समाजकार्यस्थल पेशेवर महिलाओं की जिंदगी के तरक्की में बाधा है कैजुअल सेक्सिज़म और एजिज़्म

पेशेवर महिलाओं की जिंदगी के तरक्की में बाधा है कैजुअल सेक्सिज़म और एजिज़्म

कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाली कैजुअल सेक्सिज़म और एजइज़्म की घटनाएं उनके आत्मविश्वास को कमज़ोर करती हैं, वातावरण को खराब करती हैं, मानसिक स्वास्थ्य और काम पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं। इस तरह ये पेशेवर तरक्की में बाधा बन सकती हैं।

पितृसत्ता कई तरीक़ों से महिलाओं की ज़िंदगी में मुश्किलें पैदा करती है। घर-परिवार के साथ-साथ कार्यस्थल पर भी उन्हें कई तरह के भेदभावों का सामना करना पड़ता है। इन्हीं में से भेदभाव के दो आम तरीक़े कैजुअल सेक्सिज़्म और एजइज़्म हैं। ‘कैजुअल’ शब्द सुनने में जितना मामूली-सा लगता है, असल में उतना होता नहीं है। इसके तहत सहकर्मियों द्वारा महिलाओं पर रूढ़िवादी धारणाओं पर आधारित भेदभावपूर्ण टिप्पणियां करना, उनके साथ सेक्सिस्ट और स्त्रीद्वेषी मज़ाक करना शामिल होता है। ये टिप्पणियां सीधे-सीधे की जाने के बजाए अक्सर घुमा-फिराकर और कभी-कभी इस अंदाज़ में की जाती हैं मानो संबंधित महिला की तारीफ़ की जा रही हो। यही वजह है कि इनके लिए ‘कैजुअल सेक्सिज़्म’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।

इसी तरह एजिज़्म में महिलाओं की उम्र को आधार बनाकर उनके बारे में बेबुनियाद धारणाएं बनाना और उन पर टिप्पणी करना शामिल होता है। इसके तहत हर उम्र की महिलाओं को निशाना बनाया जाता है। ये दोनों स्त्रीद्वेषी व्यवहार के तहत आते हैं और ये ऑफिस के दैनिक जीवन में इतने गहरे पैठे होते हैं और सामान्य दिखाया जाता है कि इन्हें लेकर कोई कार्रवाई तो दूर की बात है, इन्हें नजरअंदाज ही कर दिया जाता है। खुद महिलाएं भी कई बार यह नहीं समझ पातीं कि इनका सामना कैसे किया जाए।

हालांकि मेरे पति भी अपने घर से दूर की लोकेशन पर मेरे साथ ही काम कर रहे थे, पर सहकर्मियों द्वारा ससुराल की लोकेशन पर ट्रांसफर करा लेने की सलाह मुझे ही दी जाती थी।” वह बताती हैं ब्रेक के दौरान एक पुरुष सहकर्मी ने उनसे कहा, “आप अपने पति की लोकेशन पर ही ट्रांसफर क्यों नहीं करवा लेती हैं?

कैजुअल सेक्सिज़म मज़ाक नहीं होता

कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ कैजुअल सेक्सिज़्म और एजिज़्म के अनुभव को समझने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ महिलाओं से बात की। बैंगलोर में रह रही 40 वर्षीय सोनल (बदला हुआ नाम) एक गैर सरकारी संस्था में काम करते हुए अनुभव साझा करती हैं, “मैं और मेरे पति एक संस्था में एक ही लोकेशन पर काम कर रहे थे। संस्था अलग-अलग राज्यों के साथ-साथ, अलग-अलग जिलों में भी काम करती है। यह मेरे ससुराल और मायके के जगह पर काम करती है। हालांकि मेरे पति भी अपने घर से दूर की लोकेशन पर मेरे साथ ही काम कर रहे थे, पर सहकर्मियों द्वारा ससुराल की लोकेशन पर ट्रांसफर करा लेने की सलाह मुझे ही दी जाती थी।” वह बताती हैं ब्रेक के दौरान एक पुरुष सहकर्मी ने उनसे कहा, “आप अपने पति की लोकेशन पर ही ट्रांसफर क्यों नहीं करवा लेती हैं? ससुराल की जिम्मेदारियों का एहसास है कि नहीं?” इस पर उन्होंने तुरन्त जवाब दिया, “यही बात आपने मेरे पति से क्यों नहीं कही कि वो मेरी लोकेशन पर ट्रांसफर क्यों नहीं करवा लेते?”

