समाजकार्यस्थल देश में महिला पत्रकारों की ज़मीनी और न्यूजरूम से जुड़ी चुनौतियाँ

देश में महिला पत्रकारों की ज़मीनी और न्यूजरूम से जुड़ी चुनौतियाँ

महिला पत्रकार चाहे कितनी बेहतर रिपोर्टिंग कर के ले आए, वे टीआरपी के हिसाब से अपनी हेडिंग तय करते हैं। टीआरपी के हिसाब से वे स्टोरी को बेचते हैं। ये बहुत संवेदनशील मामले होते हैं जिनमें डूबकर कोई महिला रिपोर्टर रिपोर्टिंग करती है। तो ऐसे में मुश्किल होती है। लेकिन बावजूद इसके बहुत सी महिला रिपोर्टर बेहतर काम करने की कोशिश कर रही हैं।

किसी भी समाज में मीडिया की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह हमारे आस-पास हो रहे महत्त्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरण से जुड़ी हुई घटनाओं को हम तक पहुंचाने का एक माध्यम है। यही नहीं विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को सामने लाने का काम भी पत्रकार ही करते हैं। वैसे तो पत्रकारिता के पेशे में शामिल पुरुषों को भी उनके सामाजिक सन्दर्भ और कार्य क्षेत्र के मुताबिक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन कई अन्य पेशों की तरह इस पेशे में भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

बार-बार खुद को साबित करने की चुनौती 

तस्वीर साभार: NWMI

भारतीय मीडिया इंडस्ट्री में मुख्य तौर पर पुरुषों का प्रभुत्व है। महिलाएं न सिर्फ संख्या में कम हैं, बल्कि जो गिनी-चुनी महिलाएं हैं, उन्हें बार-बार खुद को साबित करना पड़ता है। इस बारे में कानपुर देहात की रहनेवाली शेड्स ऑफ रुरल इंडिया की संस्थापक नीतू सिंह, जो ग्रामीण क्षेत्रों में महिला और विकास से जुड़े मुद्दों पर काम करती हैं बताती हैं, “बात चाहे न्यूजरूम की हो या फिर ग्राउंड की, दोनों ही जगह पर महिला पत्रकारों को हमेशा से बहुत हल्के में लिया जाता है। ऐसे में पुरुषों की तुलना में हमें खुद को साबित करने के लिए कई गुना अधिक मेहनत करनी पड़ती है। फील्ड में चाहे सरकारी अधिकारी हों या अन्य पुरुष, वे हमें बहुत गंभीरता से नहीं लेते हैं।” आगे वे बताती हैं कि दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े शहरों में तो फिर भी महिला पत्रकारों को आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन गाँव में एक महिला पत्रकार को लेकर स्वीकार्यता नहीं है और यह माना जाता है कि यह काम तो पुरुष ही कर सकते हैं। इसलिए पहले तो किसी महिला पत्रकार को इस मानसिकता से जूझना पड़ता है, यही वजह है कि ग्राउंड रिपोर्टिंग में महिला पत्रकारों को कई बार ज़्यादा समय लग जाता है। 

मुझे लगता है कि मैं पुरुष पत्रकार होती तो मेरे लिए और अधिक अवसर खुलते। शायद मुझे ऐसी जगहों पर भेजा जाता जहां आमतौर पर महिला पत्रकारों को नहीं भेजा जाता। बहुत से असाइनमेंट्स जो हार्ड बीट्स होते हैं वो पुरुष पत्रकारों के पास चले जाते हैं और महिलाओं को ज़्यादातर सॉफ्ट बीट्स दिए जाते हैं। बाइलाइंस अभी भी पुरुष पत्रकारों के अधिक हैं।

खबरों का बढ़ता बाज़ारीकरण एक चुनौती 

नीतू सिंह महिला मुद्दों से जुड़े हुए मुद्दों की संवेदनशील तरीके से रिपोर्टिंग से जुड़ी समस्या पर कहती हैं, “आप किसी भी न्यूज़रूम की हेडिंग देख लीजिए। आप रेप सर्वाइवर्स के मामलों की रिपोर्टिंग की हेडलाइन, इन्ट्रो, उनकी जो लेखन शैली होती है वह बहुत अलग किस्म की होती है। महिला पत्रकार चाहे कितनी बेहतर रिपोर्टिंग कर के ले आए, वे टीआरपी के हिसाब से अपनी हेडिंग तय करते हैं। टीआरपी के हिसाब से वे स्टोरी को बेचते हैं। ये बहुत संवेदनशील मामले होते हैं जिनमें डूबकर कोई महिला रिपोर्टर रिपोर्टिंग करती है। तो ऐसे में मुश्किल होती है। लेकिन बावजूद इसके बहुत सी महिला रिपोर्टर बेहतर काम करने की कोशिश कर रही हैं।” 

