सरोगेसी को आम भाषा में ‘किराए की कोख’ कहा जाता है। इसमें कोई महिला किसी अन्य व्यक्ति या दम्पत्ति के लिए बच्चे को जन्म देती है। इसके दो प्रकार हैं पहला परोपकारी सरोगेसी, जिसमें सरोगेट को केवल ज़रूरी मेडिकल ख़र्च ही दिए जाते हैं और सरोगेट माता-पिता बनने के इच्छुक दम्पत्ति या व्यक्ति की दोस्त या सम्बन्धी होती है। दूसरा व्यावसायिक सरोगेसी है, जिसमें सरोगेट को मेडिकल ख़र्च के साथ-साथ उसकी सेवाओं के लिए भी भुगतान किया जाता है। व्यावसायिक सरोगेसी को कुछ लोग गर्भधारण करने में असमर्थ लोगों के लिए एक अच्छा विकल्प मानते हैं, वहीं अन्य इसे शोषणकारी मानते हैं, ख़ासकर हाशिए के तबक़ों की महिलाओं के लिए। वैसे तो भारत में सरोगेसी का चलन 1978 से रहा है, जिसे कानूनी मान्यता 2002 में मिली, लेकिन इसे लेकर कुछ ख़ास नियम-क़ानून नहीं बनाए गए। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत में कम लागत में सरोगेसी की सुविधा देनेवाले क्लीनिकों के पनपने और अपने आर्थिक हालात बेहतर करने की चाह में हाशिए की महिलाओं द्वारा सरोगेट मदर बनने में काफ़ी तेज़ी आई।
भारत क्यों बना सरोगेसी का केंद्र
विकसित देशों की बात करें, तो वहा न सिर्फ़ सरोगेट मदर की तलाश काफी मुसीबतों से भरी होती है, बल्कि वहाँ सरोगेसी का ख़र्च भी बहुत ज़्यादा होता है। उदाहरण के लिए अमरीका में सरोगेसी का खर्च 110,000 से 170,000 यूएस डॉलर के बीच होता है, यानी 9 लाख से लेकर 14 लाख के बीच। वहीं रूस में यह लागत 30,000 से 50,000 यूएस डॉलर के बीच होती है, यानी 24 लाख से 41 लाख के बीच। यही नहीं कई देशों में सरोगेट माँ के अधिकारों को लेकर नियम-क़ानून भी काफ़ी सख़्त हैं और स्पेन, फ़्रांस, जर्मनी, इटली जैसे देशों में तो हर क़िस्म की सरोगेसी अवैध है। ब्रिटिश कानून सरोगेट माँ को यह तक अनुमति देता है कि वह किसी भी समय अपना मन बदल सकती है और अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को ख़ुद रखने का निर्णय ले सकती हैं।
ऐसे में इन देशों के निसंतान दम्पत्ति सरोगेट की तलाश में विकासशील देशों की ओर रुख़ करते हैं। सरोगेसी की सस्ती सेवाएं प्रदान करनेवाले देशों में कोलंबिया, यूक्रेन, ईरान, आदि शामिल हैं। व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाए जाने से पहले भारत भी इन्हीं में से एक था। भारत में व्यावसायिक सरोगेसी 2015 तक वैध थी। 2015 में इसके जोखिमों को लेकर कई लोगों ने आवाज़ उठानी शुरू की और तब जाकर भारत सरकार ने इसके जोखिमों पर विचार करना शुरू किया।
सरोगेट मदर्स की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि
सेंटर फॉर सोशल रिसर्च ने गुजरात के जामनगर, सूरत और आनंद में सरोगेट बन चुकी और सरोगेट बनने जा रही महिलाओं पर सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में उनकी आयु, धर्म, शैक्षिक और रोज़गार की स्थिति के बारे में सवाल भी शामिल थे। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि अधिकतर सरोगेट्स 26 से 35 के बीच की उम्र की थीं, ज़्यादातर हिन्दू धर्म को मानने वाली और विवाहित थीं और इनमें से अधिकतर सरोगेट बनने से पहले ऐसे काम कर रही थीं जिससे उन्हें ज़्यादा आय नहीं हासिल होती थी, जैसे- लोगों के घरों में काम करना, मज़दूरी करना आदि। अधिकतर महिलाएं चाल या किराए के मकान में रहती थीं। 