संस्कृतिसिनेमा पारंपरिक समाज में एक महिला की व्यक्तिगत आज़ादी की लड़ाई दिखाती है फिल्म ‘परमा’

पारंपरिक समाज में एक महिला की व्यक्तिगत आज़ादी की लड़ाई दिखाती है फिल्म ‘परमा’

परमा एक महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समाज के कठोर नियमों के खिलाफ उसकी लड़ाई की कहानी है। यह फिल्म नारीवादी दृष्टिकोण से एक साहसी बयान प्रस्तुत करती है और महिलाओं के मानसिक और सामाजिक संघर्षों को प्रभावशाली ढंग से पेश करती है।

अपर्णा सेन द्वारा साल 1984 में बनाई गई फिल्म ‘परमा’ महिलाओं के मुद्दों और सामाजिक अपेक्षाओं पर गहरी नजर डालती है। 1980 के दशक के कोलकाता की पृष्ठभूमि में सेट यह फिल्म एक अधेड़ उम्र की गृहिणी परमा के जीवन को केंद्र में रखती है, जो अपनी पहचान की तलाश में संघर्ष करती है। फिल्म में राखी गुलजार ने परमा की भूमिका निभाई है और मुकुल शर्मा मुख्य भूमिका में हैं। यह फिल्म कोलकाता के उच्चवर्गीय परिवारों की सामाजिक स्थिति को दर्शाती है, जहां महिलाओं की भूमिका को सीमित कर दिया गया है। कहानी एक बंगाली महिला की पहचान की जटिलताओं को उजागर करती है, जो अपने वैवाहिक जीवन में प्रेम और महत्व की कमी के कारण खुद को खो देती है।

परमा एक ऐसी महिला है, जो कभी अपने जीवन से भरी हुई थी, लेकिन शादी के बाद वह धीरे-धीरे अपनी पहचान खो बैठती है। वह अपनी पसंद-नापसंद, शौक और भावनाओं को नजरअंदाज करते हुए सिर्फ एक पत्नी, माँ और बहू के रूप में सीमित हो जाती है। उसका पति एक सफल व्यवसायी है और परमा अपनी सास, बच्चों और पति के लिए पूरी तरह समर्पित रहती है। परमा की निजी पहचान इस पारिवारिक दायित्वों के बीच खो जाती है। कहानी की शुरुआत एक धार्मिक त्योहार के दौरान होती है, जब परमा के पति का भाई और उसका परिवार उनके घर आते हैं। धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता है कि परमा की पहचान केवल परिवार के दायरे में सिमटकर रह गई है।

परमा एक ऐसी महिला है, जो कभी अपने जीवन से भरी हुई थी, लेकिन शादी के बाद वह धीरे-धीरे अपनी पहचान खो बैठती है। वह अपनी पसंद-नापसंद, शौक और भावनाओं को नजरअंदाज करते हुए सिर्फ एक पत्नी, माँ और बहू के रूप में सीमित हो जाती है।

खोई हुई पहचान पाती परमा

कहानी में राहुल रॉय (मुकुल शर्मा) का प्रवेश होता है, जो परमा के भतीजे का दोस्त है और एक फोटोग्राफर है। दुर्गा पूजा के दौरान वह पहली बार परमा से मिलता है और उसकी सुंदरता से मोहित होकर उसकी तस्वीरें लेता है। परमा, जिसे अब तक केवल ‘काकिमा’, ‘बौमाँ’ या ‘बौदी’ के नाम से जाना जाता था, राहुल की नजरों में एक अलग पहचान पाती है। एक साल बाद, जब राहुल कोलकाता लौटता है, तो वह एक मैगजीन के लिए बंगाली गृहिणियों की तस्वीरें खींचने का फैसला करता है और परमा को अपने मॉडल के रूप में चुनता है।

तस्वीर साभार: IFFR

राहुल के कैमरे की नजर में परमा को अपनी खोई हुई पहचान दोबारा दिखने लगती है। वह फिर से अपने बारे में सोचने लगती है, वह परिवारिक जिम्मेदारियों से इतर एक औरत के रूप में खुद को देखने लगती है। राहुल के साथ बिताए गए समय में उसे आजादी का एहसास होता है, एक ऐसी आजादी जो उसने लंबे समय से महसूस नहीं की थी। वह अपने सितार को फिर से छूने लगती है, जिसे उसने बरसों पहले छोड़ दिया था।

