हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के लिए एक विशिष्ट दायरा निर्धारित किया गया है। इसमें कई महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है महिलाओं का शिक्षा का अधिकार। आज के समय में समाज अमूमन एक शिक्षित बेटी और बहू चाहता है, लेकिन शिक्षा के अधिकार की बात करें, तो महिलाओं और पुरुषों में आज भी अंतर दिखाई पड़ते हैं। बहुत ही सीमित परिवार हैं, जो यह सोचकर महिलाओं को उच्च शिक्षा में नामांकन दिलाते हैं कि उनकी बेटी आत्मनिर्भर हो जाएगी या आर्थिक रूप से मजबूत रहेगी। अधिकांश परिवारों की मानसिकता यह है कि अगर लड़कियों की उच्च शिक्षा हो भी जाए, तो यह उसके आत्मनिर्भर होने के लिए नहीं बल्कि एक अच्छे घर-परिवार और बढ़िया नौकरी वाले लड़के से शादी की उम्मीद से ऐसा किया जाता है।
हमारे समाज में आज भी महिलाएं घर की सीमा केवल मायके जाने या डॉक्टर के पास जाने के लिए ही लांघती हैं। ग्रामीण इलाकों की बात करें, तो बारहवीं के बाद लड़कियों को अमूमन घर से बाहर निकलने से रोक दिया जाता है। वे कॉलेज की पढ़ाई से वंचित रह जाती हैं, भले ही उनका नामांकन किसी कॉलेज में हो जाता है। वे केवल परीक्षा देने के लिए जाती हैं। कुछ परिवार की लड़कियां जो बहुत संघर्ष के बाद गाँव से शहर पढ़ने आती हैं, उन्हें हजारों हिदायतों के साथ भेजा जाता है। अक्सर कहा जाता है कि परिवार से दूर हो जाने का मतलब यह नहीं है कि आप अपने मन की करेंगी। जब वे शहर आती हैं, तो परिवार हर पल उनकी निगरानी करता है।
जब यहाँ यूनिवर्सिटी की अन्य लड़कियों से मिली, तो चकित हो गई थी। मेरे लिए यह सब बहुत चुनौतीपूर्ण था। परिवार की ओर से सख्त हिदायत दी गई थी कि मुझे दिल्ली में क्या पहनना है। लेकिन मुझे अपने दोस्तों के साथ भी फिट बैठना था। कुछ समय यहां बिताने के बाद महसूस हुआ कि मुझे अपना जीवन जीना है।
हर समय निगरानी करता परिवार और समाज
कॉलेज कितने बजे से है, कितने बजे तक फ्लैट से बाहर रहना है, किससे दोस्ती करनी है, किससे नहीं करनी है, क्या कपड़े पहनने हैं, यह सब परिवार तय करता है। यहां तक कि अमूमन लड़कियों को दिन में चार बार वीडियो कॉल करके दिखाना पड़ता है कि आप कहां हैं। लड़कियों पर नज़र रखने का काम केवल परिवार ही नहीं करता, बल्कि शहर में रहने वाले साथी पुरुष दोस्त भी करते हैं। अक्सर वे यह कहते हुए पाए जाते हैं कि लड़कियों को पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए, न कि यहां-वहां घूमने पर। ऐसी स्थिति में हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि इतनी सारी पाबंदियां और अनुशासन केवल लड़कियों के लिए ही क्यों होते हैं। इस विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी कर रही उत्तर प्रदेश के हरदोई की एकता वर्मा कहती हैं, “लड़कियों के लिए किसी अन्य शहर में जाकर पढ़ाई करना आज भी आसान नहीं है।”