88 प्रतिशत सरोगेट्स की पारिवारिक संरचना एकल थी और उन सभी के ख़ुद के बच्चे थे, उनके परिवार के बाकी सदस्य या तो ग्रामीण इलाक़ों में रह रहे थे या फिर किसी अन्य राज्य में। एकल पारिवारिक संरचना होने की वजह से उनके लिए अपने पति की सहमति से सरोगेट बनना आसान था। इसके अलावा यह भी पता चला कि 50 से 60 प्रतिशत सरोगेट मदर्स और उनके पति या तो अनपढ़ थे या उनके पास केवल प्राथमिक स्तर की शिक्षा ही थी, जिससे वे सरोगेसी के अनुबंध से जुड़ी शर्तों को और सरोगेट माँ पर सरोगेसी के प्रभावों को पूरी तरह समझ सकने में असमर्थ थे।
इसी सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि ग़रीब महिलाओं द्वारा सरोगेसी चुनने के पीछे की प्रमुख वजहें ग़रीबी दूर करना, नया घर बनाना, बच्चे की शिक्षा और बेरोज़गारी थीं। सरोगेट बनने के लिए महिलाओं की महिला मित्र, जो पहले सरोगेट रह चुकी होती थीं, उन्हें इसके बारे में बताती थीं और उसके बाद सरोगेसी क्लिनिक या एजेंसियां ऐसी महिलाओं से सम्पर्क करते थे। उन्हें अस्पताल में दस-बीस बार आईवीएफ की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता था और इतनी बार अस्पताल आने-जाने का ख़र्च भी नहीं मिलता था, आईवीएफ की प्रक्रिया दर्दनाक होती थी सो अलग। वे अपने पति के साथ बस से अस्पताल जाती थीं, जिससे उनके पति की एक दिन की दिहाड़ी मजदूरी का भी घाटा होता था।
अधिकतर मामलों में सरोगेसी का फैसला महिलाओं का ख़ुद का न होकर परिवार के सदस्यों या दोस्तों से प्रभावित होता था। सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि विवाहित महिलाओं के मामले में उनके पति ही उन्हें सरोगेट बनने के लिए बाध्य करते थे ताकि वे नया घर खरीद सकें या कोई नया व्यवसाय शुरू कर सकें। सरोगेसी के अनुबंध पर हस्ताक्षर क्लीनिकों द्वारा गर्भावस्था की तीसरी तिमाही में या चौथे महीने के बीच में करवाए जाते थे। क्योंकि सरोगेट पढ़ नहीं सकती थीं तो डॉक्टर या क्लिनिक वाले ही उन्हें अनुबंध पढ़कर सुनाते थे। अब जबकि सरोगेट चार माह की गर्भवती है उसके पास अनुबंध पर हस्ताक्षर के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता था। क्लिनिक वाले खुद को सेफ जॉन में रखते हुए सरोगेट माँ को अनुबंध की कोई कॉपी भी नहीं देते थे।
सरोगेसी की अवधि के दौरान महिलाएँ अपने घर से अलग एक शेल्टर हाउस में रहती थीं और सरोगेसी को निम्न दर्जे का काम मानने के समाज के नजरिए की वजह से वे समाज से छुपकर ही सरोगेसी करती थीं, केवल उनके नजदीकी लोगों को ही यह जानकारी होती थी कि वे क्या काम कर रही हैं। रिसर्च टीम ने यह भी पाया कि सरोगेट बनने की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक पूरा कर लेने के बाद भी सरोगेट मदर्स की जीवन शैली में खास बदलाव नहीं आया था, यानी उनकी ग़रीबी नहीं दूर हुई थी। उन्हें सरोगेसी से जो थोड़े बहुत पैसे मिले भी, अधिकतर मामलों में उन पैसों को उनके पति ने या तो शराब में या ऐसे फिर किसी ऐसे नए व्यवसाय को शुरू करने में लगा दिए, जो चला ही नहीं। कुल मिलाकर उनकी आर्थिक स्थिति जस की तस ही रही।
सरोगेट मदर्स के लिए सरोगेसी की भारी क़ीमत
