समाजराजनीति सरकार के प्रतिनिधियों की ज़िम्मेदारी नहीं है औरतों के माँ बनने की ‘सही’ उम्र तय करना

सरकार के प्रतिनिधियों की ज़िम्मेदारी नहीं है औरतों के माँ बनने की ‘सही’ उम्र तय करना

एक समारोह में बोलते हुए असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा ने कहा कि महिलाओं को तीस साल की उम्र से पहले माँ बन जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि महिलाओं को उचित उम्र में ही माँ बनना चाहिए क्योंकि इससे चिकित्सकीय जटिलताएं पैदा होती हैं।

हमारे सामाजिक परिवेश में एक महिला के जीवन का अस्तित्व केवल उसके मातृत्व रूप से जोड़ा जाता है। महिला के माँ बनने को न केवल सबसे ऊपर रखा जाता है बल्कि ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज में माँ बनने को लेकर कई तय कायदे-कानून भी बनाए गए हैं। मसलन, बच्चे को भले ही महिला ने जन्म दिया हो लेकिन उसे नाम पुरुष का मिलता है, बिना शादी के माँ बनना गलत माना जाता है, सेरोगेसी से माँ बनना पश्चिमी संस्कृति है और माँ बनने की भी एक उम्र होती है वरना बच्चा पैदा करने में परेशानियों को सामना करना पड़ता है। कितने बच्चे पैदा होंगे, कब होंगे, उनका जेंडर क्या होगा। ये सारी बातें हमारे सामाजिक परिवेश में स्थापित हैं। इतना ही नहीं सत्ता जिसका काम बिना किसी भेदभाव के कल्याणकारी नीतियां बनाना है खत्म करना है उसका व्यवहार भी महिलाओं के प्रजनन अधिकारों के मामले में पितृसत्तात्मक समाज से बहुत अलग और बेहतर नहीं है।

हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा ने महिलाओं के बच्चा पैदा करने की ‘सही’ उम्र को लेकर एक बयान दिया है। ऐसा पहली बार नहीं है कि हिमंता बिस्वा या किसी राजनीतिक शख्सियत ने महिलाओं के प्रजनन अधिकार को लेकर अपनी रूढ़िवादी मानसिकता ज़ाहिर की है। ऐसा कई बार हो चुका है कि सरकार या उसके प्रतिनिधित्व महिलाओं की शारीरिक स्वायत्ता के विरोध में कुछ न कुछ कह देते हैं।

द वायर में प्रकाशित ख़बर के अनुसार एक समारोह में बोलते हुए हिमंता बिस्वा ने कहा कि महिलाओं को तीस साल की उम्र से पहले माँ बन जाना चाहिए। साथ ही कहा कि महिलाओं को उचित उम्र में ही माँ बनना चाहिए क्योंकि इससे चिकित्सकीय जटिलताएं पैदा होती हैं। एक तरफ तो सरकारी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री बिस्वा कम उम्र में शादी और मातृत्व को रोकने के लिए अपनी सरकार की प्रतिबद्धता दिखा रहे थे दूसरी ओर उन्होंने यह भी कहा, “महिलाओं को माँ बनने के लिए लंबा इंतजार नहीं करना चाहिए क्योंकि उससे परेशानियां पैदा होती हैं। मातृत्व के लिए उपयुक्त आयु 22 साल से 30 साल है।” 

साथ ही उन्होंने कहा, “हम समय से पहले माँ बनने के ख़िलाफ़ बोलते रहे हैं। लेकिन महिलाओं को ज्यादा इंतजार भी नहीं करना चाहिए जैसा कि बहुत से लोग करते हैं। भगवान ने हमारे शरीर को इस तरह से बनाया है कि हर चीज के लिए एक उपयुक्त उम्र होती है।” ऐसा बयान साफ दिखाता है कि लोकतंत्रिक भारत में यौन-प्रजनन अधिकारों को पहचान मिलनी कितनी ज़रूरी और कितनी बाकी है।

यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों का उल्लघंन सरकारें सबसे आसानी से करती दिखती हैं। इसकी एक वजह तो रूढ़िवाद और पूर्वाग्रह है, दूसरा सरकारें इन अधिकारों को गंभीरता से लेती नहीं दिखती है। जबरन नसबंदी से लेकर गर्भनिरोधक रोक, प्रजनन संबंधी दबाव, कंडोम के इस्तेमाल से मनाही और प्रजनन विकल्पों को सीमित करना इसमें शामिल है। सभी तरह की प्रजनन संबधी अधिकारों के उल्लंघन को खत्म किए बिना लैंगिक समानता पाना नामुमकिन है।

