पश्चिम बंगाल के सुंदरबन के डेल्टाई इलाके में रहने वाली सुदीप्ता मंडल, चैताली सरकार और नायरा हालदार जैसी सैकड़ों बाघ विधवाओं के लिए इसी साल के जनवरी के महीने में राहत की एक ख़बर आयी। कोलकता उच्च न्यायालय के जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्य द्वारा जारी इसी वर्ष शुरुआत में 18 जनवरी को दिए फैसले को ऐतिहासिक माना जा रहा है क्योंकि यह पहली घटना है जहां सुंदरबन बाघ हमले के पीड़ितों के परिवार के सदस्यों को अदालत के आदेश के तहत मुआवजा दिया जाना है। उच्च न्यायालय के एक आदेश ने सुंदरबन की हाशिये पर रहने वाली महिलाओं की ज़िंदगी में एक नयी आस दी है। इनमें आदिवासी समुदाय की महिलाएं भी एक बड़ी संख्या भी शामिल हैं। आजीविका के प्रचंड संकट के बीच परिवार के गुजारे के लिए बाघों के संरक्षित इलाके में मछली मारने, केकड़ा पकड़ने या शहद जुटाने गए इन महिलाओं के पति बाघों के हमले में मारे गए या उनके परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी है। यहां इस क्षेत्र में ऐसी महिलाओं को ‘बाघ विधवा’ कहा जाता हैं।
संयुक्त राष्ट्र की विश्व धरोहर स्थल, सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा है, जो गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों द्वारा बना है और यह भारत और बांग्लादेश में फैला हुआ है। यहां लगभग 45 लाख लोग रहते हैं। यहां दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र है, जो रॉयल बंगाल टाइगर का घर है। इसकी खाड़ियां और नदियां मगरमच्छों और जहरीले सांपों से भरी हुई हैं। यह दुनिया में सबसे ज्यादा बाघों की आबादी वाला इलाका है लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा कटाव, इंसानी आबादी को लगातार बाघों के जबड़े में धकेल रहा है। नतीजतन, यहां विधवाओं की संख्या में तेज़ी से इजाफा हो रहा है क्योंकि एक ओर आजीविका के संकट से जूझते लोग जंगलों में जाने का जोखिम उठाते हैं वहीं खाद्य-शृंखला में आते असंतुलन के चलते बाघों को अपने रहवास से इंसानी बस्तियों की ओर रुख करने की विवशता बढ़ती जा रही है।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्ज़र्वेशन ऑफ़ नेचर ने इसके लगभग 10,000 वर्ग किमी का इलाका को ‘सबसे महत्वपूर्ण मानव-बाघ संघर्ष हॉटस्पॉट’ बताया है। लिहाजा यहां हर साल दर्जनों लोग बाघों के हमले में मारे जाते हैं। गोसाबा द्वीप के रजतजुबिली स्थित सुंदरबन रुरल डेवलपमेंट सोसाइटी (एसआरडीएस) के अर्जुन मंडल विधवाओं की बदहाली को बयां करते हुए कहते हैं, “समाज के दुत्कार और बहिष्कार के डर से ये महिलाएं अपने दर्द की कड़वी घूँट पीकर रह जाती हैं। मगर अपनी जिंदगी को ऐसे जीती है कि जैसे सब कुछ ठीक-ठाक है। कुछ हुआ ही नहीं है।” उनकी संस्था ने मछुआरों और उनके परिवारों की मदद से साल 2006 से 2016 के बीच एक सर्वे कराया, जिसके मुताबिक़ सिर्फ लाहिरीपुर नाम की जगह पर 260 परिवारों ने घर के रोजी रोटी कमाने वाले शख्स को खोया है।”
