आदिवासी समुदाय भारतीय समाज में सदियों से हाशिए पर हैं। समाज में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है और सार्वजनिक नीतियों को तैयार करते समय उन्हें व्यापक रूप से नजरअंदाज़ किया जाता है। आपराधिक न्याय प्रणाली का हालिया स्वरूप ब्रिटिश सरकार के दौरान तैयार की गई रूपरेखा है और यह अधिकांश क्षेत्रों में आदिवासी लोगों पर समान रूप से लागू होता है। जहां आदिवासी समुदाय मूल रूप से हाशिये पर हैं, वहीं आदिवासी महिलाओं को अपने समुदाय और जेंडर के कारण दोहरी मार का सामना करना पड़ता है। इन महिलाओं के लिए लैंगिक हिंसा न केवल आदिवासी और गैर-आदिवासी क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव के कारण होती है, बल्कि देश में मौजूद उपनिवेशवाद, सैन्यवाद, नस्लवाद और सामाजिक बहिष्कार और गरीबी को प्रभावित करने वाली आर्थिक और विकास नीतियों के कारण भी आकार लेती है।
2011 के जनगणना के अनुसार आदिवासी भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत हैं। आदिवासी लोगों के अधिकार भारतीय संविधान की अनुसूची 52 और अनुसूची 63 में शामिल है। अनुच्छेद 19, खंड 5 में सभी अनुसूचित जनजातियों के लिए अन्य सुरक्षा का भी प्रावधान है। भारत के कथित लोकतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों और आदिवासियों के वास्तविक अनुभवों के बीच बहुत बड़ा अंतर है। आदिवासी समाज के द्वारा सामना की जाने वाली किसी भी तरह की प्रणालीगत हिंसा समाज में रोजमर्रा की सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं से पैदा होती है।
नैशनल कौंसिल ऑफ वुमन लीडर्स (एनसीडब्ल्यूएल) की जारी बिऑन्ड रेप: एक्सामीनिंग द सिस्टेमिक अप्रेशन लीडिंग टू सेक्शुअल वाइअलन्स अगैन्स्ट आदिवासी वुमन रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी महिलाओं की गरीबी और हाशिए पर जाने की स्थिति बहुत गहरी है और इस कारण उन्हें बहुत कम उम्र से ही मानव तस्करी, यौन हिंसा और उत्पीड़न के माध्यम से शोषण के लिए असुरक्षित बना दिया है। औपनिवेशिक शासकों की शुरू की गई वंचित करने की प्रक्रिया, जिसमें आदिवासी महिलाओं और पुरुषों को पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में ले जाया जाता था, ने आदिवासी महिलाओं के जीवन को और भी अधिक अनिश्चित बना दिया है।
मूलधारा से अलग आदिवासी महिलाएं कमज़ोर समूह है
आदिवासी महिलाओं को मूलधारा से बेदखल करने के अलावा, उन्हें जमीन, श्रम, पैतृक अधिकार, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर खुद की एजेंसी से वंचित करके हमेशा हाशिये पर रखा गया है। रिपोर्ट के अनुसार राज्य के आतंकवाद विरोधी हमलों के हिस्से के रूप में, विशेष रूप से संघर्ष की स्थितियों में सामूहिक यौन हिंसा के प्रति उनकी संवेदनशीलता की बारीकी से जांच की जानी चाहिए। इस रिपोर्ट में भारत के 10 आदिवासी बहुल राज्यों -छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, ओडिशा, मणिपुर, असम, पश्चिम बंगाल और बिहार में महिला अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासी महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों पर शोध की गई। इसमें साल 2019 और 2024 के बीच यौन हिंसा के 33 मामलों का चयन किया गया और उनका विश्लेषण किया गया। रिपोर्ट में प्रमुख निष्कर्ष के रूप में यह सामने आया कि इन यौन हिंसा के मामलों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह से अदृश्य कर दिया गया।