प्रजनन से जुड़ी नीतियां और पितृसत्तात्मक रवैया

बात जब-जब यौन एवं प्रजनन अधिकार की आती है तो सरकार का रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक रवैया नज़र आता है। सरकारी नीतियां हर तरह से लोगों के शरीर पर नियंत्रण करने की कोशिश दिखती हैं। बीते महीने कर्नाटक में भी ऐसी ख़बर सामने आई थी जिसमें कर्नाटक ड्रग्स कंट्रोल डिपार्टमेंट ने राज्य में नाबालिगों को कॉन्डम और ओरल कॉन्ट्रसेप्टिव्स बेचने से पहले परामर्श करने को कहा था। न्यूज मिनट में प्रकाशित ख़बर के अनुसार शुरू में यहां नाबालिगों के लिए कॉन्डम या कॉन्ट्रासेप्टिव पर रोक लगाने की बात सामने आई थी लेकिन बाद में मामले की आलोचना को देखते हुए इसमें परामर्श की बात कही गई है।

बैन या परामर्श की सोच का सीधा असर यौन एंव प्रजनन अधिकारों और सेफ सेक्स पर पड़ता है। कॉन्डम या कॉन्ट्रसेप्टिव्स से नाबालिगों की पहुंच दूर करने से कम उम्र में माँ बनना, एसटीआई, एचआईवी जैसे खतरों की संभावना बढ़ जाती है। कायदे में सरकारों का काम बैन या मॉनिटरिंग से अलग यौन प्रजनन स्वास्थ्य और सेफ सेक्स के बारे में जानकारी देना, नीतियां बनाना और जागरूकता फैलाना है। 

बीते साल में कई ऐसे फैसले और बयान सामने आ चुके हैं जिनमें यौन प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकार को ताक पर रखा गया है। द हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार कर्नाटक के सरकार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. के. सुधाकर एक कार्यक्रम में  सार्वजनिक मंच से कह चुके हैं कि आधुनिक महिलाएं शादी के बाद माँ बनना ही नहीं चाहती हैं। इनकी इस बात से यही तर्क निकलता है कि महिलाओं का मां बनना बहुत ज़रूरी है, वे क्या चाहती हैं यह मायने नहीं रखता है।

ठीक इसी तरह जब-जब देश की बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रण करने के लिए नीतियों का ऐलान होता है उनमें महिलाओं के प्रजनन अधिकारों को सबसे पहले नज़रअंदाज किया जाता है। इसी में असम और उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण नीतियों का महिलाओं और उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा इस पहलू को चर्चा तक में शामिल नहीं किया गया। जनसंख्या नियंत्रण के मामले में सरकारें प्रजनन स्वतंत्रता को सबसे पहले खत्म करने का काम करती हैं। महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकारों पर हमारे जनप्रतिनिधित्व का रवैया इसी सोच पर आधारित है जिसके मुताबिक महिलाओं के पास शारीरिक स्वायत्ता होनी ही नहीं चाहिए।

इस बयान पर क्या है महिलाओं की प्रतिक्रिया

महिलाओं के बच्चे पैदा करने की उम्र वाले बयान पर उत्तर प्रदेश की रहनेवाली और पेशे से गृहिणी दीक्षा का कहना है, “मेरी शादी को दो साल होने वाले हैं। अगर बच्चे की बात करें तो परिवार के हर बड़े और आसपास के लोगों ने दबी आवाज़ में बच्चे के बारे में पूछना शुरू कर दिया था। हमारा सामाजिक ढ़ांचा पूरी तरह से महिलाएं की इच्छा का विरोधी है। वे क्या चाहती हैं, उनकी पसंद-नापसंद क्या है ये बहुत मायने नहीं रखता है। शादी और बच्चे के मामले में भी यही होता है। लेकिन जब ये बात नेता बोलते हैं तो ये चलन बहुत गलत है। समाज में बदलाव लाने के लिए हमारे नेताओं को प्रोग्रेसिव सोच को बढ़ावा देना होगा और उसकी पहल खुद करके लोगों को सिखाना होगा। मास अपील रखनेवाले नेता जब ऐसा कुछ बोलते हैं तो इसका दूर-दराज तक असर पड़ता है।”

वहीं, दिल्ली की रहनेवाली स्वाति का कहना है, “सरकारों का काम हमें यह बताना बिल्कुल नहीं है कि हमें कब बच्चा पैदा करना है और कब नहीं। बल्कि अगर नहीं भी करना है तो इस पर सरकारी लोग बात करने वाले कौन होने हैं। यह एक दंपत्ति का, एक महिला का निजी मामला है। इस तरह की सोच पूरी तरह से पितृसत्तात्मक और महिलाओं को कंट्रोल करनेवाली है, जहां एक महिला को केवल बच्चे और उसकी परवरिश तक ही देखा जाता है। मैं शादीशुदा हूं, पांच साल हो गए हैं। बच्चा हमें चाहिए या नहीं ये हम तय करेंगे न कि कोई और। इस देश की सरकारों को औरतों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर उनके प्रजनन अधिकारों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।”

