समाजकार्यस्थल भारत में श्रम विरोधी नीतियां किस तरह कामकाजी महिलाओं के जीवन को कर रही हैं प्रभावित

भारत में श्रम विरोधी नीतियां किस तरह कामकाजी महिलाओं के जीवन को कर रही हैं प्रभावित

पिछले दिनों कर्नाटक के राज्य मंत्री ने आईटी कर्मचारी के कार्य घंटों की सीमा बड़ा कर 14 घंटे कार्य दिवस करने का प्रस्ताव रखा था लेकिन इस प्रस्ताव पर आईटी कर्मचारियों ने जमकर विरोध किया है। जहां कार्य दिवस स्थगित करना पड़ा और वहीं यह भारतीय श्रम कानून के खिलाफ भी था।

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में हमेशा से महिलाओं को पुरुषों के तुलना में कम महत्व दिया जाता है। आज जहां महिलाएं हर क्षेत्र में हिस्सा ले रही हैं और आगे निकलकर बेहतर भी कर रही हैं। पुरुषों के साथ मिलकर समान रूप से काम कर रही हैं और उसके लिए संघर्ष भी कर रही हैं लेकिन फिर भी हमारे समाज में यह धारणा बनी हुई है कि महिलाएं, पुरुषों की अपेक्षा कम काम करती हैं या यह कि पुरुषों के काम का मुकबला महिलाएं कभी भी नहीं कर सकती हैं। जबकि हम देखें तो नौकरीपेशा वाली महिलाएं, पुरुषों से ज्यादा काम करती हैं। रूढ़िवादी समाज के तय किए गए ‘जेंडर के मापदंड’ को महिलाओं के न चाहते हुए भी उनके जिम्मे हर वो बुनियादी काम सौपा गया है, जैसे खाना बनाना, कपड़े साफ़ करना, साफ-सफाई करना, परिवार को संभालना आदि और इन सब कामों का उन्हें कोई भुगतान नहीं मिलता है। 

दूसरी बात यह है कि हमारे समाज में आज भी महिलाओं के ऊपर हर समय ‘अच्छी पत्नी’, ‘अच्छी माँ’ और ‘अच्छी औरत’ बने रहने का दबाव भी बनाया जाता है। साल 2020 के समय उपयोग सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाएं पहले से ही पुरुषों कि तुलना में घरेलू रख रखाव,बच्चों, बीमारों और बुजुर्गों कि देखभाल पर 10 गुना अधिक समय लगाती हैं। ज्यादातर कामकाजी महिलाओं के साथ यह शर्त रखी जाती है कि आप नौकरी करें लेकिन घर का सारा काम भी आपको ही करना है। परिवार महिलाओं से हमेशा यह चाहता है कि वह रसोई और नौकरी दोनों में बेहतर हो जिसके कारण अक्सर कामकाजी महिलाओं को घर-परिवार में सहयोग नहीं मिल पाता है।

सम्पा कहती है, “अगर मैं घर का काम करना बंद कर दूँ हालांकि ऐसे सोचने की कोई गुंजाइश भी नहीं है यहां तक कि अगर मैं काम करने से माना भी कर दूं तो कल से मेरी नौकरी बंद करवा दी जायेगी। परिवार के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि मैं रसोई में कितनी बेहतर हूं।”

कई बार इस जहोजहद में आकर महिलाएं हार मान लेती हैं। यहां तक कि नौकरी तक छोड़ देती हैं, क्योंकि बारह घंटे कि नौकरी करने के बाद घर आकर भी सारा काम करना और उस काम का कोई भुगतान तक नहीं मिलना यह कितना संघर्ष पूर्ण है इसका क्या प्रभाव महिलाओं के जीवन पर पड़ता है? झाँसी की रहने वाली कमला दिल्ली में रह कर नौकरी करती हैं। उनका कहना हैं, “मैं जिस समाज में रहती हूं वहां महिलाओं का घर से निकल कर नौकरी करना बहुत संघर्ष की बात है और अगर हम नौकरी कर रहे होते हैं तो हम एक साथ दो नौकरी करते हैं फिर भी न सम्मान दिया जाता है और न सम्मान का हकदार समझा जाता है”

