समाजमीडिया वॉच मेल गे़ज से गढ़ा सिनेमा का ‘प्रेम दर्शन’ और समाज

मेल गे़ज से गढ़ा सिनेमा का ‘प्रेम दर्शन’ और समाज

फिल्मों का लोगों पर इतना प्रभाव है कि लोग का खुद प्रेम को लेकर क्या दृष्टिकोण है वहां तक सोच ही नहीं पाते है। सिनेमा की गढ़ी काल्पनिकता ही उन्हें वास्तिक लगती है और ही वे अपने निजी रिश्तों में निभाना चाहते हैं। यहीं कारण है कि लोग फिल्मों में होने वाली चीज़ों को ट्रेड बनाकर फॉलो करते नज़र आते हैं।

सिनेमा संचार का एक सशक्त माध्यम है। 21वीं सदी में यह मनोरंजन के प्रमुख साधनों में से एक है। सिनेमा और उससे जुड़े कलाकारों को लेकर लोगों में दीवानगी बहुत ज्यादा है इसलिए कुछ चीजों और विचारों को समाज में आकार देने में फिल्मों की बड़ी भूमिका रही है। यह कहने में कोई जल्दबाजी नहीं है कि आम भारतीयों की प्रेम के प्रति समझ विकसित करने में सिनेमा की बड़ी भूमिका है। इतना ही नहीं प्रेम कहानियों को पर्दे पर देखने का भारतीय लोगों में एक जुनून देखने को मिलता है। एक्शन, क्राइम, ड्रामा कुछ भी हो लेकिन फिल्मों में प्रेम के एंगल को नहीं छोड़ा जाता है। लेकिन साथ ही सिनेमा में बहुत ही मेल ग़ेज नज़रिये यानी पुरुषों के नज़रिये से प्रेम के संबंध को गढ़ा है। सिनेमा की वजह से प्रेम और उस रिश्तें के निभाने के तरीकें को जिस तरह से स्थापित किया है वह लैंगिक पूर्वाग्रहों और रूढ़िवाद से भरा हुआ है। 

लोग प्रेम में कैसे पड़ें, प्रेम का इजहार कैसे करें, प्रेम कैसे निभाना है इस सबके लिए लोग पीढ़ियों से सिनेमा से प्रेरित होते आ रहे हैं। बड़े पर्दे पर जहां कुछ फिल्में वास्तविकता के करीब होती है तो वहीं बड़ी संख्या में प्रेम को लेकर सिनेमा ने काल्पनिक विचारों को स्थापित करने का काम किया है। फिल्मों का लोगों पर इतना प्रभाव है कि लोगों का खुद प्रेम को लेकर क्या दृष्टिकोण है वहां तक सोच ही नहीं पाते हैं। सिनेमा की गढ़ी काल्पनिकता ही उन्हें वास्तविक लगती है और वैसा ही वे अपने निजी रिश्तों में निभाना चाहते हैं। यहीं कारण है कि लोग फिल्मों में होने वाली चीज़ों को ट्रेड बनाकर फॉलो करते नज़र आते हैं। इससे यह साफ जाहिर होता है कि फिल्में, प्यार के बारे में हमारे सोचने के तरीके और हम अपने रिश्तों से क्या उम्मीद करते हैं, इस पर असर डालती है। 

बॉलीवुड की फिल्मों में प्यार को हमेशा भव्य तरीके से भी दिखाया गया है। पूरी फिल्मों में अपने प्यार को पाने के लिए, उसको साबित करने के लिए और उसी रक्षा करने के लिए हर संभव प्रयास किए जाते हैं। इससे लोगों को अपने जीवन में भी महान और पवित्र रूप से प्रेम को हासिल करने की उम्मीद रहती है।

अवास्तविकता को प्रेम के रिश्ते में हावी करता सिनेमा 

‘प्यार पहली नज़र में होता है’, ‘लड़की की ना में ही हाँ है’, ‘उसकी खामोशी ही उसकी सहमति है’ जैसी बातों को फिल्मों ने सिल्वर स्क्रीन पर प्रेम और रोमंटिक रिश्तों में हावी किया है। फिल्मों में हम ऐसे किरदारों को देखते हैं और उम्मीद लगाते हैं कि हमारे रिश्ते ऐसे ही होंगे जैसे पर्दे पर दिखाएं जाते हैं। फिल्मों में प्यार को हमेशा सबकुछ यानी सर्वव्यापी जैसा चित्रित किया जाता है। वास्तव में प्यार रिश्ते का सिर्फ एक हिस्सा है इससे अलग भी जीवन में कई चीजें मायने रखती है। वास्तविक रूप से हर रिश्ते में अनेक जटिलता होती है और हमेशा हर रिश्ते का “एंड हैप्पी” हो ऐसा नहीं होता है। लेकिन फिल्में हमें अवास्तविक उम्मीदों दे सकती हैं, वे हमारे रिश्तों पर बहुत दबाव डाल सकती हैं।

