बीते दिनों राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) द्वारा आयोजित संपत्ति कानूनों के तहत महिलाओं के अधिकार पर विद्वानों, वकीलों, पूर्व जज आदि से महिलाओं के संपत्ति कानूनों पर विधायी सुधारों का आह्वान किया। विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों और अन्य प्रथागत प्रथाओं के तहत महिलाओं के संपत्ति अधिकारों से जुड़ी जटिलताओं पर चर्चा करते हुए, एनसीडब्ल्यू के विशेषज्ञों ने संपत्ति संबंधित कानूनों में मौजूदा असमानताओं को दूर करने और महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए विधायी सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया।
इस परामर्श में हिंदू कानून, मुस्लिम कानून, पारसी कानून, ईसाई कानून और अन्य प्रथागत प्रथाओं के तहत महिलाओं के संपत्ति अधिकारों से जुड़ी जटिलताओं पर चर्चा की गई। पूर्व उच्च न्यायालय न्यायाधीश दीपा शर्मा ने भारत में महिलाओं के संपत्ति अधिकारों की जटिल प्रकृति पर प्रकाश डाला। भारत में महिलाओं के संपत्ति के अधिकारों को पूरा करने में धर्म, वैवाहिक स्थिति, रिश्तेदारी मानदंडों और जनजातीय सम्बद्धता आदि बाधाएं शामिल हैं। शर्मा ने विभिन्न राज्यों और धर्मों में असमानताओं पर बात की, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार सीमित हो जाते हैं, जिससे उनकी आर्थिक स्वायत्तता प्रभावित होती है और लैंगिक भेदभाव कायम रहता है।
देश में महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार की स्थिति
भारत में, महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार का मुद्दा लंबे समय से गहरे सांस्कृतिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों में निहित चर्चा का विषय रहा है। महिलाओं के संपत्ति के स्वामित्व, विरासत और नियंत्रण के अधिकारों की रक्षा और कायम रखने के लिए मौजूद कानूनों और नीतियों के बावजूद, महिलाओं को पारंपरिक रूप से इन अधिकारों का दावा करने में महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ा है। भारत में, विरासत और संपत्ति के बंटवारे से संबंधित कानून विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हैं। इसका मतलब है कि प्रत्येक समुदाय के व्यक्तिगत कानून अलग-अलग हैं।
भारत में संपत्ति बंटवारे के बारे में तीन सबसे महत्वपूर्ण कानून हैं 2005 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 का भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम और 1937 का मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन अधिनियम। 2005 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम हिंदुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों पर लागू होता है, और इन समुदायों के सदस्यों के बीच विरासत और संपत्ति के बंटवारे को नियंत्रित करता है। 1925 का भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम ईसाइयों, यहूदियों और पारसियों पर लागू होता है, जो इन समुदायों के सदस्यों के बीच विरासत और संपत्ति के बंटवारे को नियंत्रित करता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट 1937 मुसलमानों पर लागू होता है। तीन अलग कानून होने के परिणामस्वरूप, इन कानूनों में पुरुषों और महिलाओं के अधिकारों और संपत्ति के बंटवारे के संबंध में अलग-अलग प्रावधान और नियम हैं।
महिलाओं के संपत्ति में अधिकार पर कानून में असमानताएं
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 और मुस्लिम कानून के तहत महिलाओं को संपत्ति का अधिकार पहले ही है। लेकिन हिंदू कानून ने 1956 से पहले महिला हिंदू को संपत्ति का अधिकार प्रदान नहीं किया था। इसलिए, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 में निहित सिद्धांत को लागू करने पर, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 ने महिला हिंदू को भी संपत्ति का अधिकार प्रदान किया। हालांकि इस अधिनियम के अनुसार केवल पुत्र ही सहदायिक संपत्ति (coparcenary property) के संबंध में जन्म के आधार पर संपत्ति प्राप्त करने का पात्र था। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के माध्यम से बेटी को भी जन्म से ही सहदायिक के रूप में इस संपत्ति को प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। संशोधन में कहा गया कि विवाहित और अविवाहित बेटियों को भी परिवार की पैतृक संपत्ति में बराबर हिस्सा मिलना चाहिए।
हालांकि 2005 का अधिनियम 39 हिंदू कानून में लैंगिक समानता और बेटियों की आर्थिक सुरक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रगति है, फिर भी इस क़ानून में एक विसंगति है। इसमें घर की अन्य महिलाओं जैसे माँ और विधवा को सहदायिक के रूप में मान्यता नहीं दी गई है। ऐसी मान्यता के अभाव में, किसी हिंदू महिला द्वारा अर्जित संपत्ति को उसके बच्चे के संबंध में सह-दावेरी संपत्ति (coparcenary property) के रूप में नहीं माना जा सकता है क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में, उसकी स्थिति माँ की बन जाती है। अधिनियम की धारा 15 (2) (ए) पिता को अधिकार प्रदान करके और माँ से अर्जित संपत्ति के संबंध में भी माँ को अधिकार से वंचित करके लिंग पर निर्भर असमानता का कारण बनती है। धारा 15 (1) के तहत पति के उत्तराधिकारियों की उपस्थिति में मां को किसी भी तरह के उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित किया गया है।
