महिलाओं के साथ भेदभाव और असमानता कोई नई बात नहीं। लेकिन कहा जाता है कि खेल सभी को एक समावेशी नज़र से देखती और ये लोगों को जोड़ती है। लेकिन, अगर खेल के इतिहास और बारीकियों पर जाएं, तो खेल के क्षेत्र में महिलाओं और हशिये के समुदाय के साथ भेदभाव होता आया है। खेल में इस लैंगिक भेदभाव के कारण खेल के लिए महिलाओं को कमतर, कोमल और कमजोर माना जाता रहा है। वहीं खेल में महिलाओं की सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसपर बातचीत नहीं होती। आज वैश्विक स्तर पर खेल में महिलाओं ने अपनेआप को साबित किया है। भारत में किसी भी खेल में महिला खिलाड़ी की स्थिति को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश में किस कदर महिला खिलाड़ियों के साथ भेदभाव हो रहा है। ये भेदभाव न सिर्फ जमीनी स्तर पर हो रहा है बल्कि समाज में मौजूद रूढ़िवाद के कारण भी इसे बढ़ावा मिल रहा है।
खेल में ऐसी घटनाएं महज बड़े स्तर तक सीमित नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिला खिलाड़ियों को शोषण का सामना करना पड़ता है। खेल के क्षेत्र में शोषण और भेदभाव पर उत्तर प्रदेश में रहने वाली प्रियंका सिंह बताती हैं, “स्कूल के समय जिस टीम को मैं और मेरी बहन रिप्रेजेंट करते थे, उसके कोच का किसी महिला खिलाड़ी के साथ संबंध था। इस कारण मुझे मैच से एक दिन पहले बाहर कर दिया गया और उस खिलाड़ी को टीम में जगह दे दी। मैं और मेरी बहन अच्छे खिलाड़ी थे। मगर चेहरे की खूबसूरती के आधार पर दूसरे प्लेयर्स का चुनाव हो जाता था। इस कारण हमारा मनोबल कम होता गया।” महिलाओं के साथ खेल में असमानता केवल भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी देखी गई है। पहला आधुनिक ओलंपिक 1896 में एथेंस, ग्रीस में आयोजित किया गया था। लेकिन ओलंपिक में महिलाएं पहली बार साल 1900 में अपना जगह बना पाईं।
मैं और मेरी बहन अच्छे खिलाड़ी थे। मगर चेहरे की खूबसूरती के आधार पर दूसरे प्लेयर्स का चुनाव हो जाता था। इस कारण हमारा मनोबल कम होता गया।
छोटे शहरों में महिलाओं के खेलने में बाधाएं
बड़े शहरों में महिला खिलाड़ी फिर भी आर्थिक, सामाजिक और सुरक्षा के मद्देनजर खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। मगर ग्रामीण इलाकों में आज भी खेल को लेकर मूलभूत सुविधाएं मौजूद नहीं है। कई बार इनमें कोच की कमी, सही गाइडेंस, आर्थिक तंगी, सामाजिक परिवेश, शादी जैसे मुद्दे भी शामिल रहते हैं। बिहार के आरा जिले की सांची श्रेया बास्केटबॉल प्लेयर रह चुकी हैं। वह बताती हैं, “मैंने नौवीं क्लास से बास्केटबॉल खेलना शुरू किया। पढ़ाई के साथ-साथ खेलते हुए मैंने अलग-अलग जिलों में जाकर टीम में अपनी भूमिका निभाई। हाइट अच्छी थी इसलिए जिले की कई टीम में मेरा सिलेक्शन हो जाता था। कॉलेज में दाखिले के समय मेरा चयन स्टेट लेवल के लिए हुआ था।”
