समाजखेल महिला खिलाड़ी केंद्रित फ़िल्मों में बॉलीवुड का टेक आखिर कब बदलेगा?

महिला खिलाड़ी केंद्रित फ़िल्मों में बॉलीवुड का टेक आखिर कब बदलेगा?

महिला खिलाड़ियों पर बनी हाल की इक्का-दुक्का फ़िल्में छोड़ दें तो अधिकतर फ़िल्मों के निर्देशक, लेखक और पटकथा लेखक पुरुष ही हैं। अपने अंदाज़ से कहानी कहने की छूट लेकर वे कहानी के किन पहलुओं को दर्शक तक पहुंचाना चाहते हैं ये उन पर निर्भर करता है।

बॉलीवुड में जब खेल और सिनेमा एक साथ आते हैं तो ब्लॉकबस्टर हिट फ़िल्में बनती हैं। चाहे आप ‘लगान’, ‘चक दे इंडिया’, ‘भाग मिल्खा भाग’, ‘मैरी कॉम’, ‘दंगल’, ‘एम.एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’ की बात करें या फिर ‘मैदान’ और वर्तमान में ऐसी ही कई और फ़िल्मों की बात करें, सब एक से बढ़कर एक कॉमर्शियल हिट्स हैं। साथ ही दर्शकों के दिल में अपनी जगह बनाने में भी कामयाब रही है। पर जब हम इन फ़िल्मों को क़रीब से देखते हैं तो यह बात गौर करने वाली है कि ज़्यादातर स्पोर्ट्स फ़िल्में पुरुष खिलाड़ियों पर आधारित होती है चाहे वो बायोग्राफ़ी हो या फ़िक्शन या फिर सच्ची घटनाओं से प्रेरित हो। 

स्क्रीन पर महिला खिलाड़ियों की कहानियां कम ही दिखाई देती हैं। इसका संभावित कारण यह हो सकता है कि भारत में तुलनात्मक रूप से कम सफल महिला खिलाड़ी हैं और जिनकी ख्याति पुरुष खिलाड़ियों से कम है। ‘मैरी कॉम’ फ़िल्म के निर्देशक उमंग कुमार अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं कि उन्हें बड़ी हैरानी हुई ये जानकर कि पांच बार वर्ल्ड चैम्पियन रह चुकी मैरी कॉम के बारे में लोग नहीं जानते थे। वे ख़ुद भी मैरी कॉम के बारे में तब जानें जब फ़िल्म के राइटर साईविन क्वाड्रास उनके पास फ़िल्म का प्रस्ताव लेकर आएं।

बॉलीवुड की स्पोर्ट्स फ़िल्मों की अमूमन एक सी कहानी है। उसमें भी अगर महिला खिलाड़ी की कहानी हो तब प्लॉट और भी आम हो जाता है जैसे एक खिलाड़ी जो भले ही कितनी ही प्रतिभाशाली हो लेकिन उसे वर्ल्ड चैम्पियन बनाने में सबसे बड़ा हाथ उसके पुरुष कोच का होता है।

महिला खिलाड़ियों पर केंद्रित चुनिंदा फ़िल्में हैं और उनमें भी जगह-जगह पितृसत्तात्मक मानसिकता नज़र आती है जो अनजाने में या अवचेतन रूप से मौजूद है। इस दृष्टि से यह विश्लेषण करना ज़रूरी हो जाता है कि स्क्रीन पर महिला खिलाड़ियों को कैसे चित्रित किया जाता है? ये फ़िल्में क्या उनका रियल रिप्रेजेंटेशन करती है या फिर इसमें चूक जाती है? हमें देखना होगा कि क्या फ़िल्म में दिखाई गई महिला खिलाड़ी अपने सपनों को अपने दम पर हासिल कर पाती हैं या अब भी किसी पुरुष नेतृत्व द्वारा बचाए जाने के लिए ‘असहाय औरत’ की पहले से तयशुदा पितृसत्तात्मक भूमिका में ही नज़र आती है?

