संस्कृतिसिनेमा फ़िल्म ‘सुबह’: स्त्री जीवन के संघर्षों और मूल्यों को दिखाती एक मजबूत कहानी

फ़िल्म ‘सुबह’: स्त्री जीवन के संघर्षों और मूल्यों को दिखाती एक मजबूत कहानी

फिल्म ‘सुबह’ पितृसत्ता के आधार और विचारों के खिलाफ महिला के किरदार को जगह देती है। इस फिल्म में स्त्री जीवन के संघर्षों और मूल्यों को दिखाया गया है। फिल्म सुबह उस आधी जमीन की हकीकत को बयां करती है, जिसपर पितृसत्ता का भार डाला गया है। फिल्म की नायिका सावित्री महाजन की भूमिका में स्मिता पाटिल और सावित्री के पति की भूमिका में गिरीश कर्नाड हैं। फिल्म जहाँ से शुरू होती है, वो दृश्य घर में एक स्त्री की जगह और उसकी घुटन को दिखाती है। सावित्री का पति एक मध्यवर्गीय आधुनिक सोच का व्यक्ति है, जो कुछ हद तक विचारशील भी है। वो सावित्री की घुटन को समझने की कोशिश करता है। वह बाहर घूमने चलने की बात करता है, लेकिन देखता है कि सावित्री उससे खुश नहीं होती।

सावित्री का पति सुभाष उससे कहता है कि गृहस्थी तो चलती रहेगी। सभी की चलती है। आखिर पत्नी का शरीर पाकर पति की बहुत बड़ी जरूरत पूरी हो जाती है। लेकिन उसमें तथ्य नहीं। सावी महिला आश्रम से आया लेटर दिखाना चाहती है, लेकिन सुभाष सो जाता है। दूसरे दिन सुभाष घर में सबको अपने नए केस के बारे में बताता है, जिसमें एक डॉक्टर एक मरीज महिला का बलात्कार करता है। लेकिन सुभाष उसमें महिला को बदचलन साबित कर देगा, परिवार इस बात को सेलिब्रेट करता है। सावित्री की घुटन इतनी बढ़ जाती है कि वो वहां से उठ जाती है।

इस फिल्म में स्त्री जीवन के संघर्षों और मूल्यों को दिखाया गया है। फिल्म सुबह उस आधी जमीन की हकीकत को बयां करती है, जिसपर पितृसत्ता का भार डाला गया है।

महिलाओं के प्रति परिवार के रवैये को दिखाती फिल्म

तस्वीर साभार: Filmfare

फिल्म स्त्री की अस्मिता, उसके उद्देश्य, उसके सपने, उसकी इच्छा और उसके चयन पर एक तार्किक और जमीनी बहस शुरू करती है। आखिर घर-परिवार में खपती स्त्री से समाज में किसका भला हो रहा है। सावित्री कहती है कि डिप्लोमा का कोर्स इसलिए लिया था क्योंकि घर से निकाल दी गयी महिलाओं पर काम करना उसकी दिलचस्पी है। सावित्री के उच्च मध्यवर्गीय परिवार में सास की भूमिका पितृसत्ता के पैरोकार के रूप में दिखती है, जहां वो अपनी बहू के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार्य नहीं करना चाहती है। वो सावित्री के घर से दूर जाकर काम करने का विरोध करती है। उसे अपने बेटे की शारीरिक जरूरतों का अधिक खयाल है। लेकिन सुभाष सावित्री का पक्ष रखता है। इन दृश्यों में सावित्री एक सामान्य औरत की तरह दिखती है। हालांकि वह पति और घर छोड़ने के कारण दुखी है लेकिन दूसरी तरफ एकदम दृढ़ भी है। उसका पति कहता है वह सावित्री की तकलीफ़ और घुटन समझता है।

महिलाओं के सपने और उनकी एजेंसी

तस्वीर साभार: Koimoi

सावित्री का घर छोड़ने का दृश्य बयां करता है कि घर कितना बड़ा बंधन होता है एक स्त्री के लिए। फिल्म में स्वंतत्रता और अधिकार का अर्थ जानते हुए भी कैसे महिला विवाह में खुदको आत्मसात करती है, ये बताया गया है। घर-परिवार, पति बच्चे सब एक महिला के लिए सुविधा हो सकते हैं। लेकिन उसकी अस्मिता, सपने और एक सुंदर दुनिया बनाने के सपने देखने और उसे पूरा करने में कर्तव्य हमेशा रुकावट बनते हैं। महिला आश्रम में आकर सावित्री वहाँ की महिलाओं के जीवन का अध्ययन करती है, तो देखती है कि महिलाओं का जीवन पितृसत्ता के शोषण और अन्याय से भरा है। फिल्म में उन महिलाओं के माध्यम से महिलाओं के जीवन की सूक्ष्म और गंभीर परेशानियों को दिखाया गया है। फिल्म में मैरिटल रेप से लेकर बलात्कार तक, जबरन सेक्स वर्क तक दिखाया गया है।

घर-परिवार, पति बच्चे सब एक महिला के लिए सुविधा हो सकते हैं। लेकिन उसकी अस्मिता, सपने और एक सुंदर दुनिया बनाने के सपने देखने और उसे पूरा करने में कर्तव्य हमेशा रुकावट बनते हैं।