वह आगे बताती हैं, “अपने जिले से अकेली मैं लड़की सिलेक्ट हुई थी। मुझे खेलने जाना था मगर कॉलेज की स्पोर्ट्स टीचर ने ले जाने से मना कर दिया। मैंने कोच से भी बात की, मगर वह राजी नहीं हुए। इस एक घटना ने मुझे बास्केटबॉल से पूरी तरह दूर कर दिया। उस वक्त मैंने सोचा कि अब मेरे साथ कोई नहीं है तो इस फील्ड को छोड़ना ही सही है। हालांकि मेरे परिवार की तरफ से खेल को छोड़ने का कोई दबाव नहीं था। मेरे बास्केटबॉल छोड़ने पर मुझसे ज्यादा उन्हें दुख हुआ था। मैं आज भी अपने निर्णय पर पछताती हूं। मुझे खेल से लगाव है इसलिए मैं लगातार इसी फील्ड में जाने की कोशिश कर रही हूं। लेकिन, अब भी मुझे इसके लिए गाइडेंस नहीं मिल पाता, जिस कारण मेरे जैसी कई लड़कियां खेल को छोड़ रही हैं।”
अपने जिले से अकेली मैं लड़की सिलेक्ट हुई थी। मुझे खेलने जाना था मगर कॉलेज की स्पोर्ट्स टीचर ने ले जाने से मना कर दिया। मैंने कोच से भी बात की, मगर वह राजी नहीं हुए। इस एक घटना ने मुझे बास्केटबॉल से पूरी तरह दूर कर दिया। उस वक्त मैंने सोचा कि अब मेरे साथ कोई नहीं है तो इस फील्ड को छोड़ना ही सही है।
महिलाओं खिलाड़ियों की ट्रोलिंग और हिंसा का सामना
महिला खिलाड़ियों को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बोझ का सामना करना पड़ता है। इनके साथ ही महिला खिलाड़ियों के कपड़े, धर्म, वर्ग और जाति के आधार पर ऑनलाइन और ऑफलाइन भेदभाव और ट्रोल किया जाता है। टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा को एक समय उनके खेल के यूनिफ़ॉर्म से लेकर उनके निजी जीवन में वेशभूषा को लेकर उन्हें ट्रोल किया जाता रहा। साल 2021 के टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला टीम के सेमीफाइनल में हारने के बाद खिलाड़ी वंदना कटारिया के परिवार को जातिसूचक गालियों का सामना करना पड़ा था। वहीं भारत में किसी भी खेल के लिए महिला खिलाड़ियों को पुरुषों की तरह महत्व नहीं दी जाती। उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैंडबॉल खिलाड़ी रूपाली और उनकी बहन प्रियंका सिंह ने 2020 हैंडबॉल छोड़ दिया। रूपाली कहती हैं, “जिस टीम के लिए हम दोनों खेलती थीं, वह घर से 100 किलोमीटर दूर था, जिसके साथ हमेशा प्रेक्टिस करना मुमकिन नहीं था। इसलिए, हमने हैंडबॉल खेलना छोड़ दिया। फिलहाल मैं इंश्योरेंस के काम से जुड़ी हुई हूं और मेरी बहन जनरल कंपटीशन की तैयारी करती है।”
महिलाओं के लिए खेल में भविष्य क्यों नहीं
लगातार 7 सालों तक टीम को ओपन स्टेट और नेशनल में रिप्रेजेंट करने के बाद उन्हें यह सुनने मिला कि खेल में कोई भविष्य नहीं है। रूपाली बताती हैं, “खेल के दौरान फैमिली की ओर से हमें सपोर्ट नहीं मिलता था। स्पॉन्सरशिप न होने के कारण हम घर से पैसे मांगते थे। धीरे-धीरे घरवालों की ओर से पैसे मिलने भी बंद होने लगे। इसके अलावा कई बार प्रैक्टिस के लिए हमें बाहर रहने की इजाजत भी नहीं मिलती थी। खेल के लिए बाहर जाने पर इसमें कोई स्कोप नहीं है सुनने को मिलता था।” वहीं प्रियंका बताती हैं, “हम छोटे शहर से हैं इसलिए भी हमें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा जबकि बाहर के शहरों में लड़कियों के खेल को लेकर इतनी रोक-टोक और समस्याएं नहीं हैं।”
