नारीवाद भारत में आधुनिक नारीवाद पर सोशल मीडिया का प्रभाव

भारत में आधुनिक नारीवाद पर सोशल मीडिया का प्रभाव

डिजिटल माध्यम महिलाओं को अपना नाम बताने पर ज़ोर न देकर भी, अपनी बात कहने और पहचान बनाने में सक्षम बनाता है। वे उन मुद्दों पर चर्चा कर सकती हैं, जिन्हें शायद सार्वजनिक तौर उनके लिए बात करना बहुत संवेदनशील होगा।

सोशल मीडिया आज एक शक्तिशाली टूल बन चुका है, जिसके माध्यम से हम न सिर्फ खुदको व्यक्त करते हैं बल्कि पूरी दुनिया की खबरों पर नजर रख सकते हैं। सोशल मीडिया आज लोगों के प्रतिरोध और अपनी बात कहने, सरकार से सवाल करने का भी एक जरिया बन गया है, जिसने बदलते समय में नारीवाद और विभिन्न आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दुनिया में प्रौद्योगिकी के आने से वैश्विक स्तर पर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव आया है।

भारत में नारीवादी आंदोलनों के लिए सोशल मीडिया एक महत्वपूर्ण साधन बनकर उभरा है, जो लोगों को उनकी आवाज बुलंद करने, समर्थन जुटाने और लैंगिक हिंसा और यौन और प्रजनन अधिकार जैसे विभिन्न मुद्दों पर चर्चा शुरू करने का अवसर देता है। नारीवाद में सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समानता के सिद्धांत शामिल हैं, जो लैंगिक असमानताओं को दूर करने और सभी जेंडर के लोगों के लिए समान अवसर और अधिकार की वकालत करता है।

भारत में स्लटवॉक को ‘बेशर्मी मोर्चा’ भी कहा जाता है और पहला ‘बेशर्मी मोर्चा’ 17 जुलाई 2011 को भोपाल में हुआ। इसके बाद 31 जुलाई 2011 को ‘बेशर्मी मोर्चा’ दिल्ली में भी हुआ। इस आयोजन के लिए फेसबुक पेज ‘स्लट वॉक दिल्ली’ तैयार किया गया था, जिसमें 17,000 से ज्यादा लोगों की भागीदारी की थी।

जहां पारंपरिक ऑफ़लाइन आंदोलनों ने लोगों को, संगठनों, गुटों, राजनीतिक दलों, सामाजिक या शैक्षणिक संस्थानों की सदस्यता की मदद से घर-घर जाकर अभियान चलाकर लोगों को संगठित किया। वहीं दूसरी ओर, डिजिटल ऐक्टिविज़म या आंदोलन ऑफ़लाइन की तुलना में, बहुत तेज़ी से बड़ी संख्या में लोगों को संगठित कर सकती है। हालांकि डिजिटल माध्यम सीमित लोगों तक पहुंचती है, पर यह एक अधिक समावेशी दृष्टिकोण को बढ़ावा देती है, जहां लोग जेंडर, वर्ग, जाति या समुदाय की चिंता किए बिना याचिकाओं, विरोध, निजी अनुभव या लेखों के माध्यम से आंदोलनों में भाग ले सकते हैं और एक-दूसरों से जुड़ सकते हैं। सोशल मीडिया हाशिए के समुदायों के आवाज़ और सामाजिक मुद्दों को बुलंद करने, वायरल अभियान चलाने, मुख्यधारा की कहानियों को चुनौती देने और ज़मीनी स्तर पर ऐक्टिविज़म को नया रूप देने और लोगों को संगठित करने में आज महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।

महिलाओं का सोशल मीडिया से जुड़ाव और उनकी उपस्थिति

हालांकि देश में सोशल मीडिया पर महिलाओं का आज भी प्रतिनिधित्व कम है। लेकिन, सोशल मीडिया विरोध का एक और तरीका है जो पितृसत्ता, स्त्री-द्वेष और रूढ़िवाद से अपने तरीके से निपटता है। टेक्नॉलॉजी के उपयोग के माध्यम से, वर्चुअल दुनिया में नारीवाद अपना मत ज़ाहिर करने और प्रतिरोध के एक शक्तिशाली रूप में उभरा है। आज महिलाएं सरकारों, संस्थानों और नेताओं से जवाबदेही की मांग करने के लिए, डिजिटल माध्यमों का प्रयोग कर रही हैं और अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही हैं। भारत में, डिजिटल नारीवादी आंदोलन काफी हद तक सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर निर्भर करते हैं।