अदालत ने संभू मंडल की पत्नी सरोजिनी मंडल और औलिया की पत्नी सरस्वती औलिया को मुआवजा दिया है। ख़बरों के मुताबिक 17 अक्टूबर, 2019 को पंचमुखानी वन क्षेत्र में मछली पकड़ने के दौरान गोसाबा प्रखंड के लाहिरी पुर ग्राम पंचायत के निवासी दो मछुआरों की एक साथ मौत हो गई थी। उनकी विधवाओं, जिन्होंने पहले महिला आयोग में अपील की थी और फिर एक गैर- लाभकारी संस्था दखिनबंगा मोत्सोजीबी सोन्स्था (दक्षिण बंगाल मछुआरा संघ) और सुंदरबन बयाघ्रो बिधोबा समिति (सुंदरबन टाइगर विडो एसोसिएशन) के सहयोग से यह मामला अदालत में पहुंचाया गया। अदालत ने अपने आदेश में कहा गया है, “दोनों मामलों में याचिकाकर्ता अपने-अपने पतियों की जान के नुकसान के लिए 26 फरवरी, 2021 के सरकारी आदेश के तहत पूर्ण मुआवजे के हकदार हैं।” अलग-अलग रिट याचिका समान प्रकृति के कारण सुनवाई के लिए एक साथ ली गईं।
कोलकाता स्थित नेशनल फिशवर्कर्स फोरम के सचिव प्रदीप चटर्जी कहते हैं, “हालांकि बाघ अभयारण्य के मुख्य क्षेत्र में प्रवेश करना अवैध है, सुंदरबन के ग्रामीणों को जीवित रहने के लिए वैकल्पिक अवसर प्रदान नहीं किए गए हैं और चूंकि बफर जोन में मछली और केकड़े की पैदावार पर्याप्त नहीं है, इसलिए हर दिन अपनी जान जोखिम में डालने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा है। उनके पास केवल दो विकल्प हैं भूख से मरना या खुद को बाघों के जोखिम में डालना।” लेकिन सुंदरबन की हजारों बाघ विधवाओं की किस्मत इन दोनों महिलाओं जैसी नहीं है। उनके सामने आजीविका का बड़ा संकट है और न ही कोई अन्य सहारा है अन्यथा ऐसी कहानियां बनती ही क्यों?
सरकार की ओर से कोई सहायता नहीं
गोमदी नदी के किनारे बसे दोबांकी की रहने वाली 50 वर्षीय मंजरी मंडल की किस्मत का खेल देखिये, जिस दिन बेटा पैदा हुआ, उसी दिन बाघ उसके पति रबि मंडल को जंगलों में घसीटकर ले गया। अपने उन दिनों को याद करते-करते मंजरी का चेहरा जैसे सपाट हो जाता है। वह कहती है, “पिता का साया उठने के बाद बच्चों को पालने के लिए हर तरह का काम किया। नदियों में दिन-दिन भर कमर तक पानी में जाल लेकर झींगा मछली के बीज जुटाकर उन्हें बाजार में बेचकर गुजारा किया।” मंजरी ने जैसे वक़्त के साथ समझौता करना ठीक समझा और उस समझौते का सिलसिला कोई पंद्रह साल चला। लेकिन किसी तरह की सहायता सरकार की ओर से नहीं आयी।
बाघ विधवाओं के लिए रोजगार की समस्या
बासंती बिस्वास (26) ने चार साल पहले अपना पति खो दिया था। अब स्किल इंडिया या किसी और तरीके से आत्मनिर्भर होना चाहती हैं। लेकिन सुंदरबन के दलालों की फ़ौज उनसे कुछ और की उम्मीद करती है। तमाम विपरीत परिस्थितियों और आजीविका की जानलेवा परम्परा का सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर पड़ता दिख रहा है। उत्तर 24 परगना जिले में बिद्याधारी नदी के तट पर रहने वाली सौरवी रॉय (50) अपने पति के साथ शहद इकट्ठा करने के लिए मुख्य वन क्षेत्र में गई थीं और वहीं उसके पति को एक बाघ ने मार डाला है। छह महीने बाद, उसका किशोर बेटा जिसने जंगल से शहद इकट्ठा करना शुरू किया था, उसे भी एक बाघ ने मार डाला। उसके लगभग तुरंत बाद, सौरवी ने मगरमच्छ के हमले में अपनी बेटी को खो दिया। तब से, वह खेती कर रही है और एक गैर-सरकारी संस्थान द्वारा संचालित खादी केंद्र में सूत कात कर अपने जीवन को फिर से बनाने की कोशिश कर रही है।
चक्रवाती तूफान के बाद स्थिति और खराब