परमा, जिसे अब तक केवल ‘काकिमा’, ‘बौमाँ’ या ‘बौदी’ के नाम से जाना जाता था, राहुल की नजरों में एक अलग पहचान पाती है। एक साल बाद, जब राहुल कोलकाता लौटता है, तो वह एक मैगजीन के लिए बंगाली गृहिणियों की तस्वीरें खींचने का फैसला करता है और परमा को अपने मॉडल के रूप में चुनता है।

रिश्तों का बदलता स्वरूप

राहुल और परमा का रिश्ता केवल फोटोग्राफर और मॉडल के संबंध से आगे बढ़ जाता है। यह एक जटिल और भावनात्मक संबंध में बदलता है। राहुल के साथ यह समय परमा को उसकी गहरी इच्छाओं और भावनाओं से जोड़ता है, जिसे उसने बरसों से दबा रखा था। वह खुद को फिर से पहचानने लगती है, अपने सपनों और इच्छाओं को समझने लगती है। हालांकि, राहुल के अमेरिका लौटने के बाद उनका रिश्ता केवल पत्रों तक सीमित रह जाता है। हालात तब बिगड़ते हैं जब परमा की एक संदिग्ध तस्वीर एक मैगजीन में छप जाती है, जिसमें ‘रीमेम्बर?! लव राहुल’ लिखा होता है। यह तस्वीर परमा के पति के हाथों में आ जाती है, और इसके बाद परमा का पूरा परिवार उससे दूरी बना लेता है। परमा को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जाता है, जिससे वह भावनात्मक रूप से टूटने लगती है।

समाज के कठोर मानदंड और परमा का संघर्ष

तस्वीर साभार: ITP Global Film

फिल्म के एक महत्वपूर्ण दृश्य में परमा का पति विदेश में अपनी सेक्रेटरी के साथ अनुचित संबंध बनाने की सोचता है, और इसे सामान्य घटना के रूप में दिखाया जाता है। यह दिखाता है कि पुरुषों के लिए विवाहेतर संबंध कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती, जबकि परमा के रिश्ते को समाज कठोरता से आंकता है। इस भेदभाव को फिल्म बखूबी दिखाती है, जहां पुरुषों के लिए समाज के मानदंड और महिलाओं के लिए अलग-अलग होते हैं। इन घटनाओं के बाद परमा आत्महत्या करने का सोचती है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाती। उसका परिवार उसे यह समझाने की कोशिश करता है कि जो कुछ हुआ उसे भूल जाए और अपने शादीशुदा जीवन पर ध्यान दे। लेकिन परमा ऐसा करने में असमर्थ होती है, क्योंकि राहुल के साथ बिताए समय ने उसकी सोच को पूरी तरह बदल दिया है। वह अब अपनी इच्छाओं और सपनों को नजरअंदाज नहीं कर सकती।

फिल्म के एक महत्वपूर्ण दृश्य में परमा का पति विदेश में अपनी सेक्रेटरी के साथ अनुचित संबंध बनाने की सोचता है, और इसे सामान्य घटना के रूप में दिखाया जाता है। यह दिखाता है कि पुरुषों के लिए विवाहेतर संबंध कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती, जबकि परमा के रिश्ते को समाज कठोरता से आंकता है।

जागरूकता और पहचान की यात्रा

फिल्म के अंत में परमा अकेले अपने जीवन की सच्चाइयों का सामना करती है। वह अपने परिवार द्वारा छोड़ी गई परंपराओं और सामाजिक अपेक्षाओं से खुद को आजाद महसूस करती है। वह समाज के नियमों को चुनौती देते हुए अपनी पहचान को फिर से खोजने का निर्णय लेती है। फिल्म के अंतिम दृश्य में, परमा अपनी साड़ी को कसकर बांधती है, जो इस बात का प्रतीक है कि वह अब समाज के बंधनों से मुक्त हो चुकी है। परमा केवल एक विवाहेतर संबंध की कहानी नहीं है; यह महिलाओं की मानसिकता और समाज द्वारा उन पर लगाए गए बंधनों की गहरी पड़ताल है।

फिल्म में परमा की यात्रा आत्म-खोज की यात्रा है, जहां वह अपने भीतर की आवाज सुनती है और अपने अस्तित्व के लिए खड़ी होती है। राहुल उसकी इस यात्रा में एक सहायक की भूमिका निभाता है, जो उसकी स्वतंत्रता और आत्मविश्वास को फिर से जगाता है। फिल्म उन सामाजिक ढांचों की आलोचना करती है जो पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग मानदंड स्थापित करते हैं। जहां एक तरफ पुरुषों के विवाहेतर संबंधों को सामान्य समझा जाता है, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को कठोर सामाजिक दंड का सामना करना पड़ता है।