वह आगे कहती हैं, “जब मैं 2012 में दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए आई थी, तो घरवालों को मनाना मुश्किल नहीं था क्योंकि दिल्ली में मेरे दो भाई रहते थे और मैं उनके साथ रहने आ रही थी। मैं एक माध्यमिक परिवार से आई थी। जब यहाँ यूनिवर्सिटी की अन्य लड़कियों से मिली, तो चकित हो गई थी। मेरे लिए यह सब बहुत चुनौतीपूर्ण था। परिवार की ओर से सख्त हिदायत दी गई थी कि मुझे दिल्ली में क्या पहनना है। लेकिन मुझे अपने दोस्तों के साथ भी फिट बैठना था। कुछ समय यहां बिताने के बाद महसूस हुआ कि मुझे अपना जीवन जीना है। पढ़ाई के साथ-साथ मुझे यहां के कल्चर में भी अपने मन मुताबिक चलना है। कभी-कभी पार्टी में जाना होता था तो परिवार से झूठ बोलकर उनके मुताबिक कपड़े पहनकर निकलती थी और बाद में कपड़े बदलती थी।”
जब मैंने उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जाने की परिवार से बात की तो सबने मना कर दिया। यह कहते हुए कि लड़की हो, इतने दूर नहीं जाना है। तुम यहां भी पढ़ सकती हो। लेकिन मैं संघर्ष करती रही। परिवार में मेरे पापा के अलावा कोई नहीं माना। मैं दिल्ली आ तो गई। लेकिन परिवार का कहना है कि क्लास के अलावा यूनिवर्सिटी में नहीं रुकना है। यहां तक कि लाइब्रेरी में भी पढ़ने के लिए नहीं रुकने देते हैं।
पढ़ाई की छूट कई शर्तों पर
सवाल यह है कि लड़कियां ही क्यों अपने मनमुताबिक जीवन जीने के लिए मुश्किलों का सामना करती हैं? क्यों उन्हें अपने अनुसार रहने का अधिकार नहीं मिला है? इस विषय पर दिल्ली यूनिवर्सिटी से मास्टर कर रही आंध्र प्रदेश की प्रिथी कहती हैं, “जब मैंने उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जाने की परिवार से बात की तो सबने मना कर दिया। यह कहते हुए कि लड़की हो, इतने दूर नहीं जाना है। तुम यहां भी पढ़ सकती हो। लेकिन मैं संघर्ष करती रही। परिवार में मेरे पापा के अलावा कोई नहीं माना। मैं दिल्ली आ तो गई। लेकिन परिवार का कहना है कि क्लास के अलावा यूनिवर्सिटी में नहीं रुकना है। यहां तक कि लाइब्रेरी में भी पढ़ने के लिए नहीं रुकने देते हैं। मैं समझाने की कोशिश करती हूं। लेकिन वे लोग समझना नहीं चाहते। उनका बस यही कहना है कि तुम कमरे में रहकर पढ़ाई करो।” इस प्रकार देखा जाए तो भारतीय समाज महिलाओं के लिए कितना कुंठित है। जहां लड़कों का घर से निकलना आम बात है, वहीं लड़कियों के लिए घर से निकल पाना एक बड़ा मुद्दा बन जाता है।
बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, टाइम्स यूज सर्वे में इस बात का पता लगाया है कि लोग किस तरह की एक्टिविटी पर कितना समय देते हैं। इस रेपपोर्ट में इस सर्वे से जुड़े लोगों ने 2019 में अपने पूरे दिन का समय कैसे बिताते हैं, इसकी सूचना दी। यह रिपोर्ट बताता है कि कैसे लैंगिक भेदभाव के कारण रोजमर्रा के जीवन में बाहर आना जाना भी प्रभावित होता है। शहरी परिवारों के सर्वेक्षण में शामिल 53 फीसद महिलाओं ने कहा कि वो कल से ही घर से बाहर नहीं निकलीं जबकि सिर्फ 14 फीसद पुरुषों ने ही कहा कि इस दौरान वो भी घर में रहे। सर्वेक्षण में ये भी पता चला कि 10 से 19 साल की उम्र के बीच लड़कों के मुकाबले लड़कियां घर से कम बाहर निकलीं। इस विषय पर दिल्ली यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रही राजस्थान की अलका जिलोजा कहती हैं, “जब मैं छोटी थी और घर से बाहर किसी काम से जाती थी, तो साथ में किसी पुरुष को भेजा जाता था। भले ही वह मुझसे छोटा हो। अब मेरी शादी हो गई है। पति बहुत साथ देते हैं। लेकिन परिवार का कहना होता है कि तुम्हें अब पढ़ाई करने की क्या जरूरत है।”