आदिवासी महिलाएं कर रही हैं संस्थागत भेदभाव और हिंसा का सामना
रिपोर्ट बताती है कि आपराधिक न्याय प्रणाली में मौजूद लोग, जिनका उद्देश्य सुरक्षा प्रदान करना और जस्टिस तक पहुंच को आसान और सक्षम बनाना है, असल में एफआईआर दर्ज करने से इनकार करके और सर्वाइवर के प्रति अपमानजनक और भेदभावपूर्ण व्यवहार करके न्यायपूर्ण प्रक्रिया में बाधा डाल रहे हैं। ऐसे मामलों में जहां पुलिस, अर्धसैनिक बल और ऐसे अन्य कर्मी यौन हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं, अधिकारी सर्वाइवर के लिए ‘सुरक्षित स्थान’ बनाने के बजाय ‘अपने लोगों’ की सुरक्षा का सहारा लेते हैं। आदिवासी महिलाओं की स्थिति और समस्याओं को समझने के लिए ये ध्यान देना जरूरी है कि न सिर्फ ये नीतिनिर्माताओं, सरकारी तंत्रों द्वारा नजरन्दाज़ की जाती हैं, बल्कि सामाजिक रूढ़िवाद और पितृसत्ता का भी भयानक रूप से सामना करती हैं।
देश में झारखंड में विच हन्ट से संबंधित सबसे अधिक मामले दर्ज किए जाते हैं। हालांकि ऐसे अपराध अक्सर रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं, लेकिन कोर्ट ऑन इट्स ओन मोशन बनाम झारखंड राज्य (2015) मामले में झारखंड उच्च न्यायालय के अनुसार 2007 से 2016 तक में राज्य के भीतर कम से कम 3,854 ऐसे मामले हुए हैं। न्यायालय ने 27 जुलाई 2016 के अपने आदेश में राज्य के प्रयासों और जागरूकता अभियान की विफलता को भी उजागर किया।
एनसीडब्ल्यूएल बताती है कि संवैधानिक प्रावधानों और सुरक्षा के लिए कानूनों के बावजूद, कई आदिवासी बहुल राज्यों में विद्रोही और चरमपंथी समूह सक्रिय हैं। इनमें से अधिकांश राज्यों में ‘उग्रवाद’ और हिंसा का मुकाबला करने के लिए कई हिस्सों को वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र घोषित किया गया है और एक ऐसे राज्य को सक्षम किया गया है, जहां कानून लागू करने वाले आदिवासी समूहों के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाने वाले बन गए हैं। यह शांति बनाए रखने और हिंसा को दबाने के लिए विशेष बलों की नियुक्ति को सक्षम बनाता है। हालांकि इस तरह की विशेष अधिसूचना कानून लागू करने वालों को दंड से मुक्त होकर काम करने की शक्ति भी देती है और नजीतन विशेषकर महिलाएं बड़े पैमाने पर यौन हिंसा का शिकार होती हैं।
न्यायायिक प्रणाली के आखिरी पायदान पर हैं आदिवासी महिलाएं
2022 की राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिपोर्ट (एनसीआरबी) अनुसार, अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के खिलाफ़ अपराधों के लिए कुल 10,064 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 के 8,802 मामले की तुलना में 14.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी है। अपराध दर 2021 में 8.4 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 9.6 प्रतिशत हो गई। रिपोर्ट से पता चलता है कि 2022 में बलात्कार के 1,347 मामले और आदिवासी/जनजातीय महिलाओं पर हमले के 1022 मामले दर्ज किए गए। रिपोर्ट के अनुसार, एसटी के खिलाफ अत्याचार के 12,159 मामलों की जांच लंबित थी।
अनुसूचित जातियों (एससी) के खिलाफ अत्याचार के कुल 2,63,512 मामले जबकि एसटी के खिलाफ़ अत्याचार के 42,512 मामलों में सुनवाई हुई। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत सजा का प्रतिशत एससी के लिए 36 प्रतिशत और एसटी के लिए 28.1 प्रतिशत रहा। साल के अंत में, अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार के 96 प्रतिशत मामले सुनवाई के लिए लंबित थे, जबकि अनुसूचित जनजाति के लिए यह प्रतिशत 95.4 था।