फिल्म उन सामाजिक ढांचों की आलोचना करती है जो पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग मानदंड स्थापित करते हैं। जहां एक तरफ पुरुषों के विवाहेतर संबंधों को सामान्य समझा जाता है, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को कठोर सामाजिक दंड का सामना करना पड़ता है।

सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव

राखी गुलजार ने परमा की भूमिका में बेहद सशक्त और संजीदा प्रदर्शन किया है। उनकी अदाकारी में एक गहराई है, जो परमा के भीतरी संघर्ष को प्रभावशाली ढंग से पेश करती है। राहुल के क़िरदार अदा करते हुए मुकुल शर्मा का काम भी सराहने लायक है, जो की अपने बोलचाल, विचार और स्टाइल के लिए पूरे तरह से फोटोग्राफर के क़िरदार में ढला हुआ-सा लगता है, जो परमा के चरित्र को और भी उभारने के काम आता है, क्योंकि वो एक बेबाक, आज़ाद ख्याल और मनमौजी चरित्र के रूप में दिखता हैं। अपर्णा सेन का निर्देशन भी शानदार है। उन्होंने फिल्म को अत्यधिक भावनात्मक बनाने से बचाते हुए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है। उन्होंने भावनाओं के अतिरेक से बचते हुए इसे अधिक यथार्थवादी और रेयलिस्टिक दृष्टिकोण से पेश किया है। फ़िल्म की गति इस तरह से रखी गई है कि दर्शक परमा के अंदरूनी संघर्ष से पूरी तरह से जुड़ सकें, जिससे उसकी यात्रा और भी प्रभावशाली हो जाती है।

तस्वीर साभार: ITP Global Film

फिल्म के धीमे-धीमे बहते दृश्य दर्शकों को परमा के भीतर के संघर्ष से जोड़ते हैं। अशोक मेहता की सिनेमाटोग्राफी फिल्म के मूड और माहौल को बेहतरीन तरीके से पेश करती है। परमा अपने समय की एक क्रांतिकारी और नारीवादी फ़िल्म थी, जिसने भारतीय समाज में अक्सर वर्जित माने जाने वाले मुद्दों को उठाया। इसने पारंपरिक स्त्रीत्व और विवाह की धारणाओं को चुनौती दी और एक महिला के जीवन में उसकी खुद की निर्णय लेने की क्षमता के अधिकार को एक संवेदनशील तरीके से संमने रखा। फ़िल्म का प्रभाव सिर्फ़ इसके नारीवादी संदेश तक सीमित नहीं है। बल्कि यह उन मध्यवर्गीय मूल्यों की भी आलोचना करती है, जो व्यक्तिगत खुशी और संतुष्टि के बजाय सामाजिक स्थिति और दिखावे को प्राथमिकता देते हैं। अपर्णा सेन की यह आलोचना काफ़ी बारीक लेकिन शक्तिशाली है, जिससे परमा आज भी दर्शकों के दिलों में गूंजती है। यह एक ऐसी फ़िल्म के रूप में सामने आती है जो न सिर्फ़ एक महिला की व्यक्तिगत आज़ादी की कहानी है, बल्कि यह समाज के दकियानूसी सोच और परंपराओं के खिलाफ उसकी लड़ाई को भी बखूबी दिखाती है।

हालांकि इस फ़िल्म को अंतराष्ट्रीय कोई पुरस्कार नहीं मिले लेकिन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार 1986, फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स 1986, बीएफजेए अवार्ड्स 1986 से पुरस्कृत किया गया। फिल्म ने मध्यवर्गीय मूल्यों की आलोचना की, जो व्यक्तिगत खुशी और संतुष्टि की तुलना में सामाजिक स्थिति को अधिक महत्व देते हैं। परमा एक महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समाज के कठोर नियमों के खिलाफ उसकी लड़ाई की कहानी है। यह फिल्म नारीवादी दृष्टिकोण से एक साहसी बयान प्रस्तुत करती है और महिलाओं के मानसिक और सामाजिक संघर्षों को प्रभावशाली ढंग से पेश करती है। इस फिल्म ने न केवल भारतीय सिनेमा में नारीवादी विषयों की एक नई दिशा खोली, बल्कि समाज के उन पक्षों को भी उजागर किया जो आज भी प्रासंगिक हैं।

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