उधर पांच साल पहले अपना पति गंवा चुकी उरुसा दास के पास खेती की तीन बीघा ज़मीन है लेकिन अब कोई तीन साल के लिए खेती मुमकिन नहीं है। इस महीने तकरीबन 135 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली हवाओं के साथ, गंभीर चक्रवाती तूफान रेमल बांग्लादेश और उससे सटे पश्चिम बंगाल के तटों के बीच टकराया था, जिससे भारी बारिश हुई जिससे घरों और खेतों में समुंदर से आये ज्वार का पानी भर गया। वह बताती है कि यह विनाश का कारण बनेगा। उल्लेखनीय है कि भारत और बांग्लादेश के यह तटीय क्षेत्र मैन्ग्रोव के जंगलों से घिरा सुंदरबन का डेल्टाई इलाका है, जिसका 60 फीसदी हिस्सा बांग्लादेश में है और बाकी भारत में। भारत वाले भू-भाग में कुल जमा 102 द्वीप हैं जिनमें 52 पर इंसानी रिहाइश हैं जबकि शेष टापू रॉयल बंगाल की प्रजाति के बाघों का आरक्षित इलाका है। जलवायु परिवर्तन के कारण पारिस्थिकी तंत्र बिगड़ रहा है और बाघ और मनुष्य के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है। पारिस्थितिक रूप से नाजुक क्षेत्र में बाघों के आवास को कम कर दिया। बाघों के संरक्षण में सक्रिय पर्यावरणविद अनिल मिस्त्री कहते हैं, “फिलहाल, जंगलात विभाग के मुताबिक़ यहां बाघों की कुल आबादी 106 है जब कि 2002 में 440 आंकी गयी थी।”
बाघ विधवाएं और उनका संघर्षपूर्ण जीवन
सालों-साल समुद्र के बढ़े जलस्तर और ऊपर से बढ़ती जनसंख्या की वजह से इस डेल्टा के इकोसिस्टम पर दबाव बढ़ रहा है। बाघ विधवाएं झींगों की पैदावार और छोटी-मोटी खेती बाड़ी के जरिए अपना गुजारा चला लेती हैं। उसी तरह कुलताली गॉंव की बबीता मंडल (38), कालीताला गॉंव की सोनामोनी (46) और लाहिरीपुर की ताप्ती मंडल (38) की कहानी सुंदरबन में सांसें लेती कमजोर ज़िंदगी की दुखद बानगी है। बबीता के मुताबिक, “उसके पति अपने पांच साथियों के साथ जंगलों में शहद जुटाने गए थे और शाम में लौटने की तैयारी में थे, तभी बाघ ने इस कदर तेजी से उनपर झपट्टा मारा कि साथी समझ ही नहीं पाये कि क्या करें और उनकी लाश भी नहीं मिल पायी। पति को खो देने के बाद, मैं बिलकुल अनाथ हो गयी और परिवार का पेट भरना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी।”
घर में ही यौन हिंसा का करना पड़ता है सामना
आजीविका को लेकर इन विधवाओं की ज़िंदगी समाज की उपेक्षा से उपजी एक अलग किस्म की अड़चनों से हताश हो जाती है। दुर्गापुर की पंचमी नया कहती हैं, “हम जैसी विधवाओं को जल्दी काम भी नहीं देता। क्योंकि अपने समाज में लोग यही मानते हैं कि हम जैसी विधवाओं ने अपने पतियों को मारा है। लोग हमसे दूरी बनाकर रहते हैं। अपने घरों में भी कोई सम्मान नहीं मिलता।” चोटोहार्दी की रहने वाली रुनु मंडल (बदला हुआ नाम) खुलकर अपनी बात रखते हुए कहती है, “पति खोने के बाद जिंदगी में कुछ रहा नहीं। आस-पास के लोग क्या घर में जुल्म का सिलसिला बढ़ता चला गया। घर में ही मेरी सास खुलकर पति की मौत का इल्ज़ाम लगाती है। बच्चों को पालने की मजबूरी ने उस घर से मुझे बांधे रखा। पति की मौत के कोई साल भर के बाद मेरे देवर ने मेरा बलात्कार किया। यह मेरी सास की जानकारी में था और यह सिलसिला बन गया। मेरे देवर ने इस तरह लगातार मेरा यौन शोषण किया।”
