हमारे समाज की यह वास्तविकता है कि सब तक समान अधिकार और साधनों की पहुंच नहीं है। लोगों को अपनी अलग-अलग पहचान के साथ मौलिक अधिकारों को हासिल करने के लिए तमाम संघर्षों, भेदभाव का सामना करना पड़ता है। शिक्षा को लेकर मेरे समुदाय में लड़कियों के लिए परिवार, दोस्तों और समाज की तरफ से अनेक तरह के दवाब का सामना करना पड़ता है। हम लड़कियों के लिए तालीम हासिल करना उतना भी आसान नहीं है। भले ही संविधान के द्वारा प्रत्येक नागिरक का शिक्षा हासिल करना मौलिक अधिकार है लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्थिति इसे बदल देती है। लड़की होकर शिक्षा हासिल करने का एक अलग संघर्ष है वो भी जब कोई लड़की हाशिये के समुदाय से आती है। मैं पंचायती समुदाय से आती हूँ और शाह यानी फ़कीर समुदाय से ताल्लुक रखती हूं। वर्तमान में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल शहर में रहती हूँ। मेरे समुदाय के लोग एक ही जगह पर भोपाल में इकट्ठे रहते हैं।
लगभग 40 से अधिक वर्ष पूर्व हमारे पुरखों को यहाँ विस्थापित किया गया था। उस से पहले वन अधिकार अधिनियम आने के पहले मेरे पुरखे मध्यप्रदेश के जंगल क्षेत्रों में निवास करते थे। तब से हमारे यहाँ पंचायत व्यवस्था मौजूद है। शहर में आए लंबा समय होने के बावजदू समुदाय अपनी सामाजिक व्यवस्था में मौजूद महिलाओं से जुड़े रूढ़िवादी नियमों को बदलना नहीं चाहता हैं बल्कि उसको बनाए रखने के लिए समुदाय की महिलाओं, लड़कियों और बच्चियों और उनके परिवारों पर अलग-अलग ढंग से लगाम लगाने की कोशिश करते हैं।
पिछले कुछ दिनों की बात है। मेरे परिवार को समुदाय से बाहर इसलिए कर दिया क्योंकि हमारी माँ ने हम चारों बहनों को पढ़ाने का फैसला किया। हमें अपनी मर्ज़ी से तब तक पढ़ने की इजाज़त का माहौल घर में बनाया गया, जब तक हम पढ़ना चाहते हैं। मैं अभी ग्रेजुएशन सेकेंड ईयर की छात्रा हूँ। मेरी बहनें अलग-अलग कक्षाओं में हैं। जब मेरा स्कूल पूरा हुआ, पूरे समुदाय के पुरुषों की नज़रों में हम बार-बार चुभने लगे। मेरी माँ को बार-बार हर रिश्तेदारों से, समुदाय के लोगों से सुनने को मिलता अब कब रोकोगी पढ़ाई?, पढ़ाई कब बंद करवा रही हो? और माँ कहती बस एक साल और हो जाए। समुदाय और रिश्तेदारों के अलग-अलग सवाल हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती बन जाते जिसका सामना माँ को सबसे ज्यादा करना पड़ता है।
वैसे तो मेरी माँ मनिहारी का काम करती हैं, चूड़ी-कंगन बेचने का काम करने के बाद वह नारीवादी महिलाओं की बातों को भी सुनती है। वह बस हमको इतना समझती कि लड़कियों का अपने पैरों पर खड़ा होना ज़रूरी हैं। लड़कियों को अपनी छोटी या बड़ी ज़रूरतों के लिए किसी के भरोसा या ख़ासतौर पर पुरुष के भरोसे रहने की ज़रूरत नहीं हैं। माँ के अंदर की ताकत और अपनी मेहनत से इस तरह मैं कॉलेज में पहुँच पाई। हालांकि कॉलेज की पढ़ाई रखना इतना आसान नहीं था।