आगे कमला कहती हैं, “मैं जिस जगह काम करती हूं वहां मेरा काम का समय आठ घंटे का होता है वहां से आने के बाद घर का सारा काम करती हूं। परिवार में मेरे साथ मेरे पति रहते हैं वो भी नौकरी करके आते हैं फिर वो आराम करते हैं लेकिन वो घरेलू काम में हिस्सा नहीं लेते हैं। समय कितना भी बदल जाए पर मुझे लगता है कि पुरुष कभी नहीं बदल सकते हैं ऐसे में एक कामकाजी महिला जिसका नौकरी करना एक सपना होता हैं, दूसरा घरेलू काम जिसे सदियों से महिलाओं के ऊपर एक तरह से सौंप दिया गया है। कई बार महिलाओं को इन दोनों जगहों को संभालने में समय लगता है और कई बार हम यह महसूस करते है कि हम फंस गये हैं।”

तस्वीर साभारः Scroll.in

पिछले दिनों कर्नाटक के राज्य मंत्री ने आईटी कर्मचारी के कार्य घंटों की सीमा बढ़ाकर 14 घंटे करने का प्रस्ताव रखा था लेकिन इस प्रस्ताव पर आईटी कर्मचारियों ने जमकर विरोध किया है। इसके चलते कार्य दिवस स्थगित करना पड़ा और यह यह भारतीय श्रम कानून के खिलाफ भी था। भारत के श्रम कानून के अनुसार, सामान्य परिस्थितियों में कर्मचारी का साप्ताहिक कार्य समय 48 घंटे से अधिक नहीं हो सकता है। दूसरी ओर, कामकाजी वयस्कों के लिए दैनिक कार्य घंटे की सीमा शहरों और राज्यों में अलग-अलग हो सकती है। नई दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में दैनिक कार्य घंटे केवल 9 घंटे तक सीमित हैं, जबकि कर्नाटक जैसे राज्य कर्मचारियों को आराम के अवकाश सहित 12 घंटे तक काम करने की अनुमति देते हैं।

ऐसें में भारतीय श्रम कानूनों का उल्लंघन होने से कर्मचारियों के जीवन शैली कितना प्रभावित होगा? इसमें सबसे ज्यादा असर कामकाजी महिलाओं के जीवन और उनके कार्यशैली पर पड़ेगा। इसकी वजह यह है क्योंकि आज भी महिलाओं से यह उम्मीद कि जाती है कि नौकरी करते हुए बच्चें पालना, परिवार में बड़े-बुजुर्गों कि सेवा करना यह सारी ज़िम्मेदारी महिलाओं की ही है।साल 2020 के टाइम यूज़ सर्वे के अनुसार, महिलाएं हर दिन घर के काम (अवैतनिक घरेलू कार्य) में 299 मिनट लगाती हैं। वहीं, भारतीय पुरुष दिन में सिर्फ 97 मिनट घर के काम में लगाते हैं। यही नहीं, इस सर्वे में ये भी सामने आया है कि महिलाएं घर के सदस्यों का ख़्याल रखने में रोज़ 134 मिनट लगाती हैं। वहीं, पुरुष इस काम में सिर्फ 76 मिनट ख़र्च करते हैं।

तस्वीर साभारः Gallup News

महिलाओं को दोहरे कार्यभार पर कलकत्ता की मूल निवासी सम्पा जो दिल्ली में रह कर नौकरी करती हैं उनका कहना हैं, “हमारा समाज रूढ़िवादी सोच से भरपूर है इस समाज में महिलाएं कितना भी पढ़ लिख ले कितनी भी बड़ी पद पर हो लेकिन नौकरी करके आने के बाद घरेलू काम उनके हिस्से ही होते हैं। मैं जहाँ काम करती हूं वहां मेरे काम का समय 12 घंटे है। जब वहां से काम करके घर लौटती हूं तब बहुत थकी हुई होती हूं लेकिन घर आने के बाद देखती हूं कि सभी लोग मेरा ही मुंह देख रहे होते हैं और घर का सारा काम वैसे का वैसे ही पड़ा होता है तब परिवार से एकतरह से निराशापन महसूस होने लगता हैं।”