तस्वीर सभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इस पर उन्होंने कहा, “मैं तो मज़ाक कर रहा था आप तो बुरा ही मान गईं।” सोनल ने बताया कि जब कोई कोई सहकर्मी उनसे इस तरह की बात करता था, वे उसे उसी समय जवाब दे देती थीं। इसी तरह 26 वर्षीय निहारिका नासिक की एक मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी में काम का अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “मेरे कुछ सहकर्मी ऐसा मानते थे कि लड़कियों को शॉप फ्लोर के बजाय क्वालिटी लैब में बैठना चाहिए। क्वालिटी लैब ऐसी जगह होती है, जहां अलग-अलग उपकरण एसी में रखे जाते हैं और सैम्पल्स क्वालिटी चेक के लिए लाए जाते हैं। वहीं शॉप फ्लोर में उत्पादन होता है और काफ़ी शोर-शराबा भी होता है।” वह बताती हैं कि उन्हें कहां काम करना है और कहां नहीं यह तय करने का अधिकार किसी और को नहीं है। सहकर्मियों की धारणा के विपरीत उन्होंने शॉप फ्लोर और क्वालिटी लैब, दोनों ही जगह काम किया और उन्हें दोनों जगह काम करना अच्छा लगा।

मेरे कुछ सहकर्मी ऐसा मानते थे कि लड़कियों को शॉप फ्लोर के बजाय क्वालिटी लैब में बैठना चाहिए। क्वालिटी लैब ऐसी जगह होती है, जहां अलग-अलग उपकरण एसी में रखे जाते हैं और सैम्पल्स क्वालिटी चेक के लिए लाए जाते हैं। वहीं शॉप फ्लोर में उत्पादन होता है और काफ़ी शोर-शराबा भी होता है।

चिकित्सकीय दुनिया सेक्सिज़म से परे नहीं है

हालांकि चिकित्सकीय दुनिया के बारे में आम तौर पर लोगों की धारणा है कि ये काफी प्रगतिशील है, लेकिन पुणे की रहनेवाली स्त्री रोग विशेषज्ञ ऐश्वर्या बताती हैं, “ऑपरेशन थियेटर में सीनियर डॉक्टर्स द्वारा जूनियर डॉक्टर्स से माथे पर आया पसीना पोंछवाने से लेकर महिला डॉक्टर्स को साथ काम कर रहे डॉक्टर्स द्वारा उनकी मर्ज़ी के बिना छूने तक हर तरह के मामले होते हैं। चूंकि ऑपरेशन थियेटर में सर्जन सीनियर होते हैं तो फीमेल डॉक्टर्स विरोध भी नहीं कर पातीं।”

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

आगे उन्होंने एजइज़्म के बारे में बात करते हुए बताया कि अगर कोई महिला कम उम्र की डॉक्टर है और सज-धजकर रहती है, तो उसके बारे में यह धारणा बना ली जाती है कि वह काम को लेकर संजीदा नहीं है और ज़्यादा जानकारी नहीं है। वहीं ज़्यादा उम्र की महिला डॉक्टर्स के लिए ‘मेनोपॉजल औरत’ जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं, जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई शब्द नहीं है। यही नहीं जब कहीं हेड ऑफ डिपार्टमेंट बनाने की बात आती है, तो भी आमतौर पर पुरुष डॉक्टर्स को ही ज़्यादा तवज्जो दी जाती है।

उनकी यह आदत थी कि वह अपने सहकर्मी लड़कियों को कोई काम बताने के लिए उनके नज़दीक आते और अपने व्यक्तिगत जीवन की कहानी शुरू कर देते। लड़कियों को समझ नहीं आता था कि वे इस परिस्थिति का सामना कैसे करें। एक बार उन्होंने मेरी एक टीम मेम्बर के क्यूबिकल में जाकर उनसे बातें करनी शुरू की। मैंने अपने क्यूबिकल से यह देखा और उस लड़की को आवाज़ देकर अपने क्यूबिकल में बुला लिया।

पेशेवर तरक्की में बाधा बनती है कैजुअल सेक्सिज़म

वीमेन ऑफ इन्फ्लुएंस प्लस वर्कप्लेस लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध एक वैश्विक संगठन है। इसने जनवरी और फरवरी 2024 के बीच कार्यस्थल पर एजइज़्म और महिलाओं पर इसके प्रभाव को समझने के लिए 46 देशों की 1250 से अधिक महिलाओं पर एक सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण के नतीजों में पाया गया कि दुनिया भर में कार्यस्थल पर एजइज़्म बहुत ज़्यादा मौजूद है। प्रतिभागियों में 77.8 प्रतिशत महिलाओं ने अपने पेशेवर जीवन में इसका सामना किया। सर्वेक्षण में 46.2 प्रतिशत महिलाओं ने इसे हमेशा रहनेवाली समस्या बताया। कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाली कैजुअल सेक्सिज़म और एजइज़्म की घटनाएं उनके आत्मविश्वास को कमज़ोर करती हैं, वातावरण को खराब करती हैं, मानसिक स्वास्थ्य और काम पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं। इस तरह ये पेशेवर तरक्की में बाधा बन सकती हैं।

ऑपरेशन थियेटर में सीनियर डॉक्टर्स द्वारा जूनियर डॉक्टर्स से माथे पर आया पसीना पोंछवाने से लेकर महिला डॉक्टर्स को साथ काम कर रहे डॉक्टर्स द्वारा उनकी मर्ज़ी के बिना छूने तक हर तरह के मामले होते हैं। चूंकि ऑपरेशन थियेटर में सर्जन सीनियर होते हैं तो फीमेल डॉक्टर्स विरोध भी नहीं कर पातीं।