किसी भी लड़की के लिए अपना शहर छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। शहर बदल तो जाता है, लेकिन लड़कियों की समस्याएं हर जगह एक जैसी होती हैं। पूरे दिन मुझ पर नजर रखी जाती है। दिन में दस बार कॉल आता है, हॉस्टल और क्लास के अलावा परिवार के लोग दो मिनट भी बाहर नहीं रहने देते हैं।
हर पड़ाव पर पितृसत्तात्मक सोच का सामना
महिलाएं अपने जीवन के हर पड़ाव में पितृसत्ता के साये में रहती हैं। जामिया मिल्लिया इस्लामिया से जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रही कश्मीर की रहने वाली निघा इम्तेयाज कहती हैं, “किसी भी लड़की के लिए अपना शहर छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। शहर बदल तो जाता है, लेकिन लड़कियों की समस्याएं हर जगह एक जैसी होती हैं। पूरे दिन मुझ पर नजर रखी जाती है। दिन में दस बार कॉल आता है, हॉस्टल और क्लास के अलावा परिवार के लोग दो मिनट भी बाहर नहीं रहने देते हैं।” महिलाओं को लेकर समाज हमेशा उन्हें पीछे धकेलने की कोशिश में लगा रहता है। किसी भी क्षेत्र, जाति, वर्ग की महिलाओं के साथ यह देखा जा सकता है। लैंगिक असमानता और सामाजिक रूढ़िवाद के तले महिलाओं को कठपुतली बना दिया जाता है। उन पर इतना नैतिक दबाव बना दिया जाता है कि वे खुद को पहचानना भूलने लगती हैं।
कितना मुश्किल है दलित समुदाय की लड़कियों का पढ़ना
दिल्ली यूनिवर्सिटी में स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा बिहार की रिंकू कुमारी कहती हैं, “मैं जिस समाज का हिस्सा हूं, उस जगह से बहुत कम लड़कियां हैं जो शिक्षा के लिए किसी शहर का रुख करती हैं। मेरे लिए भी बहुत मुश्किल था दिल्ली में पढ़ाई करना। मेरे पापा मामूली किसान हैं और माँ गृहिणी हैं। मेरे लिए दिल्ली आना एक सपना जैसा था। लेकिन मेरे मन में यह था कि अगर पढ़ाई करूंगी तो शायद घर परिवार में अपना योगदान दे पाऊंगी। धीरे-धीरे ही सही, लेकिन हमारे समुदाय से भी लड़कियां पढ़ने आएंगी। एक दलित परिवार की लड़की के लिए उच्च शिक्षा हासिल करना और यूनिवर्सिटी में आकर पढ़ाई करना कठिनाई भरा है। मेरे परिवार के पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं फैशनेबल कपड़े खरीद सकूं, जिस कारण यहां आकर भी भेदभाव देखने को मिलता है। लेकिन मैं इसे अपने लक्ष्य पर हावी नहीं होने देती हूं।”
लड़कियां किसी भी परिवेश से शहर पढ़ने आई हों, अलग-अलग लड़कियों की अलग-अलग समस्याएं हैं। पारिवारिक और सामाजिक संस्कार को आगे बढ़ाने और इसकी सुरक्षा करने की जिम्मेदारी, नैतिक दबाव और प्यार और परिवार की इज़्ज़त के नाम पर उन्हें पितृसत्तात्मक सोच का सामना करना पड़ता है। इन सबके बावजूद लड़कियां अपने जीवन को संवारने में लगी हैं। अमूमन सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक या रोजगार हर क्षेत्र में मर्यादाओं के तले उनके अवसरों को दबाने की कोशिश की जाती है। आज इन सबके बावजूद लड़कियां हर क्षेत्र में खुदको स्थापित कर रही हैं। लेकिन जरूरत है पितृसत्तात्मक सोच से बाहर निकल कर उन्हें सहयोग और समर्थन देने की।