जिस टीम के लिए हम दोनों खेलती थीं, वह घर से 100 किलोमीटर दूर था, जिसके साथ हमेशा प्रेक्टिस करना मुमकिन नहीं था। इसलिए, हमने हैंडबॉल खेलना छोड़ दिया। फिलहाल मैं इंश्योरेंस के काम से जुड़ी हुई हूं और मेरी बहन जनरल कंपटीशन की तैयारी करती है।
पढ़ाई के कारण खेल से दूरी
आधुनिक युग में भी महिला खिलाड़ियों को पुरुष खिलाड़ियों से कमतर आंका जाता है। पुरुषों की तुलना में महिला खिलाड़ियों को कम प्रशंसा और कम पुरस्कार राशि भी दी जाती है। हालांकि अब काफी सुधार आ गया है पर आज भी ये वैतनिक भेदभाव मौजदू है। बिहार के मोकामा की सृष्टि कुमारी स्कूल के समय हैंडबॉल और आर्चरी से जुड़ी हुई थी। वह बताती हैं, “दसवीं के बाद मैं इंजीनियरिंग की तैयारी करने दूसरे शहर चली गई, जहां सिर्फ पढ़ाई का ही माहौल रहा। स्कूल में हमेशा पुरुष खिलाड़ियों को ही महत्व दिया जाता था। हमारे स्कूल में टेबल टेनिस की सुविधा थी मगर लड़कियों को कभी उसे खेलने नहीं दिया गया। हमारे पीटी टीचर ने कभी हमें उस खेल रूम तक जाने नहीं दिया। नेशनल खेलने के बाद जब मैं लौटी तब मुझे स्कूल ने भी आगे नहीं बढ़ाया और ना ही मुझे कोई गाइडेंस मिली। स्कूल में कभी आर्चरी को लेकर सेटअप भी नहीं कराया गया, जिसके कारण भी मैं आगे नहीं बढ़ पाई।”
पीरियड्स के कारण छोड़ना पड़ता है खेल
जैविक रूप से महिलाओं और पुरुषों में अंतर है और हमेशा रहेगा। महिलाओं का खेल में बेहतर प्रदर्शन न कर पाने का एक कारण उनका पीरियड्स भी है। पिछले साल टाइम में छपी रिपोर्ट के मुताबिक युवा लड़कियां लड़कों के मुकाबले ज्यादा खेल छोड़ती है। 51 फीसद तक लड़कियां 17 साल की उम्र तक खेल से दूरी बना लेती है। वहीं कुछ महिला एथलीट पीरियड्स साइकिल को नियंत्रित करने या खत्म करने की भी कोशिश करती है। पीरियड्स के दौरान खेलने पर सृष्टि बताती हैं, “आर्चरी कैंप के लिए मुझे कई बार बाहर जाना पड़ता था। इस दौरान पीरियड्स के कारण काफी परेशानी होती थी। पीरियड्स में महिला खिलाड़ियों को छुट्टी तो बिल्कुल नहीं मिलती, मगर अपने साथ होने वाले परेशानियों को हम अपने कोच के साथ भी साझा नहीं कर पाते थे, क्योंकि अमूमन कोच पुरुष ही होते हैं। स्कूल में आठवीं-नौवीं तक आते-आते कई लड़कियों ने पीरियड्स के कारण खेलना बंद कर देती हैं।”
पीरियड्स में महिला खिलाड़ियों को छुट्टी तो बिल्कुल नहीं मिलती, मगर अपने साथ होने वाले परेशानियों को हम अपने कोच के साथ भी साझा नहीं कर पाते थे, क्योंकि अमूमन कोच पुरुष ही होते हैं। स्कूल में आठवीं-नौवीं तक आते-आते कई लड़कियों ने पीरियड्स के कारण खेलना बंद कर देती हैं।
महिला खिलाड़ियों को कमतर मेहनताना
