फ़िल्म ‘स्त्री-2’ बहुत कम समय में बॉक्स ऑफ़िस पर अच्छी कमाई करने और अपने हल्के अंदाज़ में सामाजिक मुद्दे पर जरीरी बहस शुरू करने के लिए चर्चे में है। निरेन भट्ट की लिखी और अमर कौशिक की निर्देशित फ़िल्म ‘स्त्री-2’ कुछ हद तक पितृसत्तात्मक मुद्दों को संबोधित करने का सराहनीय प्रयास करती है। लेकिन फ्रेंचाइजी बनाने और आम दर्शकों, ज़्यादातर पुरुषों को तुष्ट करने में अपने इस प्रयास से कहीं न कहीं चूक जाती है। साल 2018 में आई ‘स्त्री’ फ़िल्म का सीक्वल और मैडडॉक फ़िल्म्स सुपरनैचुरल यूनिवर्स की 5वीं किश्त के रूप में ‘स्त्री 2’ हॉरर और ह्यूमर के मिले-जुले तड़के और सामाजिक टिप्पणी के साथ एक यादगार अनुभव देने का प्रयास करती है। लेकिन फ़िल्म में कई खामियां हैं जो जरूरी मुद्दे से भटकती नज़र आती है। फ़िल्म की शुरुआत से अन्त तक, कई समस्याजनक डीटेल्स आपको सोचने पर मजबूर कर देगी कि क्या वाकई आप ‘स्त्री’ फ़िल्म देख रहे हैं? फ़िल्म का नाम भले ही स्त्री है, लेकिन यह महिलाओं के लिए कुछ ख़ास करने की कोशिश नहीं कर रही है।
हालांकि यह वास्तविक समस्या से अवगत ज़रूर करवाती है, लेकिन पर्दे पर उसे विस्तार देने और उसके समाधान में वही मेल डोमीनटेड नज़रिया अपनाती है। कहानी की शुरुआत वहीं से होती है जहां पहली ‘स्त्री’ फ़िल्म को समाप्त किया था। हालांकि इस बार फ़िल्म में चंदेरी का सोशल डायनेमिक्स बदल गया है। जहां पिछली बार चंदेरी की महिलाएं स्त्री की वजह से स्वतंत्र और बिना डर के अपना जीवन जी रही थीं। पर मर्द डर में जीवन काट रहे थे, शाम होते अपहरण के डर से घर से बाहर नहीं निकलते थे। वहीं इस सीक्वल में ‘सरकटे’ राक्षस के आने के बाद अब महिलाएं खतरे में हैं। ख़ासकर ‘नए विचारों वाली’ महिलाएं, जैसा कि श्रद्धा का किरदार कहता है कि उसकी दुश्मनी हर उस लड़की से है जो नए विचारों वाली है।
मॉडर्न महिला के नाम पर दिखाया गया स्टीरियोटाइप
जब आप मॉडर्न महिलाओं का सोचेंगे तो आपके ज़हन में एक मज़बूत, स्वतंत्र और एजेंसी वाली महिला का चित्र उभरकर आएगा जो अपनी मर्ज़ी से जीती है। लेकिन यहां पहले ही सीन में एक शॉर्ट्स पहनी महिला दिखती है, जिसके एक हाथ में फ़ोन और दूसरे में सिगरेट है। मॉडर्न लड़की का वही चित्रण फिल्म में दिखाया गया है जो आम जनता कथित मॉडर्न के नाम पर सोचती है। इस पर मेकर्स को थोड़ा विचार करने की ज़रूरत थी। वरना फ़िल्म में नए विचारों वाली महिला यानी ‘मॉडर्न विमेन’ का इतना प्रोब्लेमेटिक चित्रण नहीं होता। इसी तरह से बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) की गर्लफ्रेंड चिट्टी को भी मॉडर्न बनाने के नाम पर मज़ाक-मज़ाक में हर जगह लड़कों के साथ में बिना बात के फ़्रेंडली होना दिखाया गया है।
कहानी में असंतुलन और गायब कड़ियां
जब सरकटे को बुलाना होता है तब रुद्र को शमा के नाच-गाने का प्रोग्राम कराने का आइडिया आता है। ये सोचने वाली बात है कि नाचना-गाना-बजाना कोई ‘मॉडर्न’ या औरतों तक सीमित विधा नहीं है। ये अपनेआप में एक रूढ़िवादी मानसिकता है। कहानी स्त्री की है लेकिन इसमें श्रद्धा कपूर के किरदार को तुलनात्मक रूप से काफ़ी कम स्क्रीन टाइम दिया गया है। इसमें उनकी बैकस्टोरी जानने का बेसब्री से इंतज़ार था लेकिन वो भी देखने नहीं मिली। इसी तरह कई और कड़ी गायब है। फ़िल्म का मेन विलेन सरकटा, विषाक्त पितृसत्तात्मक मानसिकता का एक रूपक है जो प्रगतिशील महिलाओं को नियंत्रित और अपने अधीन करना चाहता है।
पर फ़िल्म में सरकटे को आख़िर आधुनिक सोच वाली महिलाओं से क्या दिक्कत है? वो सिर्फ़ पितृसत्तात्मक व्यवस्था वापस लाना चाहता है ये कोई बहुत तार्किक कारण नहीं लगती। ‘स्त्री’ पुरुषों से क्यों बदला ले रही थी, इसके पीछे पूरी एक बैकस्टोरी थी लेकिन सरकटा सिर्फ़ आधुनिक महिलाओं को क्यों अगवा कर रहा है, इसके पीछे कोई वज़नदार तर्क नहीं है। श्रद्धा के किरदार के पास तांत्रिक विद्या और शक्तियां होने के बावजूद वो ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती। वो जो कुछ वो करती है, उसका भी सारा श्रेय आख़िर में हर बार राजकुमार राव के किरदार विक्की को दिया जाता है, जो मेल गेज दिखाता है।
