हाल ही में राजस्थान सरकार ने राज्य में महिलाओं को तृतीय श्रेणी शिक्षक भर्ती में महिलाओं के लिए मौजूदा तीस फीसदी आरक्षण को बढ़ा कर 50 फीसदी करने का निर्णय लिया है। भारत में जाति, लिंग और धर्म के आधार पर आरक्षण सामाजिक बहस का हिस्सा रहा है। जहां एक तरफ सरकार का ये फैसला स्वागत योग्य है चूंकि इससे महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उनकी सामाजिक-आर्थिक भागीदारी के रास्ते खुलेंगे, वहीं दूसरी और ये कदम राज्य द्वारा ‘श्रम का लैंगिक विभाजन’ करने की मंशा वाला भी जान पड़ता है। साथ ही इस फैसले के विरोध में विभिन्न जिला मुख्यालयों पर उमड़ी भीड़ और उसके स्वघोषित नेताओं के तर्कों पर एक नजर डालने से समाज में मौजूद स्त्रीद्वेष का भी रूप देखने को मिलता है।
राज्य सरकार के इस फैसले के बाद महिला आरक्षण का विभिन्न स्तरों पर विरोध किया जा रहा है। पहले स्तर पर वे लोग हैं जिनका मानना है कि महिला आरक्षण ही अनावश्यक है। इस तरह के तर्क तब भी सामने आए थे जब भारत सरकार पिछले साल नारी शक्ति बिल लेकर आयी थी। बताते चलें हाल ही में वर्ल्ड इकनोमिक फॉर्म के द्वारा जारी ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2024 के अनुसार भारत 146 देशों में 129वें स्थान पर आता है। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास और पंचायती राज संस्थान के एक अध्ययन के मुताबिक़ भारत के सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं की भागीदारी मात्र 18 प्रतिशत है। सरकार द्वारा उपलब्ध सूचना के मुताबिक़ भारतीय सेना में महिलाओं की संख्या चार प्रतिशत से भी कम है। महिलाएं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में 10 प्रतिशत, उच्च न्यायालय में 14 प्रतिशत, पुलिस सेवा में लगभग 10 प्रतिशत और वैज्ञानिकों में 16 प्रतिशत है।
नया बिल आने के बावजूद इसके लागू होने से पहले राजनीतिक पार्टियों ने महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया जिससे नई संसद में महिला सांसदों की संख्या 78 से काम होकर कर 73 गयी है जो 13 फीसदी के करीब है। राजस्थान में भी दिसंबर में हुए चुनावों के बाद नई विधानसभा में भी महिला सदस्यों की संख्या पिछली विधानसभा की तुलना में 23 से घटकर 20 रह गयी है जो मात्र 10 प्रतिशत है। कमोबेश महिलाओं के प्रतिनिधित्व का यही हाल देश के हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में है। तमाम भारत सरकार के आंकड़े बताते है कि भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ रहा हैं। एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक़ देश में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 51 मुकदमें दर्ज हो रहे हैं। 2022 में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद महिला अपराधों के मामले में राजस्थान तीसरे स्थान पर था वहीं बलात्कार के मामले में पूरे देश में पहले स्थान पर था। महिलाओं के ऐतिहासिक शोषण और वर्तमान हालात को देखने पर देश और राजस्थान में महिलाओं के लिए आरक्षण की ज़रूरत समझ आती है।
बेरोजगारों के ठेकेदारों का दोहरापन
दूसरी तरह ले लोग वो है जो महिला आरक्षण के नए कानून का विरोध तो कर रहे हैं लेकिन महिला सशक्तिकरण के समर्थक होने का भी ढोंग कर रहे हैं। जयपुर में हुए प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे राजस्थान एकीकृत बेरोजगार संघ के मनोज मीणा का कहना है कि मुख्यमंत्री जी को महिला सशक्तिकरण के लिए अपने कैबिनेट में महिलाओं की संख्या बढ़ा कर 50 फीसदी करनी चाहिए और शिक्षक भर्ती में बढ़ाया आरक्षण वापस कम कर देना चाहिए।
ये बात ठीक है कि हजारों सालों से पितृसत्ता के विचारों से जकड़े समाज को वैचारिक परिवर्तन की दिशा में बढ़ने के लिए सत्ता के शीर्ष में भी बदलाव कर समाज में सकारात्मक संदेश देना जरूरी है लेकिन मनोज और उनके साथ मौजूद पुरुषों का झुंड ये समझने और समझा पाने में असमर्थ है कि इसके लिए शिक्षक भर्ती में लागू हुए महिला आरक्षण को वापस लेना क्यों ज़रूरी है? इस तरह के तर्कविहीन प्रदर्शनों से हमें बार-बार इस बात का ज्ञान होता है कि समाज का विशेषाधिकारों वाला तबका जहां अपने संकीर्ण स्वार्थ के लिए किसी भी तरह का बेबुनियादी शक्ति प्रदर्शन कर सकता है वहीं वंचित वर्ग अपने सार्वभौमिक अधिकारों के लिए भी लड़ने हेतु साधन सम्पन्न और सक्षम नहीं है।
यह तब भी देखने को मिला था जब हमारे देश में पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने के विरोध में तथाकथित उच्च जाति के कुछ युवाओं ने अहंकारी शक्ति प्रदर्शन कर अव्यवस्था फैलाई थी। वहीं तथाकथित उच्च जाति के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण देने के खिलाफ किसी आदिवासी, दलित या पिछड़े वर्गों की ओर से व्यापक प्रदर्शन की घटना सामने नहीं आयी। बावजूद इसके कि 27 हजार रूपए सालाना आय को अधिकतम गरीबी रेखा मानने वाली सरकार ने आर्थिक पिछड़े वर्ग की आय को अधिकतम 8 लाख प्रतिवर्ष माना।
तो इसमें सरकारी घालमेल क्या है?