महिला पत्रकारों को दी जाती है सॉफ्ट बीट्स 

पत्रकारिता में दो तरह की बीट्स का अमूमन चलन है- हार्ड और सॉफ्ट। पत्रकारिता की शब्दावली में हार्ड बीट्स में वे विषय शामिल होते हैं जिन्हें कठिन माना जाता है। इन्हें आमतौर पर पुरुष पत्रकारों को सौंपा जाता है। इनमें राजनीति, अपराध जैसे विषय शामिल होते हैं। जबकि सॉफ्ट बीट्स में कला और मनोरंजन, फीचर लेखन, गपशप कॉलम आदि शामिल होते हैं। इस बारे में नीतू बताती हैं, “न्यूजरूम में आपके आइडिया को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है। महिला पत्रकारों की बीट पहले से ही तय कर दी जाती है कि आप महिला हो तो महिला बीट ही देखो।” 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इस बारे में पिछले छह सालों से पत्रकार के तौर पर काम कर रही और जंगल और वन्यजीव, आदिवासियों से जुड़े मुद्दों पर काम कर रही पत्रकार दीपनविता गीता नियोगी कहती हैं, “मुझे लगता है कि मैं पुरुष पत्रकार होती तो मेरे लिए और अधिक अवसर खुलते। शायद मुझे ऐसी जगहों पर भेजा जाता जहां आमतौर पर महिला पत्रकारों को नहीं भेजा जाता। बहुत से असाइनमेंट्स जो हार्ड बीट्स होते हैं वो पुरुष पत्रकारों के पास चले जाते हैं और महिलाओं को ज़्यादातर सॉफ्ट बीट्स दिए जाते हैं। बाइलाइंस अभी भी पुरुष पत्रकारों के अधिक हैं।” न्यूज़लॉन्ड्री में छपी एक खबर मुताबिक 75 प्रतिशत बाइलाइंस पुरुष पत्रकारों को मिलते हैं। आपको बता दें कि बाइलाइन का मतलब राइटर का नाम होता है। 

सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो पुरुष रात में भी यात्रा कर लेते हैं जबकि हमें सुबह होने तक का इंतज़ार करना पड़ता है। अगर कोई स्टोरी जल्दी कवर करनी होती है तो कोई पुरुष पत्रकार उसके लिए देर रात भी यात्रा कर सकता है जबकि हमारे लिए सुरक्षा का मसला होता है।

दूरदराज़ के क्षेत्रों में रिपोर्टिंग से जुड़ी चुनौतियां

पत्रकारों को रिपोर्टिंग के लिए कई बार ऐसे दूर-दराज़ के क्षेत्रों में जाना पड़ता है, जहां जाने के लिए साधनों की उपलब्धता कम होती है। ऐसे में महिला पत्रकारों को काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस बारे में दीपनविता बताती हैं, “अंदरूनी क्षेत्रों या नक्सली क्षेत्रों में जाने पर हमें ज़्यादा चुनौती का सामना करना पड़ता है। ऐसी जगहों पर आमतौर पर हमें किसी पुरुष के साथ ही जाना पड़ता है, तो ऐसे में हमारी सुरक्षा का जोखिम बढ़ जाता है।” उन्होंने बताया कि अभी तक वे रिपोर्टिंग के लिए जहां भी गईं ज्यादातर पुरुष ही उनके साथ गए। केवल एक दो जगह पर ही महिलाएं उनके साथ गईं हैं। उन्होंने यह भी बताया कि कई बार कुछ पुरुष असहज करनेवाले सवाल भी करते हैं। इससे भी समस्या होती है। 

तस्वीर साभार: Slicemedia

वह बताती हैं, “मुझे पीरियड्स के समय काफ़ी दर्द होता है। इसलिए मैं कोशिश करती हूं कि उस समय मुझे यात्रा न करनी पड़े। लेकिन ऐसा करना हमेशा सम्भव नहीं होता। एक बार मुझे रिपोर्टिंग के सिलसिले में अपने पीरियड्स के समय चार पुरुषों के साथ अरावली पहाड़ी पर गर्मी के मौसम में काफ़ी पैदल चलना पड़ा जिसमें मुझे काफ़ी समस्या हुई। मेरे लिए रहने की भी कोई सही व्यवस्था नहीं थी और मुझे एक तम्बू में रहना पड़ा, जिसकी वजह से पैड्स बदलने में भी काफ़ी दिक्कत हुई।” देश में आज भी महिलाओं का अकेले यात्रा करना मुश्किल है। इसपर वे कहती हैं, “सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो पुरुष रात में भी यात्रा कर लेते हैं जबकि हमें सुबह होने तक का इंतज़ार करना पड़ता है। अगर कोई स्टोरी जल्दी कवर करनी होती है तो कोई पुरुष पत्रकार उसके लिए देर रात भी यात्रा कर सकता है जबकि हमारे लिए सुरक्षा का मसला होता है।” इसके अलावा उन्होंने बताया कि कभी-कभी रिपोर्टिंग के लिए ऐसे इलाकों में भी जाना पड़ता है जहां मोबाइल नेटवर्क नहीं होता तो यह भी एक समस्या है।

