उत्तराखंड के पिंडर घाटी के बर्फीले इलाकों में एक कीड़ा पाया जाता है। गर्मियों में जब बर्फ पिघल जाती है तो ये बाद में एक घास की तरह नज़र आती है। यह कीड़े से बनी घास बहुत कीमती है। दुनिया भर में इसकी मांग है क्योंकि इसका इस्तेमाल कामोत्तेजक दवा के रूप में होता है। इस कैटरपिलर फंगस को हिंदी में ‘कीड़ाजड़ी’ कहते है। लेखक अनिल यादव ने अपने दूसरे यात्रा संस्मरण को यही शीर्षक दिया है। अपने इस ट्रैवलॉग में अनिल यादव उत्तर हिमालय की पिंडर घाटी के दूर-दराज के जीवन, वहां की धाराएं और ऊंचाइयों का बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से वर्णन करते हैं।
पहली बार यहां लेखक एक एनजीओ द्वारा संचालित स्कूल में स्वयंसेवक शिक्षक के रूप में जाते हैं। वहां वह शिक्षण कार्य के साथ एक लेखक के तौर पर स्थानीय लोगों के जीवन में झांकते हैं। बतौर शिक्षक वे वहां पहाड़ी बच्चों को हिंदी सिखाने साथ-साथ बच्चों से भी सीखते हैं। वे उस जगह केवल पर्यटक की तरह नहीं रहे बल्कि उस जगह बसे, उन लोगों को अपनाया और उनके द्वारा अपनाए गए। स्थानीय लोगों के बीच रहकर उनकी कहानियां सुनी, स्थानीय देवता के त्यौहार में हिस्सा लिया, बर्फीले पहाड़ों पर सूर्य की फैलती किरणें, घंटों एकांत का अनुभव किया है। पिंडर घाटी का जीवन धीमा है। वहां पहाड़ों में लोगों की अपनी-अपनी ईमानदारी से भरी आशाएं हैं। जैसे गाँव की एक लड़की का सपना है कि वह बागेश्वर शहर तक नीचे जाना ताकि वह मैदानी इलाकों के निवासियों की तरह अपने पैर घसीटते हुए चल सके, बजाय इसके कि उसे हमेशा चढ़ाई करनी पड़े।
कीड़ाजड़ी के किरदारों के जीवन के खुरदुरेपन से पैदा हुआ बोध जितना सरल है उतना अनूठा भी है। किताब की शुरुआत जोती से होती है। जुओं से निजात के लिए जिसका सिर गंजा कर दिया गया है। उसके गालों पर मैल की झांइयां है, बहती नाक की पपड़ी जमी हुई है। वह अक्सर दो तरह की चप्पल पहने रखती है। जोती का स्कूल में एडमिशन नहीं हो सका है इसलिए उसे ड्रेस नहीं मिली है लेकिन मिड-डे मिल मिलता है। वह नए मास्टर से बात करती है उसके साथ खेलना चाहती है। दरवाजे पर लात मारते हुए कहती है, ‘माट्टर द्वार खोल’।
सिूप गाँव के सरपंच शंकर श्रीपाल इस पर चिंता जताते हुए कहते हैं, “कीड़ाजड़ी ने स्कूल छोड़ने वाले की संख्या को बढ़ा दिया है। अब वे पढ़ाई में रूचि नहीं रखते, क्योंकि उनके पास आकर्षक जीविका का एक विकल्प मौजूद है।“
कीड़ाजड़ी को लेकर वहां के लोगों की अपनी अलग-अलग कहानियां हैं। पुराने लोग याद करते हैं, तिब्बत की ओर से भूले-भटके आने वाले व्यापारी किसी कीड़े की बात करते थे जिससे आदमी हो या जानवर, सबकी सब बीमारियों की दवाई बनती है। चामू कहता है, “टकीड़ा हमारे यहां भी होता है, लोगों को इसका पता समझो, धीरे-धीरे दो हजार से दो हजार छह के बीच लगा।” उसका छोटा भाई जोहा बीच के एक साल, दो हजार तीन पर उंगली ठोकता है जब सभी निकालने जाने लगे लेकिन रेट का अंदाज नहीं था, फिर कहता है पढ़ा लिखा है, ग्राम पंचायत का सदस्य है, मीटिंग में भी बोल लेता है, उसके बच्चे बागेश्वर के स्कूल में पढ़ते है। कीड़ाजड़ी कब आई, दोनों इस चटक साझा स्मृति को भी जांचने के लिए आँख नहीं मिलाते है।
अनिल यादव पहाड़ की महिलाओं के जीवन के बारे में भी लिखते है। वह कहते है कि पहाड़ पर महिलाओं का जीवन पुरुषों से ज्यादा कठिन है। औरतें घर के काम के साथ-साथ कीड़ाजड़ी का काम भी करती है। मई-जून के दौरान जब कीड़ाजड़ी का मौसम होता है उसे छोड़कर यहां लोग आलू, बाजरा और सब्जियां उगाते हैं और भेड़ें पालते हैं। ज्यादातर लोग काम पर होते हैं। माता-पिता को भी इस बात की परवाह नहीं होती है कि दो-तीन महीने उनके बच्चे स्कूल छोड़ दें। सिूप गाँव के सरपंच शंकर श्रीपाल इस पर चिंता जताते हुए कहते हैं, “कीड़ाजड़ी ने स्कूल छोड़ने वाले की संख्या को बढ़ा दिया है। अब वे पढ़ाई में रूचि नहीं रखते, क्योंकि उनके पास आकर्षक जीविका का एक विकल्प मौजूद है।“