प्रजनन अधिकार किसी एक लैंगिक पहचान तक सीमित नहीं है। हाशिये और पितृसत्ता के नियमों की वजह से महिलाओं के अधिकारों का हनन सबसे ज्यादा होता है। 1970 के दशक में भारत में भयानक जन-नसबंदी अभियान में लाखों पुरुषों को नसबंदी के लिए मजबूर किया गया था। यह पूरी तरह से एक मनुष्य की शारीरिक स्वायत्ता के ख़िलाफ़ है। ऐसी मनमानी और नियंत्रण वाली योजनाएं शुरू पुरुषों पर केंद्रित करके की गई थी लेकिन बाद में सरकार ने महिलाओं पर केंद्रित कर दिया।

यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों का उल्लघंन सरकारें सबसे आसानी से करती दिखती हैं। इसकी एक वजह तो रूढ़िवाद और पूर्वाग्रह है, दूसरा सरकारें इन अधिकारों को गंभीरता से लेती नहीं दिखती हैं। जबरन नसबंदी से लेकर गर्भनिरोध पर रोक, प्रजनन संबंधी दबाव इसमें शामिल है। सभी तरह के प्रजनन संबधी अधिकारों के उल्लंघन को खत्म किए बिना लैंगिक समानता पाना नामुमकिन है।

प्रजनन संबंधी नीतियां केवल शारीरिक स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं है, यह शारीरिक स्वायत्तता से भी जुड़ा है। यह समानता का मुद्दा है। यूएनएफपीए के अनुसार, “शारीरिक स्वायत्तता लैंगिक समानता की नींव है और सबसे बढ़कर यह एक मौलिक अधिकार है। शारीरिक स्वायत्तता का मतलब मेरा शरीर मेरे लिए है, मेरा शरीर मेरा अपना है। इसकी एजेंसी मेरी अपनी है इसके बारे में पसंद और गरिमा भी मेरी अपनी है।” इन सबमें राज्य की दखल नहीं होनी चाहिए। सरकारें स्वास्थ्य के अधिकार को बढ़ावा देने, उसकी रक्षा करने और पूरा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत बाध्य हैं। बावजूद इसके सरकारें प्रजनन अधिकारों पर रेगुलेशन, अपराधीकरण, बयानों आदि के ज़रिये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके अधिकारों का उल्लंघन कर रही हैं।

शारीरिक स्वायत्तता का महत्व

राज्य के प्रजनन अधिकारों को सीमित करने पर मार्गेट एटवुट का कहना है, “जिन महिलाओं को जन्म देने या न देने के बारे में खुद का फ़ैसला लेने की इजाज़त नहीं है वास्तव में वे राज्य के स्वामित्व में हैं क्योंकि राज्य ही दावा करता है कि उनके शरीर का किस तरह उपयोग करना है।” हमें ये भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि प्रजनन अधिकार किसी एक लैंगिक पहचान तक सीमित नहीं है। पितृसत्ता सोच के कारण हाशिये से आनेवाली महिलाओं के अधिकारों का हनन सबसे ज्यादा होता है।

1970 के दशक में भारत में क्रूर जन-नसबंदी अभियान में लाखों पुरुषों को नसबंदी के लिए मजबूर किया गया था। यह पूरी तरह से एक मनुष्य की शारीरिक स्वायत्ता के ख़िलाफ़ चलाई गई नीति थी। ऐसी मनमानी और नियंत्रण वाली योजनाएं शुरू पुरुषों पर केंद्रित करके की गई थी लेकिन बाद में सरकार ने महिलाओं पर केंद्रित कर दिया। अब इस तरह के कार्यक्रम और नियम महिलाओं पर पूरी तरह केंद्रित हो गए है। सरकारी कैंपो में असुरक्षित नसबंदी शिविरों में की वजह से बहुत सी महिलाएं अपनी अपनी जान तक गंवा चुकी हैं। 

द गार्डियन में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार छत्तीसगढ़ में सरकारी महिला नसबंदी कैंप के बाद महिलाओं की मौत की घटना हुई। इस कैंप में पांच घंटे में 80 महिलाओं की सर्जरी की गई थी। एनडीटीवी में प्रकाशित ख़बर के अनुसार बीते साल तेलंगाना में सरकारी अस्पताल में चल रहे महिला नसबंदी कैंप में सर्जरी के बाद चार महिलाओं की मौत हो गई थी। कई मामलों में सरकारी कैंप को अस्थायी जगह बिना चिकित्सकीय सुरक्षा बरतते हुए सर्जरी होने की बात सामने भी आई है।

नेताओं के बयान और नीतियों का यौन प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में लगातार कुछ कानून बनाने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। शादी की उम्र बढ़ाना उनमें से एक है लेकिन इन नीतियों को बनाने में महिलाओं और हाशिये के सभी जेंडर को लेकर व्यापक दृष्टिकोण की कमी दिखाई देती है। सरकारों की जिम्मेदारी गर्भनिरोधक, यौन प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकारों की नीतियों तक हर व्यक्ति की पहुंच सुगम करना है। लेकिन इससे इतर हमारे नेता और जनप्रतिनिधि इन मुद्दों पर अपनी सकीर्ण सोच दिखाते हैं जिसमें वे महिलाओं पर शासन या नियंत्रण की बात करते आते हैं।


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