महिला खिलाड़ी की कहानी पुरुष निर्देशक की ज़ुबानी 

महिला खिलाड़ियों पर बनी हाल की इक्का-दुक्का फ़िल्में छोड़ दें तो अधिकतर फ़िल्मों के निर्देशक, लेखक और पटकथा लेखक पुरुष ही हैं। अपने अंदाज़ से कहानी कहने की छूट लेकर वे कहानी के किन पहलुओं को दर्शक तक पहुंचाना चाहते हैं ये उन पर निर्भर करता है। ऐसे में कई बार महिला खिलाड़ियों के संघर्ष को सतही बनाकर पेश किया जाता है। ऐसे में वे दर्शकों को भावनात्मक रूप से नहीं जोड़ पाते है और कहानी से काफ़ी कटा-कटा महसूस करते हैं। और कई बार उनके निजी जीवन का चित्रण इतना नाटकीय हो जाता है कि बेहद ज़रूरी विषय भी हल्के लगने लगते हैं। चाहे आप ‘रश्मि रॉकेट’ की बात करें या ‘शाबाश मिठू’ की, लगभग हर फ़िल्म में आपको इस तरह की कमज़ोर कड़ी नज़र आएगी। कहानी को ऐसे पिरोया जाता है कि उस खेल फ़िल्म में स्पोर्ट कुछ ज़्यादा बचता नहीं। इसका संभावित कारण यह हो सकता है कि निर्देशक को खेलती हुई महिला खिलाड़ियों को पर्दे पर ज़्यादा तवज्जो देने की ज़रूरत नहीं लगती होगी। 

एक प्रतिभाशाली महिला खिलाड़ी की कहानी में पुरुष नायक के रूप में

तस्वीर साभारः Paris 2024

बॉलीवुड की स्पोर्ट्स फ़िल्मों की अमूमन एक सी कहानी है। उसमें भी अगर महिला खिलाड़ी की कहानी हो तब प्लॉट और भी आम हो जाता है जैसे एक खिलाड़ी जो भले ही कितनी ही प्रतिभाशाली हो लेकिन उसे वर्ल्ड चैम्पियन बनाने में सबसे बड़ा हाथ उसके पुरुष कोच का होता है। अपनी ही कहानी में महिला सेकेंडरी कैरेक्टर हो जाती है या फिर कई मामलों में एक की कहानी को पर्दे पर दो लोगों की दिखाई जाती है। ऐसी ही फ़िल्में ‘चक दे इण्डिया’, ‘साला खड़ूस’ और ‘घूमर’ आदि हैं। 

पहले तो ‘चक दे इण्डिया’ पूरी फ़िल्म ही कबीर खान (शाहरुख़ खान) के नज़रिए से चलती है और आख़िर में गर्ल्स हॉकी टीम के वर्ल्ड चैम्पियन बनने का सारा श्रेय कोच को दे देना और फ़िल्म का नरेटिव ऐसे बनाना कि अगर वो एक पुरुष नहीं होता तो लड़कियां कभी इस मुकाम तक नहीं पहुंचती। ये दर्शक को किस तरह का मैसेज दे रही है? वहीं ‘साला खड़ूस’ फ़िल्म में लड़की पहले ही एक प्रतिभाशाली मुक्केबाज़ है लेकिन उसे सही दिशा में आगे बढ़ाने के लिए मेकर्स को एक पुरुष कोच की ज़रूरत महसूस होती है और आर. माधवन को कोच के किरदार में लाया जाता है। सिर्फ़ इतना काफ़ी नहीं होता है कि कोच महिला खिलाड़ी को ट्रेनिंग के लिए उल्टा प्रतिदिन 500 देने का कहता है।

मेकर्स एक खिलाड़ी के जीवन से प्रेरित होकर उनकी कहानी उठाते हैं, जब तक सुविधाजनक हो अपने अनुसार उसमें फेर-बदल करते हैं और क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर इसे ऐसे पेश करते हैं कि ये उपभोक्ताओं के लिए एक स्वादिष्ट उत्पाद बन सके। महिला खिलाड़ियों पर केंद्रित लगभग हर फ़िल्म इसी तरह से बनती है।