प्रतिस्पर्धाओं में पुरुष और महिला खिलाड़ियों को समान पुरस्कार राशि और मैच फी भी नहीं दी जाती है। वूमेन प्रीमियर लीग 2024 की प्राइज मनी विनर के लिए 6 करोड़, रनर अप के लिए 3 करोड़, ऑरेंज कैप के लिए 5 लाख और पर्पल कैप के लिए 5 लाख रखी गई थी, जबकि इंडियन प्रीमियर लीग का प्राइज पूल 46.5 करोड रुपए थे, जिसमें जीतने वाले को 20 करोड़ रुपए मिले थे। रनर अप को 13 करोड़ रुपए, ऑरेंज कैप खिलाड़ी को 10 लाख रुपए और पर्पल कैप खिलाड़ी को भी 10 लाख रुपए मिले थे।
बिहार के नालंदा की क्रिकेटर अनम सहाय कहती हैं, “क्रिकेट में मेरी रुचि शुरुआत से नहीं थी। मैं मोहल्ले में भईया के साथ क्रिकेट खेलती थी। धीरे-धीरे ट्रायल्स में मेरा सिलेक्शन होता गया और आज मैं अच्छे मुकाम पर हूं। जब पहली बार मेरा ट्रायल में सिलेक्शन हुआ, तब मां ने थोड़ी आना-कानी की थी। मगर कोच और स्कूल प्रिंसिपल के मनाने पर राजी हो गई। मैं अपने खेल में इतनी मग्न थी कि मुझे मां ने पहले जैसे-तैसे करके दसवीं पास करवाई और फिर बारहवीं भी करवाया। इस पूरे संघर्ष में मेरी बड़ी बहन ने मेरा पूरा सपोर्ट किया। आज भी उसकी 60 फीसद सैलरी मेरे किट, ग्लव्स, बैट, शूज आदि पर खर्च होता है।”
खेल में इतनी मग्न थी कि मुझे मां ने पहले जैसे-तैसे करके दसवीं पास करवाई और फिर बारहवीं भी करवाया। इस पूरे संघर्ष में मेरी बड़ी बहन ने मेरा पूरा सपोर्ट किया। आज भी उसकी 60 फीसद सैलरी मेरे किट, ग्लव्स, बैट, शूज आदि पर खर्च होता है।
भारत सरकार की ओर से खेल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए खेलो इंडिया योजना के तहत ‘महिलाओं के लिए खेल’ शुरू किया गया है। इस योजना के लिए पहली बार साल 2020-21 में 2.34 करोड़ रुपए, 2021-22 में 5 करोड़ रुपए, 2022-23 में 2.2 करोड़ रुपए फंड जारी किया गया। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है जब सरकार ने खेल में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए हैं। इसके पहले 1975 में भी भारत सरकार ने इस तरह के कदम उठाए थे। तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय खेल महोत्सव की शुरुआत की थी, जिसमें जिला और ब्लॉक पर प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थी। मौजूदा समय में महिलाओं के खेल को लेकर सोच जरूर बदल रही है, मगर इसे हर क्षेत्र में लागू करने की जरूरत है।
किसी एक लोकप्रिय खेल से खिलाड़ियों को जोड़ने की कोशिश बंद करनी चाहिए। सभी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में महिला खिलाड़ियों की भागीदारी के लिए योजना और अभियान की जरूरत है। सरकारी और निजी संस्थानों में भी खेल को लेकर जागरूकता की आवश्यकता है। इनमें सबसे जरूरी पारिवारिक स्तर पर भी महिलाओं को बिना किसी झिझक और सामाजिक बोझ के खेलों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना महत्वपूर्ण है। पूर्वाग्रहों को मिटाने के लिए जागरूकता अभियान, रोल मॉडल ढूंढ़ने और महिलाओं के खेलों से जुड़े कई मिथकों को तोड़ना होगा।