कोलकाता स्थित सुंदरबन सोशल डेवलपमेंट सेंटर की सचिव दिपन्विता सरकार बताती हैं कि मैंग्रोव जंगलों का एक बड़ा हिस्सा बांग्लादेश में है और सुंदरबन में रहनेवाले बाघों की 60 फीसद आबादी बांग्लादेश के जंगलों में है। चूंकि बांग्लादेश में जंगलों की जमकर कटाई हुई और वहां बड़ी संख्या में बाघों का शिकार किया गया है। इसके कारण बाघों को भारत का सुंदरबन महफूज ठिकाना लगता है। लिहाजा, सीमा से लगे हिंगलगंज, हसनाबाद, संदेशखाली, हिंगलगंज के अलावा गोसाबा, कुल्टी, पाथर प्रतिमा और बसंती ब्लॉक के जंगलों में मौजूद बाघ उन ग्रामीणों के लिए खतरा बन चुके हैं, जो अपनी दैनिक ज़रूरतों और आजीविका के लिए जंगलों पर आश्रित हैं। ये तमाम ब्लॉक सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान (और बाघों के लिए संरक्षित क्षेत्र) के नजदीक है, जिसमें लगभग 1,700 वर्ग किलोमीटर का कोर क्षेत्र और लगभग 900 वर्ग किलोमीटर का बफर क्षेत्र शामिल है, जहां आजीविका से संबंधित कुछ गतिविधियों की अनुमति है। आम तौर पर, ऐसा देखा गया है कि करीब के गांवों के पुरुष यहां के जंगलों में मछली और केकड़ा पकड़ने या फिर शहद और लकड़ी इकट्ठा करने के लिए घूमते रहते हैं।
मुआवजे से जुड़ी पेचीदगी
मुक्ति गैर-सरकारी संस्था की अंकिता कोटियाल बताती हैं कि मृतकों के परिवारों को शायद ही कोई मुआवजा मिलता है जबकि स्थायी कानून है कि वन विभाग को परिजनों को 5 लाख रुपये का भुगतान करना चाहिए। राज्य वन विभाग का कहना है कि बाघ के विभिन्न हमलों से इस डेल्टाई इलाके में होने वाली मौतों की संख्या प्रति वर्ष लगभग सात से आठ होती है। वहीं सुंदरबन फॉउंडेशन नामक गैर-सरकारी संस्था के प्रमुख प्रसेनजीत मंडल के मुताबिक़, “वास्तविक संख्या लगभग डेढ़ सौ से दो सौ के बीच अनुमानित है।”
मुआवजे की पेचीदगी को बताते हुए एक एनजीओ से जुड़े अर्जुन मोंडल विस्तार से बताते हैं, “ये विधवाएं पश्चिम बंगाल सरकार के जंगलात विभाग, मछली पालन विभाग और राज्य की समूह व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना, तीनों की हक़दार हैं। यानी कुल मिलाकर लगभग तीन से पांच लाख रुपये के मुआवज़े की रकम उन्हें मिल सकती है।” वह आगे उलझावों से जुड़ी शर्तों का जिक्र करते हुए कहते हैं, “मौत मुख्य क्षेत्र में नहीं होनी चाहिए। मृतक के पास नाव के लाइसेंस का प्रमाण पत्र (बीएलसी) के साथ-साथ वन विभाग का परमिट होना चाहिए। इसके अलावा, मुआवजा पाने के लिए पत्नी को विभिन्न विभागों में कई दस्तावेज भी जमा कराने पड़ते हैं।”
अर्जुन खुद एक मछुआरे हैं, लेकिन अपनी लाचारी वह खुद बयां करते हुए कहते हैं, “हमें यह पता ही नहीं चलता कि बफ़र ज़ोन कहां समाप्त हो रहा है और कहां से मुख्य क्षेत्र शुरू होता है। सरकार बहुत कम बीएलसी जारी करती है और हर कोई इतना ख़र्च भी नहीं कर सकता। दिक्क्त की बात है कि परमिट जारी करना भी जंगलात विभाग की इच्छा पर निर्भर है। इसलिए मृतकों की विधवाएं संकटों और बाधाओं में घिर कर मुआवजे को भूल जाना बेहतर समझती हैं। ख़ास तौर से जिनके पास बीएलसी या परमिट नहीं होता, उनके लिए तो सबकुछ मुश्किल हो जाता है। इतना ही नहीं स्थिति तब और भी ख़राब हो जाती है जब पुरुषों की मृत्यु मुख्य क्षेत्र में हो जाए, जहां ग्रामीणों को प्रवेश करने की बिल्कुल भी अनुमति नहीं है, चाहे उनके पास परमिट हो या ना हो।”