बॉलीवुड की फिल्मों में प्यार को हमेशा भव्य तरीके से भी दिखाया गया है। पूरी फिल्मों में अपने प्यार को पाने के लिए, उसको साबित करने के लिए और उसकी रक्षा करने के लिए हर संभव प्रयास किए जाते हैं। इससे लोगों को अपने जीवन में भी महान और पवित्र रूप से प्रेम को हासिल करने की उम्मीद रहती है। हालांकि साथ ही कुछ गानों में बताया भी जाता है कि “हर किसी को नहीं मिलता है प्यार”। पर्दे पर प्रेम की पेशकश लोगों पर इतना असर भी डाल सकती है कि वे अपने सामान्य रिश्तों को त्याग सकते हैं क्योंकि वे स्क्रीन पर दिखाए गए रिश्तों की तरह आदर्श नहीं हैं। मिशिगन यूनिवर्सिटी के अध्ययन से पता चलता है कि फिल्में और टेलीविजन कैसे रिश्तों और रोमांस के बारे में हमारी मान्यताओं को प्रभावित करता है। मिशिगन यूनिवर्सिटी के साइक्लोलॉजी डिपार्टमेंट और अध्ययन की प्रमुख जूलिया लिपमैन के अनुसार लोगों के रोमांटिक आइडियल अक्सर उनके सामने आने वाले मीडिया संदेशों के प्रकार से संबंधित होते हैं, जो बताता है कि मीडिया हमें सिखा रहा है कि रोमांटिक रिश्तों के बारे में हमें किस तरह की मान्यताएं रखनी चाहिए। वह आगे कहती है कि यह संभव है कि लगातार आदर्श तरीके से रोमांस के संपर्क में आने से दर्शक वास्तविक दुनिया में रिश्तों के बारे समान रूप से आदर्श विचारों को अपनाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिस की रोमांटिक फिल्मे, रिश्तों से जुड़े सिटकॉम और शादी थीम पर आधारित रियलटी शो रिश्तों के बारे में उनकी धारणाओं को कैसे प्रभावित कर सकते हैं। 

फेमिनज़म इंडिया के लिए श्रिया टिंगल

सिनेमा प्यार या रिश्तों में बराबरी के संदेश से अलग पुरुषों के प्रमुख होने को सही ठहराता है। महिलाओं को विनम्र होना दिखाया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज में यह मौजूद है लेकिन फिल्में इसे ग्लैमराइज करती है। इस तरह से विशेषकर युवाओं में यह संदेश देने में सफल हो जाती है कि प्यार पाने का यही एक तरीका है। ऑन स्क्रीन इस तरह की असमानता से भरा कंटेंट अधिक है और ऐसा संदेश देने वाली फिल्मों की सफलता और चर्चा से यह भी स्पष्ट होता है कि फिल्में इस तरह की सोच को बढ़ाने में सफल हो गई है। फिल्मी प्रेम और यौनिक आकर्षण न केवल व्यस्कों और किशोरों बल्कि बच्चों को भी प्रभावित करता है क्योंकि आज भी फिल्में देखना हमारे समाज में एक पारिवारिक मामला है। पहली नज़र में प्यार और सच्चा प्यार जैसे कॉन्सेप्ट  का प्रचार करने वाली फिल्मों ने ही प्यार को हासिल करने के सौ तरीके प्रचारित किए है। ‘लड़की के पीछे जाना’, ‘उसे बाजार या किसी टापू पर प्रपोज करना’, ‘उसे प्रभावित करने की कोशिशें लगातार करना हार न मानना’ या फिर ‘मेरा प्यार मेरा है’, ‘वो किसी और की हो नहीं सकती उस पर सिर्फ मेरा हक है’ जैसी सोच को प्रचारित किया है। 