महिलाओं की बात कहने के आड़ में मेल गेज़
दर्शकों को शायद ये समझ न आए कि आख़िर विक्की रक्षक क्यों है? पिछली बार उसके चंदेरी का रक्षक चुने जाने के पीछे वाजिब कारण था। लेकिन इस बार अगर उसी के आधार पर उसे इस कहानी का भी नायक चुना गया है तो यह कहानी को रीपीट करने जैसा है। अन्त में सरकटे को ख़त्म करने वाली तो स्त्री ही होती है। फ़िल्म में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि इस पितृसत्ता रूपी सरकटे को ख़त्म करने के लिए स्त्री और पुरुष को एक होना पड़ेगा, अर्धनारीश्वर का रूप लेना होगा जिसमें दोनों का बराबर आधा-आधा योगदान है। लेकिन वहीं पूरी फ़िल्म में एक पितृसत्तातमक समस्या का समाधान भी पुरुष ही खोजते नज़र आते हैं। केवल यही नहीं, सारी महिलाएं मिलकर सर्वसहमति से विक्की को अपना मसीहा भी चुन लेती हैं।
कई बार लॉजिक और बॉलीवुड मूवीज़ का दूर-दूर तक नाता नहीं है। यहां भी कस्बे से इतनी सारी लड़कियां गायब हो रही हैं लेकिन सब आराम से यह सोचकर बैठे हैं कि लड़कियां कस्बा छोड़कर शहर की ओर पलायन कर रही हैं। क्या उनके परिवारों को अंदाज़ा नहीं कि वो गायब हो रही हैं? इसके अलावा अगर आप ये मानकर चल रहे हैं कि लड़कियां घर छोड़कर शहर को भाग रही हैं, तो फिर वही आधुनिक लड़कियों को लेकर स्टीरिओटाइप सोच पर्दे पर शान से फेमिनिस्ट फ़िल्म के रूप में उतारा गया है।
महिलाओं की समस्या पर बातचीत की कमी
फ़िल्म में सरकटा- द इनफ्लूएंसर अपने जैसे कई और पुरुष बना जाता है, जो चंदेरी की महिलाओं को नियंत्रित करने का काम करते हैं। उनका घर से निकलना बन्द, लड़कियों के लिए स्कूल बन्द और उनका खेलना-कूदना आदि बन्द करवा देते हैं। इसको लेकर हम किसी महिला को विरोध करते नहीं देखते। इसी समय दर्शकों को डायलॉग याद आता जाएगा कि अगर ये मर्दों की प्रॉब्लम होती, तो अब तक आंदोलन हो रहे होते, लॉ बन गए होते। तभी स्त्री फ़िल्म का वो सीन याद आया जहां मर्दों के गायब होना पिछली बार चुनावी मुद्दा था, उसी तरह से इस बार औरतों का गायब होना चुनावी मुद्दा नहीं बनता है, बल्कि इसके उलट पुरुष क्या सोचते हैं और औरतों को कैसे नियंत्रित करके रखना है, यह सब चुनावी मुद्दे बनते हैं। ये कहीं न कहीं राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल को उठाने का प्रयास करते हैं जोकि सराहनीय है।
पुरुष किरदारों के सहारे चलती फिल्म
फ़िल्म अपने जिस सामाजिक टिपण्णी के लिए सराही जा रही है, उसकी सबसे अच्छी बात ये है कि वो उपदेशात्मक या बोझिल नहीं लगती। फ़िल्म में अच्छा ख़ासा ह्यूमर आपको मिलेगा, लेकिन ज़्यादातर द्विअर्थी यानी डबल मीनिंग जोक्स ही मिलेंगे। पंकज त्रिपाठी अपने अभिनय के मध्यम से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किये हैं। वह भी महिलाओं के इर्दगिर्द ही। शमा के लिए पंकज त्रिपाठी कहते है ‘हमारी नहीं, मेरी।’ फ़िल्म में ऐसे कई जगह फ़िल्म के हीरो महिलाओं को ऑब्जेक्टिफाई करते नज़र आते हैं। ‘आज की रात’ गाना भी फिल्म के कहानी के हिसाब से गैरजरूरी लगती है। समझ आता है कि इन चार लड़कों को ‘सिग्मा मेल हीरो’ के रूप में चित्रित न करके एक रिलेटेबल हीरो बनाने की कोशिश की गई है।
लेकिन इस कोशिश में इनके विरोधाभासी किरदार को गढ़ने का औचित्य नहीं समझ आता है। जहां एक ओर यह फ़िल्म फेमिनिस्ट स्टोरी का दावा करती है वहीं दूसरी ओर पुरुष महिलाओं के रक्षक हैं। इसके अलावा, महिला पात्र इस कथानक के लिए ज़रूरी होते हुए भी अक्सर सहायक भूमिकाओं में रहती हैं। विक्की और उसके दोस्तों पर ध्यान केन्द्रित करने से महिला अनुभवों और दृष्टिकोणों को और एक्सप्लोर करने की सम्भावना रह जाती है। फ़िल्म में महिला किरदारों का चित्रण अभी भी काफ़ी हद तक ‘मेल गेज़’ से प्रभावित है। पितृसत्ता को चुनौती देने में महिला पात्रों की अहम भूमिका है, लेकिन फ़िल्म को जिस तरह से फ़िल्माया गया है, उसमें इन थीम्स को उतने अच्छे से एक्सप्लोर कर पाने में सफल नहीं हो सकी है।