जैसा कि ऊपर के सर्वेक्षण से भी यह बात सामने आई कि सरोगेसी भारत में ऐसी महिलाओं के शोषण का हथियार बन गई जो अनपढ़ या बहुत कम पढ़ी-लिखी थीं, ग़रीब तबक़े की थीं और सरोगेसी से जुड़े नियम क़ायदों की जिन्हें ठीक से जानकारी नहीं थी। ऐसे में अलग-अलग तरह की कई दिक्कतें सामने आईं। जहाँ अमरीका जैसे विकसित देश में सरोगेट के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उनमें अधिकतम दो भ्रूण ही प्रत्यारोपित किया जाते हैं, भारत में गर्भावस्था की बेहतर सम्भावना के लिए अधिकतम पाँच भ्रूण प्रत्यारोपित किए जाने के मामले नज़र आए। इससे बच्चे और सरोगेट दोनों में स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम बढ़ जाते हैं क्योंकि एक साथ कई भ्रूण प्रत्यारोपित करने से एक साथ कई भ्रूणों के विकसित होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके अलावा और भी बहुत सी दिक्कतें आईं, जैसे कि सरोगेट माँ का अबॉर्शन हो जाने पर उनको कम भुगतान किया जाना या कोई भुगतान न किया जाना, बच्चे के विकास में कोई समस्या आ जाने पर विदेशी दम्पत्तियों द्वारा बच्चा लेने से इंकार कर देना आदि। इन सभी हालातों का खामियाजा सरोगेट माँ को ही भुगतना पड़ा।
सरोगेट माँओं को भावनात्मक समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है, जैसे गर्भ में पल रहे बच्चे से लगाव हो जाना। इसके अलावा शोध यह भी दर्शाते हैं कि सरोगेट माँओं में गर्भधारण के बाद अवसाद होने की सम्भावना सामान्य गर्भधारण की तुलना में अधिक होती है। यह भी ध्यान देने की बात है कि सरोगेसी के अधिकांश मामलों में ऐसी औरतों को सरोगेट के तौर पर इस्तेमाल किया गया, जो प्राकृतिक रूप से गर्भवती होने में सक्षम थीं। ऐसे में सहायक प्रजनन तकनीकों के इस्तेमाल के उनके शरीर पर दुष्प्रभाव ही अधिक पड़े। हक़ीक़त में भारत में सरोगेसी के क्लीनिकों ने महिलाओं को सरोगेसी के पेशे में धकेलने के लिए ‘मातृत्व’ के महिमामंडन की रणनीति का इस्तेमाल किया। इसके अलावा अनपढ़ होने की वजह से महिलाएँ पैसा देनेवाले पक्ष से अपनी सेवाओं के बदले वाजिब दाम भी नहीं माँग सकीं। नतीजन उन्हें अपनी पूरी सेवा के महज़ 3-4 लाख रुपए ही मिले।
इन्हीं सब समस्याओं को देखते हुए भारत सरकार ने सरोगेसी के दुरुपयोग को रोकने के लिए 2021 में सरोगेसी के कानूनों में बदलाव करते हुए व्यावसायिक सरोगेसी को गैरकानूनी घोषित कर दिया और केवल परोपकार के तौर पर की जानेवाली सरोगेसी को ही मान्यता दी। यही नहीं बार-बार सरोगेट मदर बनने के जोखिम को देखते हुए यह प्रावधान भी कर दिया गया कि कोई सरोगेट माँ अपने जीवन में केवल एक बार ही सरोगेट बन सकती है। इसके अलावा यह भी ग़ौरतलब है कि संशोधित कानून अपने आप में भेदभाव को बढ़ानेवाला भी है क्योंकि तलाकशुदा, विधवा या विवाहित महिलाएँ ही इसको चुन सकती हैं, अविवाहित महिलाओं को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया है।
अगर हम सरोगेसी की पैरवी करनेवाले लोगों के इस तर्क पर विचार करें कि यह ग़रीब महिलाओं को अपने हालात बेहतर करने का मौक़ा देता है तो हम पाएँगे कि यह तर्क कमज़ोर है। गर्भधारण वैसे भी मुश्किल प्रक्रिया होती है और इस दौरान कोई महिला कई कठिनाइयों से गुज़रती है। यही नहीं भारत में वैसे भी ग़रीब महिलाओं में मातृ मृत्यु दर व हाई रिस्क प्रेग्नेन्सी बहुत ज़्यादा है। ऐसे में यहाँ की ग़रीब महिलाओं द्वारा इसे आय सृजन के विकल्प के तौर पर अपनाया जाना एक जोखिम भरे विकल्प के अलावा और कुछ नहीं था।
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