‘घूमर’ की भी इससे अलग कहानी नहीं है। इसमें कोच पैडी के रूप में अभिषेक बच्चन को इतना ज़्यादा स्क्रीन टाइम मिला है कि लगता ही नहीं ये सिर्फ़ अनीना की कहानी है। फ़िल्म के नैरेटिव के हिसाब से अनीना एक स्ट्रॉन्ग विल पावर वाली लड़की है लेकिन यहां भी उसे वापस क्रिकेट खेलने के लिए जज़्बा जगाने का काम पैडी ही करता है। सुपरहिट फ़िल्म ‘दंगल’ में यही रोल गीता और बबिता फोगाट के पिता का है। गीता और बबिता का यह कोई सपना नहीं था कि वो कुश्ती करें। उनके पिता (महावीर फोगाट) देश के लिए खेलने का अपना अधूरा सपना पूरा करने के लिए अपनी लड़कियों को कुश्ती सीखाते है। वह भी तब जब लड़के की चाहत बार-बार उन्हें निराश करती है। तो इस हिसाब से कहानी भले गीता-बबिता की हो पर सपना उनके पिता का था तो उन्हीं ने नज़रिए से पूरी कहानी भी दर्शकों तक परोसी गई है।

आश्चर्य की बात है कि साल 2007 में आई ‘चक दे इण्डिया’ और साल 2023 में आई ‘घूमर’, दोनों फ़िल्मों में लगभग डेढ़ दशक का अन्तराल होने के बावजूद एक कोच को कहानी के पुरुष नायक के रूप में परोसने के नैरेटिव में कोई बदलाव नहीं आया है। पहले के लिए एक बार को सोचा जा सकता है कि उस वक़्त ज़्यादा महिला कोच मिलना मुश्किल था तो समय के हिसाब से कहानी में पुरुष कोच को स्थान दिया गया होगा लेकिन आज भी इसे जारी रखना, खेल और महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देना है। इस पर निश्चित ही मेकर्स को थोड़ा और विचार करने की ज़रूरत है।

कास्टिंग चॉइस और स्टीरियोटाइप

अक्सर देखा गया है कि फ़िल्म में कास्टिंग किरदार के अनुरूप करने की बजाय अभिनेत्रियों को अपनी पसन्द के अनुसार कास्ट करने के बाद उन्हें किरदार के अनुरूप ढाला जाता है। ऐसा ही एक उदाहरण है ‘सांड की आंख’ फ़िल्म जिसमें कास्टिंग ओल्डर विमेन की बजाय तापसी पन्नू और भूमि पेडनेकर की की गई है। उनका मेकअप और प्रोस्थेट्स आदि के इस्तेमाल के बाद भी वो उतनी कन्विंसिंग नहीं लग पाईं जितना कि लगना चाहिए था। ये कास्टिंग चॉइस न सिर्फ़ उम्रदराज़ अभिनेत्रियों को मिलने वाले अवसरों की कमी पर सवाल उठाता है, बल्कि “महिलाओं की कहानियां सिर्फ़ तभी बताने लायक है जब वो जवां और पारम्परिक रूप से आकर्षक हो” वाले विचार को पुष्ट करता है।

तस्वीर साभारः Telegraph India

इसी तरह से ‘शाबाश मिठू’ फ़िल्म में तापसी पन्नू को मिताली राज के रोल के लिए कास्ट किया गया है लेकिन वहीं उन्हें मिताली जैसा दिखाने के लिए अपने चेहरे का रंग कुछ डार्क करना पड़ता है। यहां भी वही ज़िद देखने को मिलती है। उसके अलावा ‘रश्मि रॉकेट’ फ़िल्म में भी तापसी एक ऐसी महिला का किरदार निभा रही हैं जिसके शरीर में टेस्टोस्ट्रोन लेवल आम लड़कियों से काफ़ी ज़्यादा है। लेकिन इसके साथ जो समस्याएं आती हैं जैसे कि चेहरे पर बाल, एक्ने, ठीक इसके उलट फ़िल्म में रश्मि का चेहरा एकदम साफ़-सुथरा दिखता है। यह दर्शाता है कि मेकर्स कितने सजग है इस विषय को लेकर। 

