बचपन से ही अपने परिवार और आस-पड़ोस में यह सुनने को मिलता आ रहा है कि अच्छी लड़कियां अपने काम से मतलब रखती हैं। अच्छी लड़कियां घरों में रहती हैं, अच्छी लड़कियां आवारागर्दी नहीं करतीं। कुल मिलाकर बचपन से ही लड़कियों के दिमाग में यह बात बिठा दी जाती है कि घूमना-फिरना एक ग़लत बात है। सही और ग़लत का यह पैमाना इंसान के जेंडर से तय होता है। एक लड़का आराम से देर रात तक घूम सकता है, लेकिन एक लड़की के लिए इसे चरित्र से जोड़कर देखा जाता है। बार-बार दोहराए जाने से यह बात मेरे मन में भी जड़ें जमा चुकी थी कि घूमना-फिरना अच्छी चीज नहीं। बाहर निकलना तभी ज़रूरी है जब कोई विशेष काम हो, जैसे पढ़ाई, परीक्षा, हॉस्पिटल या ऐसे ही दूसरे काम। सोशल कन्डिशनिंग का असर इतना ज़्यादा रहता है कि इससे निकल पाना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था में भूमिका विभाजन करके पुरुषों ने ख़ुद तो बाहर के काम संभाले जबकि महिलाओं को घर की चारदीवारी में सीमित कर दिया। इस प्रकार सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों ने अपना कब्ज़ा बनाए रखा, जिस वजह से महिलाओं के लिए सुरक्षित और सहज माहौल मिलना मुश्किल होता रहा। लेकिन समय के साथ परिस्थितियों में बदलाव आया और महिलाओं को पढ़ाई, कॅरियर और दूसरी ज़रूरतों के लिए यात्राएं करने का मौका मिला। आज महिला के लिए यात्राएं केवल ज़रूरत के लिए नहीं बल्कि शौक का भी हिस्सा बनने लगी है। ख़ास तौर पर एकल महिला के लिए यात्राएं स्वतंत्रता, समानता, सशक्तीकरण और व्यक्तित्व के विकास का अहम माध्यम है।
स्वयं-खोज का माध्यम
मेरे आस-पास के लोग मुझे अंतर्मुखी स्वभाव के व्यक्ति के तौर पर जानते हैं। बचपन से ही लोगों से बातचीत या संपर्क करना मुझे ख़ास पसंद नहीं रहा। एकांत में रहना और किताबों के बीच समय बिताना सबसे पसंदीदा काम होता। लेकिन जब मैंने यात्राएं करना शुरू किया तो धीरे-धीरे मुझे समझ आया कि मुझे लोगों को जानना, समझना उनकी ज़िन्दगी के बारे में जानना दिलचस्प लगता है। इससे मुझे ख़ुद के बारे में भी सोचने-समझने और गहराई से आकलन करने का मौका मिला। इससे सोशल कंडीशनिंग ख़त्म करने में भी मदद मिली, जिसके अनुसार अच्छी लड़कियां घर की चारदीवारी में सीमित रहती हैं। यात्राओं ने मुझे मेरे व्यक्तित्व के नए-नए आयामों से परिचित कराया। यात्रा के विषय में जयपुर, राजस्थान की 23 वर्षीय फिजियोथेरेपिस्ट डॉ. अरुणिमा प्राची अपने पहले अकेले सफ़र का अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “पहले अकेले सफ़र के पहले मन में अनाम आशंकाएं डराती रहती थीं। लेकिन अकेले सफ़र करने के बाद उन तमाम डरों पर न सिर्फ़ मैंने विजय पाई, बल्कि सहयात्रियों के प्रति एक भरोसा भी विकसित हुआ। अकेले सफ़र करके अपने मन में मैंने सहजता और आशा का संचार पाया और इस के साथ ही मैंने ख़ुद को एक नए रूप में ढलते हुए देखा।”
पहले अकेले सफ़र के पहले मन में अनाम आशंकाएं डराती रहती थीं। लेकिन अकेले सफ़र करने के बाद उन तमाम डरों पर न सिर्फ़ मैंने विजय पाई, बल्कि सहयात्रियों के प्रति एक भरोसा भी विकसित हुआ। अकेले सफ़र करके अपने मन में मैंने सहजता और आशा का संचार पाया और इस के साथ ही मैंने ख़ुद को एक नए रूप में ढलते हुए देखा।
सामाजिक सीमाओं से मुक्ति