बबीता के मुताबिक, “उसके पति अपने पांच साथियों के साथ जंगलों में शहद जुटाने गए थे और शाम में लौटने की तैयारी में थे, तभी बाघ ने इस कदर तेजी से उनपर झपट्टा मारा कि साथी समझ ही नहीं पाये कि क्या करें और उनकी लाश भी नहीं मिल पायी। पति को खो देने के बाद, मैं बिलकुल अनाथ हो गयी और परिवार का पेट भरना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी।”
सरकार की योजनाएं, आस और आखिरी विकल्प
सुंदरबन में रोजगारपरक मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाएं है और तसल्ली परोसता राइट टू फूड भी है। लेकिन इन तमाम योजनाओं की धरातल पर स्थिति गायब है। आजीविका के संकट के कारण जंगलों में जाना यहां के रहवासियों की मजबूरी है जिन जंगलों में बाघों का एकछत्र राज है। मौत के इस शाश्वत सिलसिले से इस इलाके में विधवाओं की एक बड़ी आबादी तैयार हो चुकी है, जो किसी सरकारी राहत-पुनर्वास की उम्मीदें लगाएं रहती हैं, क्योंकि उन्हें सरकार पर पूरा भरोसा है। ये विधवाएं आज अपने साथ पूरे परिवार की ज़िंदगी जैसे-तैसे खींच रही दिखती हैं। लेकिन दुःख का विषय यही है कि विकास की कोई नीति-कार्यक्रम या पैकेज की कसौटी में ये विधवाएं समंजित नहीं हो पातीं।
सुंदरबन में बाघों के संरक्षण के लिए सक्रिय अनिल मिस्त्री कहते है, “आवागमन वहां बहुत मुश्किल है और सरकार की योजनाएं ज़मीनी स्तर पर लागू करवा पाने में सरकारें असफल रही हैं। गॉंव के स्तर पर कार्यक्रमों का तरीके से निष्पादन नहीं किया जा सका है। इस कारण लोग जंगल में बाघों को अपनी ज़िंदगी सौंप देते हैं। यह मानवीय ज़िन्दगी में ख़ुम्सी लाचारी की हद है।” बाली द्वीप की आरती विश्वास भी उन वंचित विधवाओं में एक हैं जिनके पति सुगल विश्वास भी मछली पकड़ने गए थे, लौटकर नहीं आये। लेकिन आरती को कोई मुआवजा नहीं मिला। जैसे- तैसे दिन गुजारकर इन्होने अपने बेटे को बड़ा किया, जो खेतों में काम कर लेता है लेकिन जंगलों का मुंह आज तक नहीं देखा। मुआवजे को लेकर सुंदरबन के लोगों में गहरी निराशा रही है।
गोसाबा ब्लॉक के जहर कॉलोनी गांव की निवासी, शिखा मंडल के पति असित मंडल को नवंबर 2015 में खो दिया था। वह दो अन्य पुरुषों के साथ बगानबाड़ी जंगल में, गराल नदी से केकड़े पकड़ने गए थे। अन्य दोनों लौट आए और आकर मुझे बताया कि एक बाघ मेरे पति को लेकर दूर चला गया। शिखा ने मुआवजे का दावा करने का मन बनाया और अपनी मदद के लिए एक वकील को 10,000 रुपये दिए। इसके लिए कई कागजात और दस्तावेज़ इकट्ठा करने थे; जैसे कि पुलिस और वन विभाग से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट (एनओसी), बीमा कार्ड, गांव के प्रधान से एक पत्र और मृत्यु प्रमाण-पत्र।
शिखा कहती है, “वन विभाग ने एनओसी देने से मना कर दिया, क्योंकि मेरे पति की मृत्यु मुख्य क्षेत्र में हुई थी। बीमा कंपनी ने एक लाख की रकम का भुगतान किया है लेकिन अभी तक दस्तावेज़ नहीं लौटाए हैं।” शिखा अब केकड़े और झींगे पकड़ती हैं, छोटा-मोटा काम और खेतीहर मज़दूरी करती हैं, और किसी तरह से अपने बेटों को स्कूल भेजती हैं। ख़ुद अपना घर चला पाने में असमर्थ होने की वजह से, वह और अपने बच्चे के साथ देवर के घर में रहते हैं। कोलकता उच्च न्यायालय के जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्य के इस नवीनतम फैसले से शिखा मोंडल जैसी अनगिनत बाघ विधवाओं की ज़िन्दगी में उम्मीदों की रोशनी बढ़ती जा रही है।