यहां एक और बात गौर करने वाली है कि हाल-फ़िलहाल में बनी फ़िल्मों में हर बार एक ही अभिनेत्री को कास्ट करना क्योंकि वो इस तरह का रोल पहले कर चुकी हैं, यह एक बेतुका तर्क है और यह ज़्यादा कुछ नहीं बल्कि अपना समय और मेहनत बचाने का तरीका है। ‘मैरी कॉम’ फ़िल्म में भी नॉर्थ ईस्ट के खिलाड़ी की कहानी में एक नॉर्थ-इंडियन को कास्ट करना अपने आप में बायसिस दिखाता है। इस पर अपने एक इंटरव्यू में प्रियंका भी यह मानती हैं कि इस बायोपिक में किसी उत्तर-पूर्वी भारतीय को कास्ट करना चाहिए था क्योंकि प्रियंका कहीं से भी थोड़ा भी मैरी कॉम से मेल नहीं खाती हैं। हालांकि इसका एक दूसरा पक्ष ये भी है कि जब ऐसी महिला खिलाड़ियों पर फ़िल्में बनती हैं जिनकी ख्याति बहुत न हो तो उनके किरदार में ऐसे किसी को लेना जिसकी अच्छी ख़ासी पहचान हो मजबूरी हो जाती है ताकि उनको देखने के लिए ही सही लेकिन फ़िल्म लोग देखें। 

महिला खिलाड़ियों की चुनौतियों और संघर्ष का सैनिटाइज़्ड वर्ज़न

मेकर्स एक खिलाड़ी के जीवन से प्रेरित होकर उनकी कहानी उठाते हैं, जब तक सुविधाजनक हो अपने अनुसार उसमें फेर-बदल करते हैं और क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर इसे ऐसे पेश करते हैं कि ये उपभोक्ताओं के लिए एक स्वादिष्ट उत्पाद बन सके। महिला खिलाड़ियों पर केंद्रित लगभग हर फ़िल्म इसी तरह से बनती है। जो महिलाएं कल्चरल, सोसाइटल और पैट्रियार्कल नॉर्म्स को तोड़कर खेल को अपने करियर के रूप में चुनती हैं और आने वाली पीढ़ी की लड़कियों के लिए एक रोल मॉडल बनती हैं। अक्सर उनके यह संघर्ष पर्दे पर इतने नाटकीय ढंग से दिखाए जाते हैं कि वो बस सतही बनकर रह जाते हैं। 

इसका सबसे अच्छा उदाहरण है फ़िल्म ‘साइना’। फ़िल्म में जिस तरह से एक के बाद एक मैच जीतकर साइना नेहवाल वर्ल्ड चैम्पियन बन जाती हैं लगता ही नहीं कि उन्हें कोई ख़ास समस्या आई यहां तक पहुंचने में। एक महान खिलाड़ी की इतनी साधारण और सतही कहानी दर्शकों को दिखाना और उससे भी बढ़कर एक महिला खिलाड़ी के संघर्षों को स्पष्ट सामने न रखना, बेशक खिलाड़ी और उनके प्रशंसकों के साथ न्याय नहीं करता है। फ़िल्म ‘सांड की आंख’ सामाजिक मुद्दे जैसे खेल में महिलाओं के लिए कम अवसर ग्रामीण घरेलू महिलाओं की कई चीज़ों तक सीमित पहुंच और घूंघट जैसी दमनकारी प्रथा जैसे मुद्दों को छूती है। लेकिन फिर भी फ़िल्म में चंद्रो और प्रकाशी तोमर जिस पितृसत्तात्मक समाज में रहती हैं उसका चित्रण सतही लगता है क्योंकि फ़िल्म उन संस्थागत बाधाओं (सिस्टेमेटिक बैरियर्स) को गहराई से समझने में विफल रहती है जिनका महिलाओं को सामना करना पड़ता है।