कैजुअल सेक्सिज़म को गंभीरता से लेने की जरूरत है

महिलाओं में अवसाद, असुरक्षा का एकहसास और डर की भावनाएं आ सकती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ महिलाएं आत्मग्लानि की शिकार हो जाती हैं और अपने साथ होनेवाले व्यवहार के लिए ख़ुद को ही दोषी मानने लगती हैं। कई बार नौकरी बचाने या वाकई में इस बात कि गंभीरता न समझ पाने के कारण भी महिलाएं उस स्थिति को स्वीकार कर लेती हैं और यह मान लेती हैं कि उसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता। ये सच है कि इस क़िस्म की घटनाएं एक दिन में नहीं रोकी जा सकती हैं। इनके लिए निरन्तर प्रयास की ज़रूरत होती है।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

सबसे पहले इस क़िस्म की घटनाओं की गम्भीरता को स्वीकार किया जाना ज़रूरी है, तभी इन्हें रोकने की दिशा में कुछ प्रयास किए जा सकते हैं। इनसे निपटने के लिए चेतना के स्तर पर काम करने की ज़रूरत होती है और इसपर बातचीत, दफ्तरों में पोश एक्ट के सुचारु तरीके से लागू करने की जरूरत है। साथ ही इसपर बातचीत की जरूरत है। इन विषयों पर बातचीत के लिए इस विषय में जानकारी रखने वाले पेशेवर लोगों और संस्थाओं की मदद ली जा सकती है। एक ऐसा माहौल बना सकते हैं, जहां इन्हें छिपाया न जाता हो बल्कि इनके बारे में खुलकर बात होती हो।

अगर कोई महिला कम उम्र की डॉक्टर है और सज-धजकर रहती है, तो उसके बारे में यह धारणा बना ली जाती है कि वह काम को लेकर संजीदा नहीं है और ज़्यादा जानकारी नहीं है। वहीं ज़्यादा उम्र की महिला डॉक्टर्स के लिए ‘मेनोपॉजल औरत’ जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं, जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई शब्द नहीं है।

कैसे हल हो इन मुद्दों का

ऑफिस में सुरक्षित माहौल कैसे बनाया जा सकता है, इस बारे में बैंगलोर की कॉर्पोरेट कंपनी में करिक्यूलम डायरेक्टर के पद पर काम चुकी स्नेहा सुब्रह्मण्यम बताती हैं, “जब मैंने ज्वाइन किया था तो मेरे साथ कैजुअल सेक्सिज़म की घटनाएं हुईं और ऑफिस में ऐसा कोई नहीं था, जिससे मैं इस बारे में बात कर सकूँ। मेरे मैनेजर मैनेजर बनने के बाद हम सबने मिलकर ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की कि हम केवल काम के बारे में नहीं, बल्कि इस क़िस्म के मुद्दों पर भी एक-दूसरे से खुलकर बात कर सकें। उस दौरान ऑफिस की एक दूसरी टीम में मेरे ही बराबर के पद पर एक पुरुष मैनेजर था। मेरी और उनकी टीम की और लड़कियों को उनके साथ भी काम करना पड़ता था। उनकी यह आदत थी कि वह अपने सहकर्मी लड़कियों को कोई काम बताने के लिए उनके नज़दीक आते और अपने व्यक्तिगत जीवन की कहानी शुरू कर देते। लड़कियों को समझ नहीं आता था कि वे इस परिस्थिति का सामना कैसे करें। एक बार उन्होंने मेरी एक टीम मेम्बर के क्यूबिकल में जाकर उनसे बातें करनी शुरू की। मैंने अपने क्यूबिकल से यह देखा और उस लड़की को आवाज़ देकर अपने क्यूबिकल में बुला लिया।”

तस्वीर सभार:फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

इस तरह उनके ऑफिस में ऐसा माहौल बन पाया कि महिलाएं उनके इस व्यवहार के बारे में खुलकर एक-दूसरे से बात कर सकीं। बाद में उस व्यक्ति के खिलाफ़ पॉश का केस भी दायर हुआ। समाज के तौर पर भी हमें एक साथ आना होगा, जो महिलाएं इनका सामना कर रही हों, उनकी बात को खारिज करने की बजाए समस्या को स्वीकार करना होगा और इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने में उनकी मदद करनी होगी। इसके अलावा इन्हें महिलाओं की समस्याएं मानकर हाथ पर हाथ रखकर बैठने की बजाए पुरुषों को भी आगे आना होगा और ऐसे सहकर्मियों के खिलाफ़ आवाज़ उठानी होगी। संस्थागत स्तर पर भी ऐसे सख्त नियम होने चाहिए, जिनके तहत इस क़िस्म के बर्तावों के लिए ‘ज़ीरो टॉलरेन्स’ की नीति केवल कागज़ों पर ही मौजूद होकर न रह जाए, बल्कि हक़ीक़त में उस पर अमल भी हो रहा हो।

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