जब भी मैं किसी यात्रा पर होती हूं मुझे लगता है कि मैंने पारंपरिक सामाजिक ढांचे को तोड़ने की हिम्मत की है। अलग-अलग जगहों पर जाना, नए लोगों से मिलना, नई संस्कृतियों को समझना एक अलग तरह की आज़ादी का एहसास कराता है। महिलाओं को एकल यात्रा के दौरान अपनी शर्तों पर दुनिया को देखने का मौका मिलता है। कहां जाना है, कैसे जाना है, कब जाना है और किस प्रकार से योजना बनानी है, यह सारे काम ख़ुद से करना बहुत सुखद होता है। एकल यात्राएं कुछ समय के लिए ही सही हमें पारंपरिक भूमिका से बाहर निकलकर अपने लिए जीने का मौका देती हैं।
इस बारे में पटना की रहने वाली JECRC यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर नेहा शर्मा कहती हैं, “अकेले यात्रा करके कुछ समय के लिए ही सही हम ख़ुद को एक व्यक्ति के तौर पर प्राथमिकता दे पाते हैं। यह एक ऐसा समय होता है जब हम किसी की बेटी, पत्नी या मां न होकर एक इंसान के तौर पर ख़ुद को देख पाते हैं। यह अपने आप में बेहद सुखद और एंपावरिंग होता है। हम महिलाओं को मौका निकाल कर एकल यात्रा ज़रूर करनी चाहिए।”
अकेले यात्रा करके कुछ समय के लिए ही सही हम ख़ुद को एक व्यक्ति के तौर पर प्राथमिकता दे पाते हैं। यह एक ऐसा समय होता है जब हम किसी की बेटी, पत्नी या मां न होकर एक इंसान के तौर पर ख़ुद को देख पाते हैं। यह अपने आप में बेहद सुखद और एंपावरिंग होता है। हम महिलाओं को मौका निकाल कर एकल यात्रा ज़रूर करनी चाहिए।
आत्मविश्वास में बढ़ोत्तरी
आज के ज़माने में हर तरफ महिला सशक्तीकरण की बात की जाती है। उसमें अधिकतर आर्थिक पहलू को शामिल किया जाता है। लेकिन सशक्तीकरण में भौतिक और आर्थिक मजबूती के साथ ही मानसिक सशक्तीकरण भी शामिल होना चाहिए। हर बार जब मैं किसी नई जगह पर जाती हूं तो रास्ते में बहुत सारी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में भावनात्मक स्थिरता, तर्क क्षमता और निर्णय क्षमता की परख होती है जिससे समस्या-समाधान की ओर बढ़ते हैं। यह सारी प्रक्रिया सिखाती है कि मैं किसी भी परिस्थिति का सामना कर सकती हूं और अपनी समस्याओं से जरूरत पड़े तो ख़ुद निपट सकती हूं। इससे मुझे मनोबल मिलता है और आत्मविश्वास बढ़ता है।
आमतौर पर हमारे समाज में महिलाओं को एक तो बाहर आने-जाने का मौका नहीं दिया जाता है उसके बाद हमें बात-बात पर यह सुनाया जाता है कि तुम्हें बाहर की दुनिया के बारे में क्या पता! लेकिन जब हम अकेले यात्रा करते हैं तब हमें समझ आता है कि यह इतना भी मुश्किल नहीं है। अकेले यात्रा करने के दौरान ट्रेन, फ्लाइट या बस की टिकट बुक करने से लेकर सही समय और तय जगह पर पहुंचना, ख़ुद का और अपने सामान का ध्यान रखना साथ ही सफ़र के दौरान आने वाली चुनौतियों से निपटना हमारे आत्मविश्वास को कई गुना बढ़ा देता है।
राजस्थान की डॉक्टर संजू सदानीरा का अकेले यात्रा के अनुभवों पर कहती हैं, “अकेले यात्राओं ने मेरे आत्मविश्वास, साहस और निर्णय लेने की क्षमताओं को बहुत अधिक प्रभावित किया। सफ़र में पहनने वाले कपड़ों से लेकर यात्रियों से की जाने वाली बातचीत तक सभी चीजों में इन यात्राओं के माध्यम से लोगों को समझने और समाज को देखने की विशेष दृष्टि विकसित हुई। इसके अतिरिक्त अकेले सफ़र के दौरान मिला हुआ मी टाइम हर बार यादगार बना।”
मानसिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव
मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं पूरी दुनिया में चिंता का विषय बनती जा रही है। तकनीकी विकास के बावजूद भौतिकतावाद और बढ़ती प्रतिस्पर्धा तनाव, दबाव और अवसाद जैसी समस्याओं में बढ़ोत्तरी कर रहे हैं। ऐसे में यात्राएं व्यक्ति को सुकून देने का काम करती हैं। जीवन परिवर्तनशील है और नवीनता हम सभी को पसंद आती है। यात्राओं के दौरान हमें नई-नई चीजें देखने, नए लोगों से मिलने, नई संस्कृतियों, खान-पान, वेशभूषा इत्यादि को करीब से देखने-समझने का भी मौका मिलता है। ये हमारे अंदर एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार करते हैं।
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ के अनुसार स्ट्रेस, एंजायटी और डिप्रेशन जैसी मानसिक बीमारियों का जोख़िम महिलाओं में तुलनात्मक रूप से अधिक पाया जाता है। इसके पीछे शारीरिक संरचना से जुड़े कारक तो हैं ही पर साथ ही पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। इसलिए महिलाओं का एक निश्चित समय अंतराल पर यात्राएं करना और अधिक ज़रूरी हो जाता है। नई जगह पर घूमना और प्रकृति के बीच समय बिताना हमें मानसिक तनाव से दूर रखने में मदद करता है और ज़िन्दगी के प्रति उत्साह भरने का काम भी करता है।
अकेले यात्राओं ने मेरे आत्मविश्वास, साहस और निर्णय लेने की क्षमताओं को बहुत अधिक प्रभावित किया। सफ़र में पहनने वाले कपड़ों से लेकर यात्रियों से की जाने वाली बातचीत तक सभी चीजों में इन यात्राओं के माध्यम से लोगों को समझने और समाज को देखने की विशेष दृष्टि विकसित हुई।
महिला सशक्तीकरण और समानता की ओर क़दम
यात्राएं करते समय खासतौर पर अकेले यात्रा करते समय, आज़ादी का एहसास सबसे ख़ास होता है। इस दौरान मुझे अपने फ़ैसले लेने की पूरी आज़ादी होती है। कहां जाना है, कहां रुकना है, किस से बात करनी है, सफ़र का साधन क्या होगा, ये सारे फ़ैसले लेना यह महसूस कराता है कि मैं अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से जी रही हूं। कोई बंधन नहीं, कोई ज़िम्मेदारियां नहीं, किसी का दबाव नहीं बल्कि इस दौरान ख़ुद के लिए जो सबसे ज़रूरी है वह हम ख़ुद होते हैं। यात्राओं से यह एहसास और मजबूत होता है कि हम बराबर हैं यह धरती हमारे लिए भी उतनी ही है, जितनी पुरुषों के लिए। यात्राएं स्वतंत्रता और समानता जैसे मौलिक अधिकारों को कागज़ों से ज़मीन पर उतार कर जीने की सहूलियत देती हैं। यात्राएं हमें यह महसूस कराती हैं कि हमें अपनी मर्ज़ी से कहीं भी आने जाने की स्वतंत्रता है।
यह हमें एहसास दिलाती हैं कि हम अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद उठा सकते हैं, रास्ते में आने वाली चुनौतियों को ख़ुद से पार कर सकते हैं। सक्षमता, समर्थता का यह एहसास आत्मविश्वास बढ़ाता है। यात्राएं हमें ज़िन्दगी के नए अनुभवों से रूबरू कराती हैं जो हमें सशक्त होने की दिशा में एक क़दम और आगे ले जाता है। हर यात्रा मेरे लिए एक नई सीख लेकर आती है और मेरे अंदर यह यक़ीन जगाती है कि मैं किसी भी परिस्थिति से ख़ुद निपट सकती हूं। आज यात्राएं मेरे लिए ज़रूरत या शौक नहीं बल्कि मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बन गई हैं। इनसे मुझे आत्मविश्वास और आज़ादी का एहसास होता है। इन यात्राओं ने हर बार मुझे अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलने, ख़ुद को और ज़िन्दगी को देखने में नया नज़रिया तैयार करने में मदद किया है।