बीते वर्ष एक पारिवारिक कार्यक्रम में लंबे समय बाद मिली अपनी चचेरी बहन से एक बातचीत के दौरान मैंने अचानक से पूछा कि क्या तुम नारीवादी हो तो उसने जवाब दिया मैं महिलाओं के समान अधिकारों में विश्वास करती हूं लेकिन मौजूदा माहौल में खुद को नारीवादी नहीं कहूंगी। मैंने उससे पूछा इसमें दिक्कत क्या है उसने नारीवाद को लेकर फैली कुछ भ्रांतियों और उनमें से प्रमुख एक कि नारीवादी पुरुषों से नफ़रत करती है जैसी बात कहकर बात को वहीं खत्म करना चाहा। लेकिन मैं असमंजस में थी और उससे कहा नारीवाद का मतलब तो समान अधिकारों से है। लेकिन तभी यह बातचीत वहां खत्म हो गई। नारीवाद को लेकर यह सोच आज भी मौजूद है। नारीवाद को लेकर मिथकों में पुरुषों से नफरत करने वाला सबसे आम है। ऐसे में महिलाएं खुद को नारीवादी नहीं कहना चाहती हैं।
हाल ही में अभिनेत्री नोरा फतेही ने नारीवाद को लेकर एक बयान जारी किया। उन्होंने नारीवाद को समाज को बांटने वाला और कहा कि नारीवाद ने कुछ पुरुषों का ब्रेनवॉश कर रखा है। इससे कुछ समय पहले अभिनेत्री नीना गुप्ता ने भी नारीवाद को लेकर एक बेतुका बयान जारी किया था। नारीवाद को लेकर इस तरह की सोच आम और ख़ास हर वर्ग के लोगों में बनी हुई है। नारीवाद को गहराई से न समझते हुए लोग इसके बारे में राय जाहिर करते हैं। नारीवादी विचारधारा को एक विभाजनकारी नीति के तौर पर देखा जाता है। वास्तविकता को जाने बगैर कुछ लोग इसे समाज के लिए बहुत बड़ा खतरा मानते है तो कुछ इसे समाज बांटने वाला मानते है।
हिमांशी का कहना है, “हम एक पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं जहां बड़े स्तर पर जेंडर रोल्स के तहत चीजों को बांटा गया है। वहीं नारीवाद खुद को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करता है जिसमें कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन यह सब करने से आप लाइन से अलग हो जाते हैं और यही से चैलेंज शुरू हो जाता है।”
नारीवादी विचारधारा के समावेशी मायनों को जाने बगैर इसे पुरुषों से नफ़रत करने वाली विचारधारा के तौर पर ज्यादा स्थापित कर दिया गया है। इसलिए सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत है कि नारीवाद क्या है? दरअसल नारीवादी आंदोलन लैंगिक समानता की बात करता है। लैंगिक आधार पर होने वाले किसी भी तरह के भेदभाव को खत्म करना और सभी लिंगों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समानता इसका मूल सिद्धांत है। नारीवाद का यह मानना है कि पुरुषों से अलग लैंगिक पहचान वाले व्यक्तियों को भी समान अवसर मिलना चाहिए। कई अध्ययनों से यह बात सामने निकलकर आती है कि वे समानता पर विश्वास करते हैं लेकिन खुद को नारीवादी कहलाने से परहेज करते हैं।
अमेरिकी नारीवादी क्रिस्ट्रीना हॉफ सोमर्स अपनी किताब “हू स्टोल फेमिनिज़म” में इस बारे में विस्तृत चर्चा करते हुए कहती है कि 1960 के दशक से नारीवाद कैसे बदल गया है और समान अधिकारों के लिए लड़ाई पुरुषों और पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लड़ाई की ओर कैसे बढ़ गया है। वह इक्विटी फेमिनिज़म की तुलना उससे करती हैं जिसे वह जेंडर फेमिनिज़म कहती है। ऐसा एजेंडा जो सेक्स के आधार पर ऐतिहासिक असमानताओं की भरपाई करने की कोशिश करता है। नारीवाद का काम पुरुषों के ख़िलाफ़ काम करना नहीं वह लैंगिक समानता की वकालत करता है। लेकिन नारीवाद को फैली नकारात्मकता की वजह के कारण इसे पुरुषों से नफरत करनेवाली विचारधारा वाला ज्यादा कहा जाता है।
नारीवाद और पितृसत्तात्मक समाज
नारीवादी महिलाओं को लेकर भ्रांतियां फैलाई हुई है। ऐसी छवियां प्रस्तुत की गई है कि नारीवादी महिलाएं गुस्से में रहती हैं। वे फैशन के अनुरूप नहीं चलती हैं, उन्हें हर जगह क्रांति करनी होती है। कॉलेज में पढ़ने वाली हिमांशी का कहना है, “हम एक पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं जहां बड़े स्तर पर जेंडर रोल्स के तहत चीजों को बांटा गया है। वहीं नारीवाद खुद को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करता है जिसमें कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन यह सब करने से आप लाइन से अलग हो जाते हैं और यहीं से चैलेंज शुरू हो जाता है। आपके आसपास के लोग आपके साथ अलग व्यवहार करते हैं। आपको कई तरह के अलग टैग दिए जाते हैं इस वजह से खुलकर नारीवादी कहने पर कई बार खुद को पीछे रखना सही लगा है।”
