ऐसा माना जाता है कि शिक्षा बांटने से बढ़ती है और कला सीखाने से जीवित रहती है। कला समाज में अपनी एक अलग पहचान, रोजगार का जरिया बनाने में मददगार साबित होती है। अगर किसी के जीवन में कोई कला है तो वह सबसे बड़ा धनी माना जाता है। जीवन में कितनी भी बड़ी मुश्किल क्यों ना हो अगर आप अपने अंदर अपनी कला को पहचान कर उसे जीवित रख आगे बढ़ते हैं तो एक दिन आपको सफलता जरूर मिलती है। इसका उदाहरण बिहार की मिथिला कलाकार गोदावरी दत्ता हैं।
जिस दौर में लड़की का जन्म होना एक अभिशाप के तौर पर माना जाता था, उस समय बिहार के मिथिलांचल की मशहूर मधुबनी पेंटिंग को गोदावरी दत्ता ने देश-विदेशों में पहचान दिलाई है। गोदावरी का जन्म 1930 में बिहार के दरभंगा जिले में हुआ। छह साल की उम्र से उन्होंने पेंटिंग करने की शुरुआत की, पहले वह दीवारों और फिर कागजों पर उन्होंने मिथिला पेंटिंग करने की शुरुआत की। महज 10 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया, जिसके बाद उनकी मां सुभद्रा दत्ता ने गोदावरी के साथ तीन भाई-बहनों का पालन पोषण किया। पिता की मृत्यु के बाद उनका बाल विवाह करा दिया गया। जिस उम्र में बच्चे खेलते-कूदते और स्कूल जाते हैं, उस समय उन्हें ससुराल जाना पड़ा।
गोदावरी दत्ता की आंखों के सामने उनके पति ने दूसरी शादी कर ली, जिसके बाद उन्होंने इकलौते बेटे के साथ ससुराल छोड़ दिया। इन परिस्थितियों में उन्होंने अपनी मां द्वारा सिखाई गई प्राचीन काल की मधुबनी कला को जीवित करने की ठानी। जिस दौर में उन्होंने काम करने की शुरुआत की तब के समय महिलाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने घर की सीमाओं के अंदर ही रहें। मगर उन्होंने कई सामाजिक उतार-चढ़ाव को पर किया और पाबंदियों को तोड़ते हुए अपनी अलग पहचान बनाई।
जब दत्ता ने मधुबनी पेंटिंग के काम की शुरुआत की तब गांव में ब्रश और पेंट नहीं मौजूद थे। तब के समय में उन्होंने टहनी और नीब, उंगलियों, माचिस की तीलियों और प्राकृतिक रंगों से इसे बनाने की शुरुआत की थी। हालांकि बाद में भी उन्होंने अपनी किसी भी पेंटिंग के लिए ब्रश का इस्तेमाल नहीं किया। दरभंगा के बहादुरपुर गांव की कला पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सहायक भास्कर कुलकर्णी की नज़र पड़ी। गांव में घूमने के दौरान उनकी नजर घर की मिट्टी की दीवारों पर बनी चित्रकला पर पड़ी, इसके बाद कुलकर्णी ने इसके जरिए आय उत्पादन की तरकीब सोची। अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड ने गांव की महिलाओं को मधुबनी पेंटिंग को कागजों पर उकेरने का अनुरोध किया ताकि इसे बाजारों में बेचा जाए। बोर्ड की प्रदर्शनी में महिलाओं की लगभग सभी पेंटिंग बिक गई। मगर एक महाभारत की पेंटिंग इंदिरा गांधी की टेबल तक पहुंची।
इसके बाद पितृसत्तात्मक समाज से बाहर निकाल कर गोदावरी दत्ता को अपनी अलग पहचान बनाने का मौका मिला। उन्होंने देश-विदेश में कला के जरिए पहचान स्थापित की। अपनी कला और प्रतिभा से उन्होंने सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि पूरे बिहार और मिथिलांचल का नाम रोशन किया। उनके काम के कारण ही आज के दौर में भी मिथिला पेंटिंग की अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बाजारों में बड़ी मांग है। दत्ता ने पेंटिंग में महाभारत, रामायण, विवाह, नृत्य सामाजिक और दैनिक घटनाओं को शामिल किया। उनके बेमिसाल मधुबनी कला का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह हर साल जापान और जर्मनी का दौरा करती थी, जहां उनकी कला को जापान के ताकोमाची मिथिला संग्रहालय और फुफुओका एशियाई कला संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया था।
द बेटर इंडिया को दिए गए बयान में उन्होंने कहा, “मधुबनी के लिए मेरा प्यार और मेरी मां का बिना शर्त समर्थन ही है, जिसने मुझे हर चुनौती से पार करने में मदद की।” वह आगे कहती हैं, “कला मेरे जीवन का हिस्सा है। मुझे इसे बेहतरीन कलाकार अपनी मां से सीखने और विकसित करने का सौभाग्य मिला। मैंने अपनी मां को कड़ी मेहनत करते देखा है, जहां वह एक लाइन को भी बेहतरीन पेंटिंग में बदल देती थी। इस काम में वह घंटों लगाती थी। मैंने अपनी मां से कला का सम्मान करना और उसे संरक्षित करना सीखा है।” गोदावरी दत्ता की मां सुभद्रा दत्ता भी एक प्रसिद्ध मधुबनी कलाकार थीं। कई मौकों पर उन्हें रामायण और महाभारत जैसी आकृतियां को उकेरने के लिए बुलाया जाता था। दत्ता ने कला से शिक्षा और गरीबी मिटाने की भी शुरुआत की। अपने जीवन काल में उन्होंने 1993 में मिथिला कला विकास समिति का गठन किया, जिसके माध्यम से शिक्षा, गरीबी और मधुबनी कला को बढ़ावा दिया जाता है।
ग्रामीण महिलाओं को भी आर्थिक रूप से सशक्त और स्वतंत्र बनाने में भी इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। लड़कियों की शिक्षा की भी दत्ता पक्षधर रही हैं। उनकी अनगिनत उपलब्धियों, कला को संरक्षित और जीवित करने के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए साल 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्म श्री से सम्मानित किया था। 1980 में इन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार, 2006 में शिल्पगुरु पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। अपने जीवन काल में उन्होंने करीब 49 हजार छात्रों और शिक्षकों को मधुबनी पेंटिंग के गुर सिखाएं। लेकिन बुढ़ापे में बीमारी के दौरान उन्हें सरकार की ओर से कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली। एक सप्ताह तक कोमा में रहने के बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। हजारों लोगों को रोजगार, शिक्षा और कला से जोड़ने वाली सशक्त और स्वावलंबी गोदावरी दत्ता ने 14 अगस्त 2024 को 93 वर्ष की आयु में आखिरी सांस ली।
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