कीड़ाजड़ी के व्यापार के ऊपर भी वे लिखते हैं। “इस व्यापार ने कैसे वहां के लोगों के जीवन को बदला है उन कहानियों को भी दर्ज किया है। कीड़ाजड़ी के व्यापार को नैतिक व्यापार कहा जाता है और थोक बाजार में इसका भाव एक दो लाख रुपये प्रति किलो के बीच मिलता है। संपन्न लोगों जैसी ही लालसाओं और बीमारियों से ग्रस्त उस तबके के लोगों का नया बाजार विकसित हो रहा है जो ऊंचे दामों पर चीन से कीड़ाजड़ी नहीं मंगा सकते।” कीड़ाजड़ी के व्यापार से शासन, व्यापारी और स्थानीय लोगों कई स्तर पर बदले है। कीड़ाजड़ी कोई प्रतिबंधित चीज़ नहीं है, न ही इसके व्यापार की कानूनी मनाही है फिर हर साल बहुत से ग्रामीण इसकी तस्करी, अवैध विदोहन, संग्रहण, परिवहन के आरोपों में गिरफ्तार किए जाते हैं। आपसी झगड़े और हत्याएं तक होने लगी हैं। इसका कारण सरकारी तंत्र में फैली बाबूगिरी है जो मसलों को सुलझाने के बाजय उलझा कर ऊपरी कमाई के नए रास्ते बनाने की माहिर है।
कीड़ाजड़ी का विषय किताब में आधे रास्ते में आता है। पहले हम पिंडर और उसके लोगों को समझते हैं और फिर हमें धीरे-धीरे इसके इसके चारों ओर उपजी राजनीति की ओर ले जाया जाता है। कीड़ाजड़ी की खोज ने कैसे स्थानीय अर्थव्यवस्था, समाज और स्थानीय आकांक्षाओं को भी प्रभावित किया है। मंदिर, जनरेटर, टाटा सूमो जैसे वाहन जल्द ही यहां पहुंच गए और साथ ही वे जीप ड्राइवर भी, जो शहर के लोगों को पिंडर तक लाते हैं। पहाड़ों में हर चीज़ की तरह, यहां भी कुछ लोगों के पास कीड़ाजड़ी खोजने की विशेष प्रतिभा होने की चमत्कारी कहानियां प्रचलित हैं, जबकि कुछ लोग कीड़ाजड़ी की आत्मा से श्रापित माने जाते हैं और आंखों के सामने होने पर भी उसे देखने में हमेशा असफल रहते हैं। इसके अपने बहुत से मिथक बना लिए हैं।
जो लोग इसे इकट्ठा करने के लिए कठिन यात्राएं करते हैं, और जो इसे हासिल करने के लिए दिमाग चकरा देने वाली रकम खर्च करते हैं। इसमें विदेशी भी शामिल है। उन्हें यह लेन-देन करते समय लापरवाह वन रक्षकों और बाबुओं से बचना पड़ता है, जो राज्य द्वारा स्वीकृत दरों को लागू करते हैं, जो वास्तविक बाजार दरों से काफी कम होते हैं। एक वैध व्यापार इस प्रकार रहस्य और साजिश का रूप धारण कर लेता है। इस व्यापार से कीड़ाजड़ी की बढ़ती लोकप्रियता में परिलक्षित होती हैं।
लेखक अनिल यादव की लेखनी इतनी जीवंत है कि पढ़ते हुए सब आंखों के सामने होता महसूस होता है। उनके शब्दों से आंखों के सामने दृश्य बुनते चले जाते हैं। पहाड़ के जीवन की वीरानियों, हताशा, खुशी सब बहुत देर तक दिमाग में घूमती रहती है। पथरीली रास्तों पर फूलती सांस, ठहरते कदम तक का एहसास होता है। यादव को पढ़ते समय वहां के लोगों की आवाज़ों की कल्पना बनने लगती है। पिडंर नदी का शोर कानों में गूंजने लगता है। लेखक अनिल यादव स्थानीय राजनीति और नौकरशाही के रवैये को भी सामने रखते है। मजबूत पहाड़ी लोग जो कीड़ाजड़ी को इकट्ठा करते हैं, उनके पास इसे चखने या परखने की कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती है। उनके लिए यह बस पैसे का स्रोत है। वह पैसा जो उनके कठिन जीवन में जीवित रहने के लिए ज़रूरी है। जब वे दुनिया से कटे होते हैं। कीड़ाजड़ी के पैसे बनाने वाले माध्यम के ज़रिए अनिल यादव ने कुमाऊं की पहाड़ियों में जीवन की सामाजिक-आर्थिक सच्चाई को उजागर करने में सफल होते हैं।