नौकरी के साथ-साथ घरेलू जिम्मेदारी के भी तालमेल बिठाने के ऊपर आगे सम्पा कहती है, “अगर मैं घर का काम करना बंद कर दूँ हालांकि ऐसे सोचने की कोई गुंजाइश भी नहीं है यहां तक कि अगर मैं काम करने से माना भी कर दूं तो कल से मेरी नौकरी बंद करवा दी जायेगी। परिवार के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि मैं रसोई में कितनी बेहतर हूं। मेरी नौकरी और वहां के काम से मेरे परिवार को खास मतलब नहीं है इसलिए जीवन थोड़ा संघर्षपूर्ण है मैं बस यह चाहती हूं कि जहां मैं काम कर रही हूं वहां मेरे काम का समय कम हो जाए ताकि मैं दोनों जगह को आराम से संभाल सकूं।”

साल 2019 में नैशनल सैंपल सर्वे द्वारा किए गए ‘टाइम यूज सर्वे’ के अनुसार शहरी और ग्रामीण भारत में रहने वाले पुरुषों और महिलाओं द्वारा समय के उपयोग का अध्ययन किया गया था। सर्वे बताता है कि जहां महिलाएं प्रतिदिन औसतन सात घंटे घर के सदस्यों के अवैतनिक घरेलू काम और देखभाल से जुड़ी सेवाओं पर लगाती हैं, वहीं पुरुष मुश्किल से तीन घंटे इस पर खर्च करते हैं। इस तरह से कामकाजी महिलाओं को दोहरी ज़िम्मेदारी का सामना करना पड़ता है नौकरीपेशा या कामकाजी महिलाओं के संदर्भ में अक्सर यह कहा जाता है कि अब तो वो सशक्त हो गई है क्योंकि नौकरी करने लगी है इसलिए उनमें लैंगिक समानता आ गई है पर क्या इसे हम लैंगिक समानता के रूप में देखेंगे? क्योंकि नौकरी कर के आने के बाद भी उन्हें घर का सारा काम करना पड़ता है।

साल 2020 के टाइम यूज़ सर्वे के अनुसार, महिलाएं हर दिन घर के काम (अवैतनिक घरेलू कार्य) में 299 मिनट लगाती हैं। वहीं, भारतीय पुरुष दिन में सिर्फ 97 मिनट घर के काम में लगाते हैं।

खुद के लिए और परिवार के लिए खाना बनाने की जिम्मेदारी केवल महिलाओं की होती है जबकि महिला और पुरुष दोनों बाहर जाकर काम करते हैं लेकिन जैसे ही घरेलू काम कि बात हो तब परिवार और समाज के द्वारा महिलाओं के ही मुंह क्यों देखा जाता हैं? ऐसे में जब हम लैंगिक समानता कि बात करते हैं तो हमें यह समझना होगा कि अगर महिला-पुरुष बाहर जाकर एक समान काम कर रहे हैं एक समान समय व्यतीत कर रहे हैं। दोनों पैसे कमा रहे हैं फिर घरेलू काम में साझेदारी क्यों नहीं है। यह भेदभाव क्यों हैं? घर के काम सिर्फ महिलाओं के हिस्से ही क्यों आते हैं?

भारतीय रूढ़िवादी समाज ने सदियों पहले महिला और पुरुष के काम का एक दायरा बनाया है जहां पर घर संभालने, खाना बनाने और परिवार संभालने की जिम्मेदारी महिलाओं की है और पैसा कमाकर परिवार का पालन-पोषण करना पुरुष का काम है। लेकिन बदलते समय के अनुसार अब जब महिलाएं समाजिक रूढ़िवादी सोच और पितृसत्तात्मक व्यवहार के परे जाकर पैसे कमाने का काम भी कर रही हैं। ऐसे में पुरुष वर्ग को भी घरेलू काम में हिस्सा लेने का होगा ताकि एक समावेशी समाज को बनाया जा सके। समाज में लैंगिक समानता को बढ़ाया जाए और अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो लैंगिक समानता का विचार बस एक विचार बनके रह जायेगा यह कभी भी सरोकार और व्यवहार में शामिल नहीं हो।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content