पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खादर क्षेत्र में सोनाली नदी के उफान पर होने के कारण किसानों की फसल खराब हो जाती हैं। खेतों में पानी भरने से न केवल फसल खराब होती है बल्कि खेती का काम भी रूक जाता है। ऐसे में खेतों में काम करने वाले दिहाड़ी मजूदरों के सामने आजीविका का संकट आ जाता है। इस साल सितंबर तक लगातार बारिश होने के बाद इस क्षेत्र के बहुत से मजदूरों को अपने गाँव से जिला मुजफ़्फ़रनगर में आकर दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ रही है। खादर इलाके के रहने वाली सुनीता भी उनमें से एक हैं। वह अपने पति और बच्चे के साथ शहर आई हैं। उसके पति शहर के लेबर चौक पर दिहाड़ी मजदूरी के लाइन में लगे हैं। वही वह सड़क किनारे गुब्बारे बेच रही हैं। उनका कहना हैं कि मेरा घर नदी से दूर है लेकिन मैं जहां काम करती हूं उन खेतों में पानी भर गया है। हर साल यह स्थिति खाने तक का संकट ला देती है इसलिए इस बार गाँव छोड़कर शहर आकर रहने का फैसला ले लिया अब यही कुछ करना है।
ये केवल सुनीता की कहानी नहीं है बल्कि देश हो या दुनिया हर जगह बड़ी संख्या में लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से एक जगह से दूसरी जगह विस्थापन करने को मजबूर है। चरम मौसमी घटनाओं तूफान, सूखा, बाढ़ या धीमी गति से घटित हो रही घटनाओं, समुद्र के बढ़ते जलस्तर, कृषि की खेती में खारे पानी से पैदावर कम होने जैसे कारणों से प्रभावित लोग दूसरी जगह या देशों तक में शरण लेने के लिए मजबूर है। बीते कुछ वर्षों से पृथ्वी के पर्यावरण में तेजी से गिरावट आई है जिसका असर जलवायु परिवर्तन के रूप में हमारे सामने है। प्रकृति के इस बदलाव की वजह से लोगों को अपने घरों और समुदायों को छोड़ना पड़ता है। इन लोगों को जलवायु शरणार्थी या जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विस्थापित कहा जाता है।
कौन है जलवायु विस्थापित?
दुनिया में विशेषतौर पर विकासशील देशों में बड़ी संख्या में लोग पहले कभी न देखे गए पैमाने पर सूखे, बाढ़ और तूफानों का सामना कर रहे हैं जिससे उनकी रोज के भोजन और बुनियादी ज़रूरतें तक पूरी नहीं हो पा रही है। इस तरह कि स्थिति से लोग अपने घर, देश से दूसरी जगह जा रहे हैं। यूनाइटेड नेशन हाई कमीशन फॉर रिफ्यूजी (यूएनएचसीआर) का अनुमान है कि हर साल चरम मौसमी घटनाओं जैसे भारी बारिश, सूखा, हीटवेव्स और तूफान की वजह से 23 मिलियल लोग अपने घरों से विस्थापित होते हैं। अधिकतर लोग अपने ही देश के दूसरे हिस्सों में जाकर शरण लेते हैं। लेकिन कुछ लोग सुरक्षा और संरक्षण के लिए दूसरे देशों की सीमाओं में शरण लेते हैं।
नई रिसर्च के अनुसार अगर जलवायु परिवर्तन के हो रहे बड़े बदलावों के खतरे को कम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया तो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण बड़ी संख्या में लोग पलायन करने के लिए मजबूर हो जाएंगे। साल 2050 तक हर साल 200 मिलियन लोगों को मानवीय साहयता की ज़रूरत होगी। वर्ल्ड इकनॉमी फोरम के अनुसार जलवायु शरणार्थी शब्द पहली बार लोगों के बढ़ते पैमाने पर प्रवास और सीमा पार सामूहिक आंदोलनों के बाद गढ़ा गया था। यूएनएचसीआर में प्रकाशित जानकारी के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित होने वाले अधिकांश लोग आमतौर पर अपने देश की सीमाओं के भीतर ही स्थानांतरित होते हैं। नैशनल ज्योग्राफी.डॉटकॉम मे प्रकाशित जानकारी के अनुसार संयुक्त राष्ट्र ने रिपोर्ट किया है कि साल 2022 में शरणार्थियों का उच्च प्रतिशत पहले से कहीं अधिक उन क्षेत्रों में दर्ज किया गया है जो जलवायु परिवर्तन के जोखिम में थे जो 2010 में 61 फीसदी से बढ़कर 2022 में 84 फीसदी हो गया। 2020 में, इकोनॉमिक्स एंड पीस संस्थान ने अनुमान लगाया कि जलवायु परिवर्तन और नागरिक अशांति के संयुक्त खतरे के कारण 2050 तक एक अरब से अधिक लोग विस्थापन के खतरे में होंगे।