किसी सेलिब्रिटी का इंटरव्यू करते समय दो तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। या तो महिला होने के नाते आपके साथ विशेष बर्ताव किया जाएगा या फिर जब आप पुरुष अभिनेताओं या फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद अन्य पुरुषों से फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद लैंगिक भेदभाव, स्त्रीद्वेषिता पर सवाल करेंगी, जिनका जवाब वो नहीं देना चाहते।

पुरुषों को महिला पत्रकारों के सवाल से होती परेशानी

कोची की रहनेवाली पत्रकार अशवती गोपालकृष्णन एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वे दस साल से भी ज़्यादा समय से पत्रकारिता कर रही हैं और फिलहाल फिल्म आलोचक के तौर पर काम कर रही हैं। वे बताती हैं, “किसी सेलिब्रिटी का इंटरव्यू करते समय दो तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। या तो महिला होने के नाते आपके साथ विशेष बर्ताव किया जाएगा या फिर जब आप पुरुष अभिनेताओं या फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद अन्य पुरुषों से फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद लैंगिक भेदभाव, स्त्रीद्वेषिता पर सवाल करेंगी, जिनका जवाब वो नहीं देना चाहते। ऐसे में आपको उनकी तरफ से एक किस्म की निष्क्रिय आक्रामकता का सामना करना पड़ता है। उनमें से कुछ नहीं चाहते कि कोई महिला उनसे इस तरह के सवाल-जवाब करे।”

तस्वीर साभार: The News Minute

अशवती बताती हैं, “अगर फिल्म क्रिटिक कोई पुरुष है तो पुरुषों से उसकी बड़ी आसानी से दोस्ती हो जाती है। इंडस्ट्री में एक तरह का पावर कल्चर मौजूद है जिसे आप आसानी से तोड़ नहीं सकते। अक्सर इसमें मौजूद पुरुष साक्षात्कार का समय और जगह खुद ही तय करते हैं और ये जगहें उनके निजी स्पेस होते हैं। किसी पुरुष के लिए किसी दूसरे पुरुष के निजी स्पेस में जाना आसान होता है, जबकि महिलाओं के लिए ये बहुत मुश्किल भरा होता है और मुझे ये काफ़ी गैर प्रोफेशनल भी लगता है।”

अगर कोई महिला हो जिसके पीरियड्स चल रहे हों, उसकी ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए वाशरूम के बन्दोबस्त के बारे में नहीं सोचा जाता। केवल महिला पत्रकारों के लिए ही नहीं वहां काम कर रही अन्य महिलाओं के लिए भी कोई वाशरूम की कोई ढंग की व्यवस्था नहीं होती।

ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान मूलभूत सुविधाओं की कमी  

रायपुर में रह रही गार्गी वर्मा पिछले एक दशक से पत्रकारिता में हैं। फिलहाल वे एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर काम करती हैं। अलग-अलग राज्यों में ग्राउंड रिपोर्टिंग का अपना अनुभव साझा करते हुए वह कहती हैं, “किसी भी वर्कप्लेस पर महिला को जो भी मूलभूत सुविधाएं चाहिए होती हैं उनके बारे में न तो हम सोचते हैं, न संस्थाएं और न ही सरकार। कभी कोई बड़ा समारोह भी होता है, तो उसके लिए तैयारी तो काफ़ी की जाती है। लेकिन वाशरूम के बारे में नहीं सोचा जाता कि कोई वाशरूम कहां जाएगा। अगर कोई महिला हो जिसके पीरियड्स चल रहे हों, उसकी ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए वाशरूम के बन्दोबस्त के बारे में नहीं सोचा जाता। केवल महिला पत्रकारों के लिए ही नहीं वहां काम कर रही अन्य महिलाओं के लिए भी कोई वाशरूम की कोई ढंग की व्यवस्था नहीं होती।” 

पत्रकारिता में महिलाओं का योगदान है महत्वपूर्ण  

सुरक्षा संबंधी समस्याओं, लैंगिक भेदभाव और खुद को बार-बार साबित करने जैसी चुनौतियों का सामना करने के बावजूद बहुत सी महिला पत्रकार पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान देते हुए रिपोर्टिंग कर रही हैं। वे अनेक तरह की कहानियां हमारे सामने लेकर आ रही हैं। कोई महिला शहरी इलाके में पत्रकारिता कर रही है या ग्रामीण में, इस आधार पर उनकी चुनौतियों में बढ़ोतरी या कमी ज़रूर हो सकती है। लेकिन इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं की चुनौतियां अधिक हैं। हमें उनकी चुनौतियों को समझने और स्वीकार करने और उनके लिए समावेशी और न्यायसंगत माहौल तैयार करने की ज़रूरत है। 

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