डिजिटल नारीवाद वास्तविक है और उतना ही मान्य है जितना कि सड़कों पर उभरते सामान्य विरोध और आंदोलन। भले ही यह पूरी तरह से समावेशी न हो, लेकिन आज के समय में यह नारीवादी विमर्श को आकार देता है।

अपनी व्यापक पहुंच के साथ, सोशल मीडिया ने महिलाओं की ही नहीं, सभी जेंडर की आवाज़ को सशक्त बनाकर, वैश्विक एकजुटता को बढ़ावा दिया है और पितृसत्ता और रूढ़िवाद के खिलाफ़ दुनिया में बदलाव की शुरूआत की है। यह सिर्फ़ हैशटैग के बारे में नहीं है, बल्कि उससे कहीं ज्यादा है। यह नारीवाद पितृसत्तात्मक संरचनाओं और सत्ता पर बैठे लोगों पर भी सवाल उठाती है। डिजिटल नारीवाद वास्तविक है और उतना ही मान्य है जितना कि सड़कों पर उभरते सामान्य विरोध और आंदोलन। भले ही यह पूरी तरह से समावेशी न हो, लेकिन आज के समय में यह नारीवादी विमर्श को आकार देता है। अपनी महत्व साबित करने बावजूद, डिजिटल ऐक्टिविज़म और विरोध को ऑफ़लाइन विरोध से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए।

साल 2013 में, एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल ने एसिड की बिक्री पर रोक लगाने के लिए एक ऑनलाइन याचिका, ‘StopAcidSale’ के माध्यम से 27,000 हस्ताक्षर एकत्र किए और इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में ले गईं।

जब शुरू हुआ ‘बेशर्मी मोर्चा’

तस्वीर साभार: Rediff

साल 2011 में टोरंटो में ‘स्लटवॉक’ जब महिलाओं ने ‘रीवीलिंग कपड़े’ पहनने के लिए ‘स्लट’ के रूप में लेबल किए जाने के विरोध में समर्थन जुटाने के लिए पहली बार फेसबुक और ट्विटर का इस्तेमाल किया। भारत में स्लटवॉक को ‘बेशर्मी मोर्चा’ भी कहा जाता है और पहला ‘बेशर्मी मोर्चा’ 17 जुलाई 2011 को भोपाल में हुआ। इसके बाद 31 जुलाई 2011 को ‘बेशर्मी मोर्चा’ दिल्ली में भी हुआ। इस आयोजन के लिए फेसबुक पेज ‘स्लट वॉक दिल्ली’ तैयार किया गया था, जिसमें 17,000 से ज्यादा लोगों की भागीदारी की थी। सोशल मीडिया का व्यापक रूप से उपयोग करने वाले अभियानों में यौन हिंसा के खिलाफ ‘ब्लैंक नॉइज़ प्रोजेक्ट’ शामिल था। ‘ब्लैंक नॉइज़ प्रोजेक्ट’ को 2003 में सड़कों पर उत्पीड़न के खिलाफ़ शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य सड़क पर यौन हिंसा पर बातचीत शुरू करना और सड़कों पर सभी के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करना था।

दिल्ली गैंग रेप घटना से लेकर पीरियड टैक्स के विरोध तक

साल 2012 में, दिल्ली गैंग रेप घटना के बाद, व्यापक ऑफलाइन और ऑनलाइन प्रदर्शन हुए। विरोध सोशल मीडिया पर भी काफी फैल गया। महिला की मौत के बाद, न्याय के समर्थन में लाखों लोगों ने #Delhibraveheart जैसे हैशटैग का इस्तेमाल किया। सड़क पर विरोध प्रदर्शनों के साथ-साथ इस ऑनलाइन विरोध ने वैश्विक ध्यान आकर्षित किया और एक सरकार को ठोस कदम उठाने पर मजबूर किया।

तस्वीर साभार: Hindustan Times

इसके बाद, बलात्कार की परिभाषा का विस्तार करने के लिए भारत के बलात्कार कानूनों में संशोधन किया गया। बलात्कार के दोषियों के लिए सज़ा को बढ़ाकर आजीवन कारावास और मृत्युदंड भी कर दिया गया। इसी तरह साल 2017 में, सैनिटरी नैपकिन पर 12 प्रतिशत टैक्स के खिलाफ अभियान चलाने के लिए #LahuKaLagaan हैशटैग ट्विटर पर ट्रेंडिंग रहा, जिसके नतीजन साल 2018 में आखिरकार ‘पीरियड टैक्स’ को समाप्त कर दिया गया।  

