसके पिता जो की पीढ़ी से यह काम करते आ रहे हैं बार-बार अपने बेटे को पढ़-लिखकर उन सबके जीवन के अंधेरे को खत्म करने की बात करते हैं। दीपक एक सीधा-साधा, साधारण सा लड़का है जो अपनी वास्तविकता से बहुत अच्छे से रूबरू है। उसे एक तथाकथित ऊंची जाति की लड़की शालू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी) से प्रेम हो जाता है। 

एक तरफ है दीपक जो की अपनी और शालू की वास्तविकता को अच्छे से जानता है और एक तरफ है शालू जिसे यही नहीं पता की दीपक रहता कहा हैं? उसके पूछने पर भी दीपक बताना नहीं चाहता कि वो कहां रहता है। बाद में बार-बार पूछने पर वह गुस्से से बता देता है कि वह कौन हैं और कहां रहता हैं और वहां से गुस्से में घर चला जाता है। फिल्म में स्थिति तब बदलती है जब शालू को इस बात से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता हैं। वह दीपक को कहती हैं, “हमारे माता-पिता जाति को लेकर थोड़े पुराने खयालात वाले हैं मगर तुम चिंता मत करो, अगर भागना भी होगा ना तो भाग जाएंगे।”

दीपक को शालू के वादे ने जाति के जंजीरों से मुक्त तो कर दिया था पर उसे नही पता था, किस्मत भी अभी अपना खेल खेलने वाली है। तभी एक बस दुर्घटना में परिवार समेत उसकी मौत हो जाती है। फिल्म की कहानी साधारण सी दिखती है लेकिन एक जगह उसकी पारंपरिकता और रूढ़िवाद पर बैचेनी भी ला देती है। यह फिल्म व्यक्तिगत और सामाजिक क्रूर सच्चाई को बयां करती है। जहां जातीय दमन, आर्थिक कठिनाई, यौन उत्पीड़न, पारंपरिक भूमिका, लैंगिक भेदभाव को पर्दे पर दिखाया गया है। 

फिल्म सभी किरदारों ने अपनी-अपनी भूमिका में बहुत जमे है और अपनी एक्टिंग से न्याय करते नज़र आए हैं। फिल्म के किरदारों की जीवंतता आपको यह विश्वास दिलाएगी कि वह इस किरदार के लिए चुने गए सबसे उम्दा कलाकार थे। संजय मिश्रा पर्दे पर एक बनारस के बेबस रूढ़िवादी पिता की भूमिका को सटीकता से निभाया है। रिचा चढ्ढा तो देवी की भूमिका में बिल्कुल ही रमी नज़र आती है। कई जगह उनकी अदायगी शून्य कर देती है और वह वास्तविकता के बहुत करीब लगती है। विकी कौशल और श्वेता त्रिपाठी अपने रोल में जमी हैं। इस फिल्म में एक छोटी सी भूमिका में पकंज त्रिपाठी भी नज़र आए हैं जो फिल्म में उनकी वहां कि उपस्थिति के साथ न्याय करते है। 

नीरज घेवन उन निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी फिल्म के ज़रिए सामाजिक मुद्दों, बनारस शहर की वास्तविकता और उसकी चमक-धमक के पीछे अंधेरे में रह रहे लोगों की कहानी प्रस्तुत की है।

नीरज घेवन की यह फिल्म रिलीज हुए काफी समय हो गया है लेकिन आज भी इस फिल्म की चर्चा रहती है। उन्होंने बहुत संवेदनशीलता के साथ यह कहानी कही है और विभिन्न पहलुओं को एक साथ जोड़कर दिखाया है। जीवन के छिपे हुए सच सामने रखे हैं। फिल्म के किरदारों को आशावादी दिखाया है और यही जीवन का सत्य है हमें दोबारा चलना ही होता है। चाहे देवी का उस घटना के बाद एक शांति धारण करने के बाद नौकरी हासिल करना हो या फिर दीपक का पढ़ाई पूरी करने के बाद दोबारा आम जीवन में लौटना हो और खुद को आगे बढ़ाना हो। हालांकि किरदारों के जीवन में यह बदलाव कई त्रासदियों से गुजरते हुए आता है। 

फिल्म में कहा गया है कि संगम दो बार आना चाहिए , एक बार अकेले और एक बार किसी के साथ। मैं भी यही कहना चाहूंगी कि इस फिल्म को भी दोबारा देखना चाहिए, एक अकेले औ एक बार परिवार के साथ। बहुत सी कम फिल्में ऐसी होती है जो समाज में पल रही कुरीतियों, रूढ़िवादी सोच को तोड़ते का काम करती हैं, आपको वास्तविकता से इतनी गहराई से रूबरू कराती हैं जिसे देख कर हमें यह यकीन हो जाएगा की आज भी जाति और जेंडर की वजह से लोगों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। फिल्म में बहुत शोर के साथ कुछ संदेश देने की या बदलाव की बहार के बारे में बात नहीं की गई है यही इसकी ख़ासियत है। संवेदनशील होकर जिस तरह से कहानी को कहा गया है वह क्रूर सच्चाई से खुद ब खुद रूबरू कराती है और सोचने पर मजबूर कर देती है।


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