सरकारी दावों के बीच आदिवासियों की हालत
आदिवासी समुदाय के चंद लोगों को छोड़कर वे आम तौर पर कृषि और वन संसाधनों पर निर्भर हैं। आज़ादी के बाद, विकास के पूंजीवादी मोड के आने से, अधिकांश आदिवासी समुदाय अपनी जमीनों से विस्थापित हो गए हैं और अपने वन संसाधनों से वंचित हो गए हैं। देश भर में कई आदिवासी समुदाय अपनी ज़मीन के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं। डेटा रिसर्च एजेंसी लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच ने एक अध्ययन में बताया कि देश भर में चल रहे 703 मामलों में से 25 प्रतिशत सिर्फ आदिवासी क्षेत्रों में हैं। जर्नल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीस के अनुसार, भारत के 90 फीसद कोयला खदान भंडार, 80 फीसद खनिज, 72 फीसद वन और प्राकृतिक संसाधन, और 3000 से अधिक जलविद्युत बांध आदिवासी क्षेत्रों में स्थित हैं।
लेकिन हैरानी की बात ये है कि 85 फीसद आदिवासी परिवार आधिकारिक रूप से गरीबी रेखा के नीचे हैं। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग ने पाया कि कुल बंधुआ मजदूर श्रमबल में 83 फीसद अनुसूचित जनजातियां हैं। हालांकि भारत ने 2007 में स्वदेशी (इंडिजीनियस) लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा के पक्ष में मतदान किया था। लेकिन यह ‘स्वदेशी जनसंख्या’ की अवधारणा को नकारता रहा है और दावा करता है कि सभी भारतीय स्वदेशी हैं।
क्यों आदिवासी महिलाओं को करना पड़ता है यौन हिंसा सामना
एनसीडब्ल्यूएल की रिपोर्ट बताती है कि अधिकांश जनजातीय समाजों में यौन संबंध बनाने और साथी चुनने की स्वतंत्रता एक सांस्कृतिक प्रथा है। लेकिन, यौन हिंसा के मामलों पर शोध बताती है कि गैर-आदिवासी पुरुष इसका दुरुपयोग करके आदिवासी महिलाओं का यौन शोषण करते हैं। आदिवासी लड़कियां यौन शोषण, हिंसा और मानव तस्करी के लिए बहुत ज्यादा संवेदनशील हैं। हालांकि ये बच्चे गरीब घरों से आते हैं, फिर भी कई बच्चे स्कूल जाते हैं। शिक्षा की लालसा और अपने परिवारों को आजीविका में मदद करने के संघर्ष में, वे कथित तौर पर सामाजिक वर्चस्व वाले प्रमुख जाति के पुरुषों और महिलाओं का उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं। ये भी पाया गया कि आदिवासी बच्चों के लिए आश्रमशालाएं, छात्रावास और स्कूल सुरक्षित नहीं हैं। असुरक्षा के मामले में गरीब आदिवासी महिलाओं में विकलांगता एक प्रमुख कारक पाई गई। आदिवासी महिलाओं को एक ऐसे राज्य में रहने का खामियाजा भुगतना पड़ता है, जो मतभेद और हिंसा का क्षेत्र बना हुआ हो।
मणिपुर में जातीय संघर्ष और सांप्रदायिक हिंसा ने आदिवासी महिलाओं को शारीरिक और यौन हिंसा के सबसे क्रूर और अमानवीय रूपों का सामना करना पड़ रहा है। देश में आदिवासी महिलाओं के सुरक्षा के लिए उनके अधिकारों की रक्षा करने वाले सभी कानूनों को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1325 के दिशा-निर्देशों के अनुसार सैन्य और अर्धसैनिक बलों के महिलाओं के खिलाफ़ सैन्यीकरण और यौन हिंसा को रोकना होगा। आदिवासी महिलाओं को एक विशेष समूह मानते हुए उनके शिक्षा, रोजगार और जीवनयापन के उपायों पर काम करने की तत्काल जरूरत है। साथ ही, ये भी जरूरी है कि जिस जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई को वे सदियों से सरकारी तंत्र के खिलाफ़ लड़ रहे हैं, उसे मान्यता दी जाए और समस्या का हल किया जाए।