ख़ासतौर पर फीस और अन्य कॉलेज के कामों के लिए आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करना बाधा था। लेकिन आगे पढ़ाई जारी रखने के लिए मुझे एक फेलोशिप मिली। मेरे कॉलेज में दाखिला लेते ही पंचायत बैठ गई। बार-बार मेरे पिता को बुलाया गया। वहां पंचायत में वे अक्सर खामोश बैठे रहते उनकी बातें सुनते या जाते ही कभी-कभी कहते कि हाँ घर जाकर बात करता हूँ। माँ जब मेरे पिता को समझाती कि लड़कियों का पढ़ना कितना ज़रूरी है तो वह इस बात को समझते और हमारी पढ़ाई को जारी रखने पर राज़ी हो जाते। एक तरफ यह फैसला हमारे लिए उम्मीदों का रास्ता खोलने वाला और हमें दुनिया के बारे में बहुत कुछ जानने वाला था लेकिन वहीं सामाजिक स्तर पर इसके अलग परिणाम भी साबित हुए।
पंचायत के कड़े फैसले का करना पड़ा सामना
मेरी और मेरी बहनों की शिक्षा जारी रखने की वजह से परिवार को पंचायत के कड़े फैसले का सामना करना पड़ा। हमारे पढ़ाई जारी रखने पर एक दिन फिर पंचायत बैठी मेरे परिवार को बुलाया गया। पंचायत में सभी आदमी पंच हैं। इसमें किसी बुजुर्ग दादी-नानियों तक को कोई शामिल नहीं किया गया है। अधिकतर उन घरों से लोग पंचायत में हैं, जो पैसे से बाकी लोगों से थोड़े मजबूत हैं। पंचायत ने फैसला सुनाया कि अगर मेरा परिवार लड़कियों की पढ़ाई बंद नहीं करेगा तो वे हमारे परिवार को समुदाय से बाहर कर देंगे।
समुदाय, रिश्तेदारों के यहां सामाजिक कार्यक्रम में हमारा आना-जाना बंद होगा जिसमें हमारा परिवार, हमारे खानदान रिश्तेदार के यहाँ सुख-दुख, बीमारी, मौत और शादी विवाह जैसे किसी भी स्थिति में न हम किसी के यहाँ जा सकेंगे न कोई हमारे यहाँ आ सकता है। हमें बस्ती में कोई किसी भी प्रकार की मदद नहीं करेगा। वहाँ कोई हमें किराना दुकान से राशन नहीं बेचेगा। समुदाय में किसी के नल से हमें पानी नहीं भरने दिया जाएगा। कोई भी आसपास के लोग हमारे परिवार के लोगों से बात नहीं करेंगे। एक तरह से मेरे परिवार को बहिष्कृत किया गया और उस पर अलग से जुर्माना लगाया गया। पंचायत ने हमारे परिवार पर 60 हजार रुपये का जुर्माना लगाया।
अब मेहनत रंग ला रही है
मेरे परिवार पर यह राशि एक बड़ा आर्थिक भार बनी। इस रकम को देने के लिए ब्याज पर पैसा लिया गया। 60 हज़ार रुपये की रकम को चुकाने के लिए हमने दिन-रात चूड़ियाँ बनाने का काम किया। ब्याज सहित हमने दो लाख रुपये चुकाए। पंचायत के इस रवैये ने अब हमें और मजबूत बना दिया। माँ ने कहा ठीक है हम बगैर समुदाय और जाति के लोगों के भी ज़िंदगी बसर कर लेंगे लेकिन अब लड़कियों की पढ़ाई नहीं रुकने देंगे। मेरे समुदाय से पहली बार कोई लड़की अकेले दिल्ली पुलिस की परीक्षा देने अकेले शहर से निकली और वो मेरी बहन है। इस तरह हमें अपनी समुदाय की महिलाओं से आस-पास से दोस्तियां और लेन-देन सबसे रोका गया।
मेरे परिवार के लिए बहुत मुश्किल वक़्त रहा लेकिन अब जब हम समुदाय और परिवार सभी के दवाब को सहन करते हुए अपने इरादों की तरफ़ बढ़ते जा रहे अब जाकर समुदाय ने खुद ब खुद हमें स्वीकारना शुरू कर दिया है। अभी मेरे परिवार के अलावा एक और परिवार की युवती ने कॉलेज जाना शुरू किया है। हम अकेले थे समुदाय और समाज के बीच तब भी हम डरे नहीं, मुझे लगता है ये “आगाज़ है बदलाव का”। हालांकि मेरे परिवार कि लड़कियां और महिलाएं अभी भी समुदाय के लिए बुरी औरतें ही हैं लेकिन बदलाव के लिए हमें ‘बुरी औरतें’ बनना ही होगा।