साल 2017 में, सैनिटरी नैपकिन पर 12 प्रतिशत टैक्स के खिलाफ अभियान चलाने के लिए #LahuKaLagaan हैशटैग ट्विटर पर ट्रेंडिंग रहा, जिसके नतीजन साल 2018 में आखिरकार ‘पीरियड टैक्स’ को समाप्त कर दिया गया।

स्टॉपएसिडसेल कैसे देश का ध्यान आकर्षित करने में रहा सफल

ये सच है कि आज भी देश में एक बड़ी संख्या में महिलाओं के पास मोबाईल या इंटरनेट तक पहुंच नहीं, लेकिन डिजिटल माध्यम एक हद तक, व्यापक नारीवादी चर्चाओं के लिए एक मंच देता है। ये स्थानीय सीमाओं से बाहर ऐक्टिविज़म और सामाजिक आंदोलनों को नया आयाम देता है। यह विभिन्न हाशिए के लोगों के लिए; विशेषकर महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए प्लेटफॉर्म देता है। साल 2013 में, एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल ने एसिड की बिक्री पर रोक लगाने के लिए एक ऑनलाइन याचिका, ‘StopAcidSale’ के माध्यम से 27,000 हस्ताक्षर एकत्र किए और इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में ले गई थीं।

तस्वीर साभार: Facebook

इस अभियान ने देश भर का ध्यान आकर्षित किया और कई अन्य एसिड अटैक सर्वाइवर्स को एसिड की बिक्री पर प्रतिबंध के लिए अपना समर्थन जताने का मौका दिया। इसके व्यापक सफलता के बाद, 2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका के पक्ष में फैसला सुनाया और एसिड की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। आज इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 326 के तहत अपराध के रूप में मान्यता दी गई है, जो खतरनाक हथियारों या साधनों द्वारा गंभीर चोट पहुंचाने वाले अपराधों को वर्गीकृत करती है।

साल 2009 में ‘पिंक चड्डी’ अभियान, 2011 में सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के अधिकार के लिए ‘व्हाई लोइटर’ और 2015 में छात्रावासों में कर्फ्यू के घंटों के खिलाफ़ ‘पिंजरा तोड़’ ने देश के नारीवादी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के अधिकार की लड़ाई

साल 2009 में ‘पिंक चड्डी’ अभियान, 2011 में सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के अधिकार के लिए ‘व्हाई लोइटर’ और 2015 में छात्रावासों में कर्फ्यू के घंटों के खिलाफ़ ‘पिंजरा तोड़’ ने देश के नारीवादी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साल 2017 में #whyloiter ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा था और इसने महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर दोबारा दावा करने और पितृसत्तात्मक मानदंडों का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। वहीं 2018 तक, भारत में #MeToo आंदोलन ने गति पकड़ ली, जिससे महिलाओं को सोशल मीडिया पर यौन हिंसा की अपनी कहानियां साझा करने और शक्तिशाली लोगों, संस्थानों पर सवाल करने में मदद की।

तस्वीर साभार: The Week

डिजिटल माध्यम महिलाओं को अपना नाम बताने पर ज़ोर न देकर भी, अपनी बात कहने और पहचान बनाने में सक्षम बनाता है। वे उन मुद्दों पर चर्चा कर सकती हैं, जिन्हें शायद सार्वजनिक तौर उनके लिए बात करना बहुत संवेदनशील होगा। अमूमन सार्वजनिक रूप से कम दिखाई देने वाली महिलाएं भी सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया या विरोध दर्ज करने में सफल रही हैं। सोशल मीडिया ने नारीवादी आंदोलन को आसान और आम जन के लिए सुगम बनाया है। इसने इन आंदोलनों को विविधता दी है, और लोगों को प्रोत्साहित किया है कि वे अपने अधिकारों के लिए खड़े हो सकें।

साइबरफेमिनिज्म विभिन्न नारीवादी लहरों से बेहतर कहा जा सकता है, जिसमें महिलाओं को एक समान समूह के रूप में माना जाता था। हालांकि डिजिटल माध्यम पर महिलाओं को ट्रोलिंग और ऑनलाइन हिंसा का सामना भी करना पड़ा है। नारीवाद आंदोलन के निर्माण में डिजिटल माध्यम के सकारात्मक योगदान के बावजूद, अपनी सीमित पहुंच के कारण इसे समावेशी या दूरदर्शी नहीं माना जा सकता। इसलिए, डिजिटल स्पेस नारीवादी आंदोलनों का अंतिम लक्ष्य नहीं बन सकता, बल्कि प्रतिरोध और विरोध को अधिक समावेशी बनाने के साधन के रूप में इस्तेमाल होना चाहिए।

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