पितृसत्तातमक समाज की महिलाओं से उम्मीदें

आश्रम में भी महिलाओं कि खराब स्थिति दिखती है। वहां आए दिन महिलाओं को जबरन सेक्स वर्क के काम करवाया जाता है। भ्रष्टाचार और स्थिति की गंभीरता से सावित्री निपटने की कोशिश करती है और काफ़ी सफलता भी मिलती है। लेकिन आश्रम की चेयरपर्सन महिला के साथ और सदस्य उसे काम करने नहीं देते। सावित्री यह सोचने पर मजबूर होती है कि असल में दुनिया मुनाफाखोरी पर चल रही है जहां उन महिलाओं को जबरन सेक्स वर्क कराया जा रहा है। समिति के सारे सदस्य पितृसत्ता के समर्थक हैं वे महिला के चयन की इच्छा का मजाक बनाते हैं। फिल्म में फरीदा नाम की लड़की का एक बूढ़े व्यक्ति से शादी के माध्यम से समाज की हाशिये की महिलाओं की स्थिति दिखाने की कोशिश की गई है। समिति के सदस्य फरीदा के साथ घरेलू हिंसा के बावजूद, उसे पति के पास लौटने के लिए कहते हैं जो पितृसत्तात्मक समाज का वो चेहरा दिखाता है जहां महिलाओं से अडजस्ट करने की ही उम्मीद की जाती है।

पितृसत्ता का विरोध करती प्रतीकात्मक किरदार

तस्वीर साभार: Indigenous

आश्रम में सावित्री को उत्पला जोशी जैसी लड़की भी मिलती है जो प्रतिरोध करती है। उत्पला के पिता डॉक्टर हैं। वे चाहते हैं कि उत्पला अपनी बच्ची को छोड़ दे तो वे उसे अपना लेंगे। समिति के सदस्य उत्पला पर दबाव बनाते हैं। लेकिन वो राजी न हुई और सावित्री भी उसके पक्ष में खड़ी दिखती है। उत्पला आश्रम छोड़ने के तैयार हो गई लेकिन अपनी बच्ची को नहीं छोड़ा। फिल्म में सावित्री को आया सपना प्रतीक है स्त्री की घुटन, उसके दमन और उसकी अस्मिता पर छाए अंधेरे का। स्मिता पाटिल अभिनीत ये पूरी फिल्म महिलाओं के संघर्ष और समाज में उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को रखती है और हल भी बताती है। समाज क्यों स्त्री की जगह तय करता है। इंसान की आज़ादी को खत्म करके, हम उसे नहीं सुधार सकते।

सावित्री का आखिरकार घर छोड़ देना, सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में महिला का अपने अधिकार के लिए खड़े होना है। स्त्री जब न्याय के लिए खड़ी होती है, समाज में ऐक्टिविस्ट का जीवन  चुनती है, तो राह कठिन होती है। लेकिन स्त्री के उस जमीन पर हस्तक्षेप करने पर बहुत कुछ बदलाव आता है।

सावित्री इस महिला आश्रम की समिति सदस्यों की गंदी राजनीति और विभिन्न घटनाओं से परेशान होकर इस्तीफे की बात कहती है और घर लौटती है। लेकिन घर आकर उसे लगता है कि उसकी जरूरत किसी को नहीं है। उसकी बच्ची पहले की तरह अपनी चाची और अपने खेल-खिलौनों की दुनिया में रहती है। सुभाष बताते हैं कि तबटक उनका किसी और महिला के साथ शारीरिक संबंध हो चुके हैं। घर जैसी सामाजिक संस्था से सावित्री का मोह टूटता है जोकि एक चेतनाशील और स्वतंत्र विचार की स्त्री के लिए जरूरी कदम होता है।

फिल्म में फरीदा नाम की लड़की का एक बूढ़े व्यक्ति से शादी के माध्यम से समाज की हाशिये की महिलाओं की स्थिति दिखाने की कोशिश की गई है। समिति के सदस्य फरीदा के साथ घरेलू हिंसा के बावजूद, उसे पति के पास लौटने के लिए कहते हैं जो पितृसत्तात्मक समाज का वो चेहरा दिखाता है जहां महिलाओं से अडजस्ट करने की ही उम्मीद की जाती है।

सावित्री का आखिरकार घर छोड़ देना, सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में महिला का अपने अधिकार के लिए खड़े होना है। स्त्री जब न्याय के लिए खड़ी होती है, समाज में ऐक्टिविस्ट का जीवन  चुनती है, तो राह कठिन होती है। लेकिन स्त्री के उस जमीन पर हस्तक्षेप करने पर बहुत कुछ बदलाव आता है। ये फिल्म जोर देकर बताती है कि समाज की भौतिकवादी परिस्थिति और प्रक्रिया समझकर ही स्त्री अपनी राह तय कर सकती है। वह परम्परा और भावुकता से निकलकर ही एक संवेदनशील समाज की संरचना करेगी।

‘सुबह’ फिल्म समाज में बेदखल स्त्रियों और मुक्ति की पूर्ण चेतना की तरफ मजबूत कदम रखती है। यह एक महिला की गरिमा की लड़ाई है, जहां उसे उस सत्ता से लड़ना है, जो स्त्री को घर की चहारदीवारी में रखता है। नयी दुनिया का स्वप्न देखती स्त्री कोई अराजक मनुष्य नहीं होती। वह रहेगी घर और बाहर दोनों जगह, लेकिन अपनी आकांक्षाओं और मनुष्य होने की जरूरतों के साथ। ये तय बात है मुक्ति का रास्ता सहज नहीं। पर मुक्ति की राह है जो सावित्री बताती है कि ‘मैं हार नहीं मानूँगी, मैं लडूंगी।’ वहाँ मुक्ति के रास्ते में सुंदरता नहीं, तमाम तरह की कुरूपताओं से भी सामना होता है। लेकिन उनसे घबराकर उन विद्रूपताओं से मुँह चुराने से काम नहीं चलेगा। संघर्ष करते हुए उसी राह पर बढ़ते जाना होगा क्योंकि वही हमारी राह है। शोषण और अन्याय के विरुद्ध खड़ा हर मनुष्य हमारा सहोदर है।

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