नतीजन बेटी का हिस्सा सुधारने के बावजूद माँ और विधवा पर अन्याय होता है। ईसाई उत्तराधिकार भी मां को कोई अधिकार प्रदान नहीं करता है। हालांकि एक माँ को धर्म और वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के अनुसार भरण-पोषण मिल जाता है क्योंकि माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 की धारा 4 के अनुसार, प्रत्येक बच्चे का अपने माता-पिता का भरण-पोषण करना कर्तव्य है। ईसाई कानून में माँ को कोई उत्तराधिकार/विरासत प्रदान नहीं किया गया है।
महिलाओं का जमीन का अधिकार
एलएआरआर (The Land Acquisition (Right to Fair Rehabilitation and Resettlement) Act, 2013) क़ानून नागरिकों के भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित है। यह विधवाओं, तलाकशुदा और परित्यक्त महिलाओं को अलग परिवारों के रूप में मान्यता देता है, जो महिलाओं के भूमि अधिकारों के मुद्दे को आगे बढ़ाता है क्योंकि यह एकल महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देता है। लेकिन इसमें कहा गया है कि क्षतिपूर्ति भूमि पति और पत्नी के संयुक्त नाम पर दी जा सकती है। हालांकि प्रावधान की भाषा में ‘मे’ का उपयोग किया गया है यह अनिवार्य नहीं करता है कि पत्नी का नाम भूमि रिकॉर्ड में दर्ज किया जाएगा।
कार्यान्वयन की चुनौतियां
हालांकि वर्तमान में जिस तरह से कानून बनाए गए हैं, उसमें महिलाओं के लिए कई सुरक्षा मौजूद हैं। लेकिन पितृसत्ता और सामाजिक दबाव के कारण महिलायें अभी भी अपना हिस्सा मांगने में अक्षम हैं। अकसर महिलाओं को परिवार की सुख शांति का उत्तरदायी कर दिया जाता है। ऐसे में महिलाओं को डर हो सकता है कि अपना दावा पेश करने से परिवार के भीतर कलह हो सकती है, या उन्हें बताया जा सकता है कि उन्हें अपनी विरासत छोड़नी होगी। वैसे तो उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में निर्णय दिया था कि बेटी की शादी में दिया गया दहेज़ उसके संपत्ति अधिकारों को ख़त्म नहीं कर देता। लेकिन इस निर्णय के बावजूद परिवार और खुद बेटियां संपत्ति अधिकारों को मांगने से झिझकती हैं।
राज्यों के आधार पर विरोधाभास
एचएसए संशोधन ने कृषि भूमि को इसके दायरे में ला दिया है। लेकिन यह राज्य-विशिष्ट कृषि कानूनों के साथ विरोधाभास में है क्योंकि संविधान की सातवीं अनुसूची बताती है कि केवल राज्यों को कृषि पर कानून बनाने का अधिकार है। हालांकि केंद्र उत्तराधिकार पर कानून बना सकता है, लेकिन कृषि भूमि के उत्तराधिकार पर कानून विवादित बना हुआ है। नतीजन कृषि भूमि के उत्तराधिकार से संबंधित मामलों पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय परस्पर विरोधी रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फैसला सुनाया था कि एचएसए संशोधन के अनुसार कृषि भूमि एचएसए द्वारा कवर की जाएगी। लेकिन ऐक्ट और टेनुरीयल लॉ के बीच संवैधानिक संघर्ष को संबोधित नहीं किया गया।
महिलाओं की भूमिहीनता के मामले में डेटा की कमी
भारत में महिलाओं की भूमिहीनता की सटीक सीमा निर्धारित करने में महिलाओं के भूमि स्वामित्व पर लिंग आधारित डेटा की कमी एक महत्वपूर्ण बाधा है। भूमि कानूनों को लागू करने के प्रभारी निकायों के लिए महिलाओं के भूमि अधिकार अक्सर प्राथमिकता नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण विकास और पंचायती राज के लिए 2015 की राष्ट्रीय प्रशिक्षण नीति, जो ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय और राज्य संस्थानों के क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का मार्गदर्शन करती है, में महिलाओं के भूमि अधिकारों पर सामग्री शामिल नहीं है। यह देखते हुए कि ये विभाग ग्राम स्तर के सरकारी अधिकारियों और भूमि राजस्व मामलों के प्रभारी लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए जिम्मेदार हैं, उनके प्रशिक्षण कार्यक्रमों से महिलाओं के भूमि अधिकारों को बाहर करने से यह प्रभावित होने की संभावना है कि महिलाएं अपने अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं। सरकार की तरफ से इतनी बड़ी कमी संपत्ति स्वामित्व में लैंगिक अंतर को केवल बढाती ही है।
महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में भूमि अधिकारों का महत्व काफी स्पष्ट है, क्योंकि यह महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा, आश्रय, आय और आजीविका के अवसर प्रदान करता है। भारत में वैसे तो महिलाओं को लगभग हर धर्म में संपत्ति में स्वामित्व का प्रावधान मिल गया है। लेकिन यह स्वामित्व अधिकतर काग़ज़ों पर ही है। असल में तो हालात कुछ और ही हैं। एनसीडब्ल्यू का हालिया परामर्श और न्यायायिक सुधारों के लिए आह्वान महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने में सहायक साबित हो सकता है। लेकिन यह महिलाओं के संपत्ति स्वामित्व में कितना बदलाव लाता है यह तो वक़्त ही बताएगा।