नारीवाद को लेकर फैलाएं मिथकों की वजह से यह इस आंदोलन को नकारने का एक तरीका भर है क्योंकि नारीवाद कभी नहीं कहता है कि केवल महिलाओं को ही अधिकार मिलेंगे। नारीवादी विचारधारा एक समावेशी समाज यानी हर लिंग, जाति, वर्ग, रंग और समुदाय के सभी लोगों के लिए बराबर अधिकारों की वकालत करती है। नारीवाद समाज में महिला विरोधी सोच को खत्म करने की पैरवी करता है लेकिन समाज में इसे पुरुष विरोधी विचारधारा के तौर पर प्रचारित किया गया है। यह एक प्रमुख वजह है कि लोग विशेषरूप से महिलाएं इस आंदोलन से खुद को जोड़ने में पीछे हटती नज़र आती हैं।
“क्या मैं सूडो फेमिनिस्ट हूं”
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एक निजी कंपनी में काम कर रही मनीषा (बदला हुआ नाम) का कहना है, “आम तौर पर महिलाएं खुदको फेमिनिस्ट नहीं कहना चाहती हैं क्योंकि हमारे देश में ‘फेमिनिस्ट’ कहलाना कोई ऐसी बात नहीं जिसकी तारीफ़ होगी या लोगों का समर्थन मिलेगा। बहुत सी महिलाएं इसलिए भी झिझकती हैं क्योंकि लोग ‘फेमिनिस्ट’ का मतलब पुरुषों से नफ़रत करने वाली, अधिकार के नाम पर पुरुषों का इस्तेमाल करने वाली या बिना बात के हंगामा करने वाली महिलाओं के रूप में समझते हैं। अक्सर मुझसे कई लोग बिना नारीवाद की समझ के यह पूछते हैं कि क्या मैं सूडो फेमिनिस्ट में से एक हूं। अगर महिला एकल हो तब खुदको फेमिनिस्ट कहना और भी मुश्किल है क्योंकि तब जीवन की कोई भी समस्या को फेमिनिस्ट होने से जोड़ दिया जाता है। चाहे बड़े शहरों में बदलाव नजर आए, छोटे शहरों और गांवों में समाज आपको फेमिनिस्ट कहने पर नहीं अपनाता और न ही आपको समझता है।”
एक अध्ययन के मुताबिक़ दुनिया के हर तीन में से एक पुरुष का मानना है कि नारीवाद अच्छा करने से ज्यादा नुकसान करता है। द गार्डियन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ इप्सोस कंपनी द्वारा दुनिया के 30 से ज्यादा देशों में किए गए सर्वे के अनुसार महिलाओं अधिकारों के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा। 31 देशों की सूची में भारत वह देश है जहां 73 फीसदी लोगों ने खुद को नारीवादी कहा है और 9 फीसदी ने कहा है कि वे फेमिनिस्ट नहीं है। ठीक इसी तरह अमेरिकी मिलेनियल्स में किए गए एक शोध के अनुसार सर्वे में शामिल तीन-चौथाई ने कहा है कि नारीवादी आंदोलन ने ब्लैक महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने के लिए “बहुत कुछ” या “कुछ” किया है।
नारीवाद समाज में महिला विरोधी सोच को खत्म करने की पैरवी करता है लेकिन समाज में इसे पुरुष विरोधी विचारधारा के तौर पर प्रचारित किया गया है। यह एक प्रमुख वजह है कि लोग विशेषरूप से महिलाएं इस आंदोलन से खुद को जोड़ने में पीछे हटती नज़र आती हैं।
नारीवाद को लेकर गलत धारणाओं इस आंदोलन की एक बड़ी बाधा है। बीबीसी में प्रकाशित लेख के अनुसार एंथोलॉजी फेमिनिस्ट्स डोट वियर पिंक एंड अदर लाइज़ की अपनी प्रस्तावना में क्यूरेटर स्कारलेट कर्टिस ने नारीवादियों को बारे में रूढ़िवादिता का उल्लेख किया है कि वे मेकअप नहीं करती हैं या अपने पैरों को शेव नहीं करती हैं। इस तरह की रूढ़िवादी बातें सदियों से चली आ रही हैं। 1920 के दशक में नारिवादियों को अक्सर अविवाहित कहा जाता था और उनकी यौन प्राथमिकताओं के बारे में कई तरह की बातें की जाती थीं। लगभग एक सदी के बाद ये विचार अभी भी कुछ हद तक प्रभावी है। इस तरह की सोच को खत्म करना इस आंदोलन के लिए अब तक एक चुनौती बनी हुई है। नारीवाद एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन है जिसका उद्देश्य लैंगिक समानता को बढ़ावा देना और पितृसत्तात्मक ताकतों को चुनौती देना है जो पुरुष से इतर लैंगिक पहचान वाले समुदाय को हाशिये पर रखते हैं।