रूढ़िवादिता को बढ़ाता सिनेमा

भारतीय फिल्मों में प्रेम को केवल हेट्रो कपल्स तक ही सीमित रखा है। यहां प्रेम के रिश्तों में स्त्री और पुरुष के संबंधों को ही मान्यता दी गई है। आमतौर पर होमोसेक्सुअलिटी को एक मज़ाक के तौर पर प्रचारित करने का काम किया है। फिल्मों ने प्यार के संबंध में रूढ़िवादिता को मजबूत करने का काम किया है। फिल्मों ने ही प्यार पर बाजार को हावी करने का भी काम किया है। प्यार में हिंसा के जायज होने को पर्दे पर बड़ी शान से दिखाए जाने का चलन रहा है। “प्यार में सब जायज है” जैसे डॉयलाग के कारण हमने देखा है कि समाज में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की अनेक घटनाएं सामने आती है। “एक तरफा प्यार की ताकत ही कुछ और होती है” और “जब तक है जान उससे मौहब्बत करता रहूंगा” जैसे डॉयलाग के ज़रिये सिल्वर स्क्रीन पर देखकर लोगों ने सीटियां और ताली बरसाई है वहीं वास्तव में इस वजह से कई महिलाओं को जिल्टेड लवर की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी है। फिल्मों की कहानियों ने ही जुनूनी प्रेमी के रोल को बहुत सामान्य बनाने की कोशिश की है और उसकी हिंसा को प्यार का ही एक रूप बनाने की कोशिश की है। 

सिनेमाई प्यार का संदेश और उसका प्रभाव

जैसे-जैसे लोग प्रेम के बारे में मीडिया, फिल्मों के दृष्टिकोण से आगे बढ़ते है रिश्तों और शादी के रिश्तों में आने वाले बदलावों को समझने में असमर्थ होते है। जब भावनाओं में बदलाव या पड़ाव आता है तो लोग सोचते है कि प्यार खत्म हो गया है। द न्यूज़मिनट में प्रकाशित एक सर्वे के अनुसार सिनेमा, प्यार के बारे में अवास्तविक विचारों को बढ़ाता है। इस शोध से पता चलता है कि लोग सोचते हैं कि रील ही वास्तविक है। युवा फिल्मों में मौजूद अधिकांश रोमांटिक बातों पर विश्वास करते हैं। ‘सोलमेट्स का विचार’ और ‘कोई परफेक्ट हर किसी के लिए इंतजार कर रहा है’ या ‘उन्हें पूरा होने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता है’ जैसी बातों को सच मानकर चलते है। शोध से पता चला है कि ‘दोस्ती, प्यार की पहली सीढ़ी है’, ‘प्यार हर चीज का इलाज है’,’प्यार अंततः एक रास्ता खोज लेगा’ और ‘एकतरफा प्यार खूबसूरत है’ जैसी बातों को वास्तव में विश्वास करना खतरा हो सकता है। इसी शोध में जब युवाओं से उनकी पसंदीदा रोमांस फिल्मों का नाम पूछा तो अंधिकांश का जवाब तमिल फिल्म ओके कनमनी, इसके बाद ऐतिहासिक प्रेम गाथा बाजीराव मस्तानी और मलयालम हिंट प्रेमम को चुना। इन फिल्मों के माध्यम से पहली नज़र के प्यार, प्यार ही सबकुछ है और प्यार सभी पर जीत हासिल करता वह संदेश दिया गया। 

“प्यार में सब जायज है” जैसे डॉयलाग के कारण हमने देखा है कि समाज में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की अनेक घटनाएं सामने आती है। “एक तरफा प्यार की ताकत ही कुछ और होती है” और मैं जब तक है जान उससे मौहब्बत करता रहूंगा के ज़रिये सिल्वर स्क्रीन पर देखकर लोगों ने सीटियां और ताली बरसाई है वहीं वास्तव में इस वजह से कई महिलाओं को जिल्टेड लवर की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी है।

सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। साफ तौर पर वह अपने नैरेटिव और सम्मोहक तरीके से चीजों प्रस्सुत करने के साथ प्रेम को लेकर आम दर्शकों की धारणाओं को प्रभावित करता है। जब फिल्में रोमांस को अलग-अलग तरीके से इंटरप्रीटेट करता है तो दर्शकों को रील और वास्तविक जीवन के बीच अंतर करना आवश्यक है। यह स्वीकार करते हुए कि असल जीवन का प्यार सिनेमाई प्यार की तुलना में अधिक सूक्ष्म, जटिल और विविध है। फिल्मों में बदलाव होना बहुत आवश्यक है। हर साल बड़ी संख्या में फिल्में रिलीज होती है लेकिन हमारे पास शानदार उदाहरण अंगुलियों पर गिनने वाली संख्या में है। भारतीय सिनेमा को हर परिदृश्य से बदलाव को प्रासंगिक बनाना होगा। हफ्ते दर हफ्ते लाखों भारतीय सिनेमाघरों में जाते हैं, बड़े पर्दे पर प्रदर्शित प्रेम कहानियों को देखने का लुफ्त उठाते हैं बहुत ज़रूरी है कि यह मनोरंजन रूढ़िवाद, पितृसत्ता, लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देने वाला हो।


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