देखने में नारीवादी लगने वाला इस फैसले की कई परतें हैं। ध्यान देने वाली बात ये है कि सरकार ने ये आरक्षण का फैसला मात्र 8वीं कक्षा तक की शिक्षक भर्ती के लिए ही क्यों लिया? इस फैसले के बाद छात्राओं के एक समूह से मुलाकात के दौरान मुख्यमंत्री ने कहा कि वे महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके बाद उन्होंने कहा कि महिला शिक्षिकाएं छोटे बच्चों से स्नेहपूर्ण व्यवहार करने में ज्यादा सक्षम होगी। हमारे समाज में पारंपरिक रूप से पुरुषों को आजीविका कमाने वाला और महिलाओं को घर के लोगों की देखभाल करने वाला माना जाता रहा है। जब महिलाओं ने कमाने के लिए घर की चारदीवारी से बाहर निकलना शुरू किया तब पितृसत्तात्मक समाज ने उन्हें ये बताना शुरू कर दिया कि कौनसा पेशा उनके लिए अच्छा है और कौनसा उनके योग्य नहीं है। जब वे बताते है कि कौनसा काम महिलाओं के लिए अनुकूल नहीं है तब वे एक तरह से बता रहे होते हैं कि उनके मुताबिक़ इस काम के लिए महिलाएं सक्षम नहीं है। इस तरह वे ज्यादातर व्यवसायों पर मर्दों के वर्चस्व को बनाए रखना चाहते हैं।
करियर एडवाइस एक्सपर्ट, केलिहाना द्वारा किये गए एक सर्वे के मुताबिक़ 82 प्रतिशत लोग मानते है कि कुछ नौकरियां या तो सिर्फ पुरुषों के लिए होती है या औरतों के लिए। आम तौर पर बेबी सिटर, नर्स, प्राइमरी टीचर और रिसेप्शनिस्ट जैसी नौकरियां महिलाओं के लिए मानी जाती है वहीं ट्रक ड्राइवर, इलैक्ट्रीशियन, ठेकेदार, पुलिस अफसर और सेना जैसी नौकरियां पुरुषों के लिए मानी जाती है।
इससे पहले 2019 में एम्स प्रशासन ने नर्स भर्ती परीक्षा में महिलाओं को 80 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में वैध करार दिया। इस निर्णय का समर्थन करने वाले पक्ष का तर्क था कि महिलाएं स्नेह और दुलार का स्वरूप होती है। महिलाओं की देखभाल करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है अतः वे स्वाभाविक रूप से नर्स के पेशे के अनुकूल है। आप पूछ सकते हैं इसमें गलत क्या है? ये तर्क मानवीय गुणों के लैंगिक आधार पर बंटवारे की वैधता से जुड़ी लंबी बहस का हिस्सा है। इसका उत्तर खोजने के लिए अमेरिकी नारीवादी नैंसी फ्रेजर की थ्योरी को जानना होगा। फ्रेजर कहती है कि समाज में लैंगिक समानता लाने के लिए हम आम तौर पर दो तरह के उपाय ढूंढते हैं। पहला यह कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाए जाएं और दूसरा ये कि देखभाल करने के काम को मुफ्त का काम समझने के बजाय उसके बदले में उसकी तनख्वाह तय हो।
लेकिन नैन्सी इन दोनों तरीकों को ख़ारिज करते हुए यूनिवर्सल केयरगिवर मॉडल के बारे में बात करती है। उसका मानना है कि सच्चे अर्थों में लैंगिक समानता के लिए पुरुष के वर्चस्व वाले काम को स्त्री-पुरुष में बाँटने अथवा देखभाल के काम को आर्थिक रोजगार के ढांचे में ढालने के बजाय महिलाओं का काम समझे जाने वाले देखभाल के कामों को पुरुषों और स्त्रियों में बांटने की जरूरत है। इससे केयर गिविंग के काम को भी उचित सम्मान मिलेगा और दोनों तरह के कामों में स्त्री और पुरुष दोनों भाग ले पाएंगे।
सिर्फ प्राइमरी शिक्षक और नर्सिंग जैसे क्षेत्र में महिलाओं को आरक्षण दे कर सरकार जहां एक तरफ इन पेशों के प्रति स्टीरियोटाइप बनने देती है वहीं पितृसत्तात्मक समाज के लिए महिलाओं को एक क्षेत्र तक सीमित रखने का रास्ता भी बना देती है। विकास अध्ययन संस्था में प्रोजेक्ट एसोसिएट भावना कहती है कि इस तरह के कानूनों के बाद परिवार और रिश्तेदारों के पास लड़कियों को सीमित पेशों की तरफ भेजने का तर्क मिल जाता है। ऐसे में वो सब लड़कियां भी शिक्षिका बन जाती हैं जो किसी और क्षेत्र में करियर बनाना चाहती थी। इससे ज्यादातर पेशों में पुरुष वर्चस्व जारी रहता है। समय आ गया है, सरकार और समाज समावेशी परिवेश के लिए रास्ता बनाने पर ध्यान दे और रोजगार के सभी क्षेत्रों में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर वंचितों के लिए जगह बनाएं। आरक्षण के प्रावधानों में तारतम्यता और एकरूपता की दिशा में काम किया जाये।
Well organised Multidimensional views👍🏿