साल 1990 के दशक के मध्य में, ब्रिटिश पर्यावरणविद नॉर्मन मायर्स ने जलवायु विस्थापन के बारे में प्रमुखता से बात की थी। मायर्स का तर्क था कि पर्यावरणीय विस्थापन के कारणों में मरुस्थलीकरण, पानी की कमी, सिंचित भूमि की लवणता और जैव विविधता की कमी शामिल होंगी। उन्होंने यह भी अनुमान लगाया कि चीन में 30 मिलियन, भारत में 30 मिलियन, बांग्लादेश में 15 मिलियन, मिस्र में 14 मिलियन, अन्य डेल्टा क्षेत्रों एवं तटीय इलाकों में 10 मिलियन, द्वीपीय राज्यों में 1 मिलियन और अन्य विस्थापित लोगों की संख्या साल 2050 तक 50 मिलियन तक पहुंच सकती हैं।
दुनिया में कहां हैं ज्यादा विस्थापित
जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य असुरक्षा, पानी की कमी साथ ही प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच में बाधा सामने आती है। समुद्र के लेवल में वृद्धि भी एक और खतरा है। पिछले 30 वर्षों में, उन तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की संख्या जो समुद्र स्तर की वृद्धि के उच्च जोखिम में हैं, 160 मिलियन से बढ़कर 260 मिलियन हो गई है। इनमें से 90 फीसदी गरीब विकासशील देशों और छोटे द्वीप राज्यों से हैं। उदाहरण के लिए अनुमानित है कि 2050 तक बांग्लादेश का 17 फीसदी हिस्सा समुद्र स्तर की वृद्धि से डूब जाएगा और वहां रहने वाले 20 मिलियन लोग अपने घर खो देंगे।
इकोसिस्टम थ्रेट रजिस्टर (ईटीआर) जिसे सितंबर 2018 में ऑस्ट्रेलियाई अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस (आईपी) द्वारा जारी किया गया उसके अनुसार 2050 तक इन खतरों के कारण कम से कम 1.2 बिलियन लोग विस्थापित हो सकते हैं। इंटरनल डिस्पैचमेंट मॉनिटरिंग सेंटर के अनुसार साल 2019 में जिन देशों में सबसे ज्यादा विस्थापन हुआ है उनमें भारत में सबसे ऊपर है। भारत में 50 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं। भारत में 5,018,000, फिलीपींस में 4,094,000, बांग्लादेश में 4,086,000, चीन में 4,034,000 और अमेरिका में 916,000 लोगों ने विस्थापन किया।
जलवायु विस्थापित लोगों के अधिकारों पर हो बात
दुनिया में पर्यावरणीय संकट लगातार विकराल रूप ले रहा। हर साल लाखों लोगों की जानें जा रही हैं। इस वजह से जलवायु आपदाओं से विस्थापित लोगों को संख्या भी बढ़ रही है। अगर दूसरे देशों में विस्थापित पर्यावरणीय शरणार्थियों की बात करे तो उनको अंतरराष्ट्रीय कानूनों द्वारा सुरक्षा नहीं दी जाती है। इतना ही नहीं वे अचानक या लगातार जलवायु आपदा के आधार पर पड़ोसी देश में शरणार्थी स्थिति के लिए आवेदन नहीं कर सकते है। “पर्यावरणीय शरणार्थी” शब्द पर भी विशेषज्ञों के बीच बहस हो रही है। कुछ इसका इस्तेमाल इस उद्देश्य के लिए समर्थन में करते हैं ताकि पर्यावरणीय प्रवासियों को कानूनी सुरक्षा मिल सके, जबकि अन्य इसे गलत मानते हैं और इसे उन लोगों की अनदेखी मानते हैं जो अपने ही देश के भीतर पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं।
अगर भारत की बात करे तो जलवायु संकट के कारण विस्थापित लोग का मुद्दा लोकसभा तक में उठाया जा चुका है। द हिंदू में छपी ख़बर के अनुसार केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने दावा किया था कि भारत जलवायु शरणार्थियों से निपटने के लिए तैयार है। हालांकि इसके लिए अभी कोई योजना पेश नहीं की गई है। वर्तमान में भारत जलवायु आंतरिक प्रवासियों पर आधिकारिक रूप से डेटा एकत्र नहीं करता है। इंटरनल डिस्पैचमेंट मॉनिटरिंग सेंटर के अनुसार साल 2008 से 2019 तक 3.6 मिलियन लोगों के विस्थापित होने का अनुमान है।
जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों के विस्थापन पर दुनिया भर में कई स्तर पर स्थिति को देखते हुए गंभीरता से बात होना बहुत ज़रूरी है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2018 में ग्लोबल कॉम्पैक्ट ऑन सेफ, ऑर्डरली एंड रेगुलर माइग्रेशन में स्पष्ट रूप से पर्यावरणीय संकट के कारण अपने मूल देशों को छोड़ने वाले प्रवासियों पर बात की गई है। इस कॉम्पैक्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे आगमन वाले देशों में जलवायु शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए योजना बनाएं और वीजा प्रदान करें यदि उनके मूल देशों में अनुकूलन और वापसी संभव नहीं है।
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