ख़ासकर इन फ़िल्मों (सांड की आंख और स्केटर गर्ल) में पुरुष पात्रों (प्रतिपक्ष पितृसत्ता) को वन डाइमेंशनल विलेन के रूप में दिखाया जाता है, जिसमें भारत के ग्रामीण इलाकों में जेंडर डायनेमिक्स की जटिलताओं को सही मायने में समझने के लिए जिन बारीकियों की आवश्यकता थी, वो यहां नज़र नहीं आती। वहीं ‘साला खड़ूस’ फ़िल्म में महिलाओं को खेल में नहीं मिलने वाले समर्थन और स्पोर्ट्स एसोसिएशन में भ्रष्ट प्रथाओं जैसे गम्भीर मुद्दों पर बात तो करती है लेकिन गहराई से इन मुद्दों को एक्सप्लोर नहीं करती। फ़िल्म महिला खिलाडियों के सामने आने वाली चुनौतियों का एक थोड़ा साफ़-सुथरा वर्ज़न प्रस्तुत करती है, जो संस्थागत लैंगिक भेदभाव (सिस्टेमेटिक सेक्सिस्म) और सामाजिक दबावों को नज़रअंदाज करती है, जिससे महिलाओं की खेलों में भागीदारी बाधित होती है।

तस्वीर साभारः OTTPlay

दुत्ती चंद और संथी साउंडराजन जैसी वास्तविक खिलाड़ियों के जीवन से प्रेरित फ़िल्म ‘रश्मि रॉकेट’ में खेल में ‘जेंडर टेस्टिंग’ के मुद्दे को उठाया गया। यह सराहनीय प्रयास था लेकिन इस कहानी को पर्दे पर टोटल बॉलीवुड टच के साथ पेश करने से इस विषय की गंभीरता कम हुई ही और साथ ही इसका असर भी कम हो जाता है। उसमें भी सिर्फ़ यह सिद्ध करने के लिए कि वो वाक़ई लड़की ही है, हेट्रोसेक्सुअल लव और मातृत्व का सहारा लेते हैं। इसी तरह से कितनी ही बार फ़िल्मों में महत्वाकांक्षी स्त्री को अलग तरह से चित्रित किया जाता है, वह सेक्शुअल फेवर पाकर सफलता हासिल करना चाहती है। जैसा कि ‘चक दे इंडिया’ में बिंदिया नायक जो टीम की कप्तान बनना चाहती है। ये समाज में चल रही महत्वकांशी महिला विरोधी विचार को लेजिटिमेट करती नज़र आती है जबकि महत्वकांशी होने में न कोई बुराई नहीं और न ही इसका ये अर्थ है कि हर टॉप पोज़िशन पर पहुंची महिला अपने टैलेंट के दम पर नहीं पहुंच सकती।

इसके अलावा इन फ़िल्मों में जो सपोर्टिंग रोल्स में महिलाएं हैं चाहे वो ‘शाबाश मिठू’ की नूरी हो या मिताली के बाक़ी टीममेट्स हों या फिर ‘पंगा’ फ़िल्म की मीनू हो। अक्सर फ़ीमेल सॉलिडैरिटी को बहुत कम एक्सप्लोर किया जाता है। अगर इसे अच्छे से पर्दे पर दिखाया जाए तो ये एक इंडिविजुअल की कहानी तक सीमित नहीं रहती, बल्कि पूरे स्त्री जाति की कहानी के रूप में उभरकर आती है। ऐसे ही और कई पहलू हैं जो मेकर्स फ़िल्म को एक परंपरागत ढांचे में डालने की होड़ में पीछे छोड़ देंगे हैं और इसे कॉमर्शियल हिट बनाने की जद्दोजहत में लग जाते हैं। इस बीच महिला खिलाड़ियों के यथार्थ संघर्ष और उनकी उपलब्धियों को चित्रित करने में चूक जाते हैं या कहें अनुकूलन के माध्यम से उनके भीतर के पितृसत्तात्मक मूल्य और उससे पोषित मानसिकता ऐसे समय-समय पर पर्दे पर अनजाने में या अवचेतन रूप से सबके सामने दिखते हैं। इसलिए इन फ़िल्मों को नारीवादी चश्मे से देखना बेहद ज़रूरी हो जाता है।


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